श्वेताश्वतरोपनिषद
श्वेताश्वतर उपनिषद् जो ईशादि दस प्रधान उपनिषदों के अनंतर एकादश एवं शेष उपनिषदों में अग्रणी है कृष्ण यजुर्वेद का अंग है। छह अध्याय और 113 मंत्रों के इस उपनिषद् को यह नाम इसके प्रवक्ता श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है। मुमुक्षु संन्यासियों के कारण ब्रह्म क्या है अथवा इस सृष्टि का कारण ब्रह्म है अथवा अन्य कुछ हम कहाँ से आए, किस आधार पर ठहरे हैं, हमारी अंतिम स्थिति क्या होगी, हमारे सुख दु:ख का हेतु क्या है, इत्यादि प्रश्नों के समाधान में ऋषि ने जीव, जगत् और ब्रह्म के स्वरूप तथा ब्रह्मप्राप्ति के साधन बतलाए हैं और यह उपनिषद सीधे योगिक अवधारणाओं की व्याख्या करता है।
उनके मतानुसार कुछ मनीषियों का काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिवी आदि भूत अथवा पुरुष को कारण मानना भ्रांतिमूलक है। ध्यान योग की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है (1.3)। इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है। यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है।
वस्तुत: जगत् माया का प्रपंच है। वह क्षर और अनित्य है। और मूलत: जीवात्मा ब्रह्मस्वरूपी है, परंतु माया के वशीभूत होने से अपने को उससे पृथक् मानता हुआ नाना प्रकार के कर्म करता और उनके फल भोगने के लिए पुन: पुन: जन्म धारण करता हुआ सुख दु:ख के आवर्त में अपने को घिरा पाता है। स्थूल देह में सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर जो कर्मफल से लिप्त रहता है उसके साथ जीवात्मा जन्मांतर में प्रवेश करता है। इस प्रकार यह संसार निरंतर चल रहा है। इसे ब्रह्मचक्र (1.6. 6-1) या विश्वमाया कहा गया है।
जब तक अविद्या के कारण जीव अपने को भोक्ता, जगत् को भोग्य और ईश्वर को प्रेरिता मानता अथवा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को पृथक् पृथक् देखता है तब तक इस ब्रह्मचक्र से वह मुक्त नहीं हो सकता। सुख दु:ख से निवृत्ति तथा अमृतत्व की प्राप्ति का एक मात्र उपाय जीवात्मा और ब्रह्म का अभेदात्मक ज्ञान है। ज्ञान के बिना ब्रह्मोपलब्धि आकाश की चटाई बनाकर लपेटने जैसा असंभव है (6.15.20)।
ब्रह्म का स्वरूप केवल निर्गुण, सगुणनिर्गुण और सगुण बतलाया गया है। जहाँ सगुणनिर्गुण रूप से विरोधाभास दिखानेवाले विशेषणों से युक्त परमेश्वर के वर्णन और स्तुतियाँ मिलती हैं, दो तीन मंत्रों में हाथ में बाण लिए हुए मंगलमय शरीरधारी रुद्र की ब्रह्मभाव से प्रार्थना भी पाई जाती है (3.5 6,4. 24) ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप निर्गुण, त्रिगुणातीत, अज, ध्रुव, इंद्रियातीत, निरिंद्रिय, अवर्ण और अकल है। वह न सत् है, न असत्, जहाँ न रात्रि है न दिन, वह त्रिकालातीत है- इत्यादि। सर्वेंद्रियविजिंत होकर भी उसमें सर्वेंद्रियों का भास होता है, वह अणु से अणु, महान् से महान्, अकर्ता होता हुआ भी ब्रह्मा पर्यत समस्त देवताओं का, अर्थात् समस्त ब्रह्मांड का कर्ता, भोक्ता और संहर्ता है। इसी प्रकार ब्रह्म के केवल सगुण रूप के वर्णन में उसे आदित्यवर्णा, सर्वव्यापी, सवभूतांतरात्मा, हजारों सिर, हाथ पैरवाला, भावग्राह्य, त्रिगुणमय और विश्वेरूप इत्यादि कहा गया है। निर्विशेष ब्रह्म का चिंतन अत्यंत दुस्तर होने से मनुष्य की आध्यात्मिक पहुंच के अनुसार अधिक सुसाध्य होने से सगुण और सगुणनिर्गुण रूप से उपासना का विस्तार हुआ है।
अस्तु, ईंधन पर ईंधन रखकर उसमें अव्यक्त रूप से व्याप्त अग्नि को प्रकट कर लेने पर किस तरह देह में व्याप्त ब्रह्म का प्रणव द्वारा निरंतर ध्यान करके उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। एतदर्थ द्वितीयाध्याय में प्राणायाम और योगाभ्यास की विधि विस्तारपूर्वक बतलाई गई है।
सन्दर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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संपादित करेंअनुवाद
संपादित करें- Translations of major Upanishads
- 11 principal Upanishads with translations
- Translations of principal Upanishads at sankaracharya.org
- Upanishads and other Vedanta texts
- डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा उपनिषदों का हिन्दी काव्य रूपान्तरण
- Complete translation on-line into English of all 108 Upaniṣad-s [not only the 11 (or so) major ones to which the foregoing links are meagerly restricted]-- lacking, however, diacritical marks