संगीतरत्नाकर
संगीतरत्नाकर (13 वीं सदी) शारंगदेव द्वारा रचित ग्रंथ है। यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण संगीतशास्त्रीय ग्रंथों में से है जो हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत दोनो द्वारा समादृत है।[1] इसे 'सप्ताध्यायी' भी कहते हैं क्योंकि इसमें सात अध्याय हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।

शारंगदेव, यादव राजा 'सिंहण' के राजदरबारी थे। सिंहण की राजधानी दौलताबाद के निकट देवगिरि थी। इस ग्रंथ के कई भाष्य हुए हैं जिनमें सिंहभूपाल (1330 ई) द्वारा रचित 'संगीतसुधाकर' तथा कल्लिनाथ (१४३० ई) द्वारा रचित 'कलानिधि' प्रमुख हैं।
इस ग्रंथ के प्रथम छः अध्याय - स्वरगताध्याय, रागविवेकाध्याय, प्रकीर्णकाध्याय, प्रबन्धाध्याय, तालाध्याय तथा वाद्याध्याय संगीत और वाद्ययंत्रों के बारे में हैं। इसका अन्तिम (सातवाँ) अध्याय 'नर्तनाध्याय' है जो नृत्य के बारे में है।
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १०००वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को 'प्रबन्ध' कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे - निबद्ध प्रबन्ध व अनिबद्ध प्रबन्ध। निबद्ध प्रबन्ध को ताल की परिधि में रहकर गाया जाता था जबकि अनिबद्ध प्रबन्ध बिना किसी ताल के बन्धन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबन्ध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविन्द।
- चतुभिर्धातुभिः षड्भिश्चाङ्गैर्यस्मात् प्रबध्यते।
- तस्मात् प्रबन्धः कथितो गीतलक्षणकोविदैः॥
संरचना
संपादित करेंसंगीतरत्नाकर में ७ अध्याय हैं जिनमें गीत, वाद्य और नृत्य के विभिन्न पक्षों का वर्णन है।
- स्वरगताध्याय
- रागविवेकाध्याय में क्रमचय-संचय का बहुत अधिक उपयोग हुआ है।[2]
- प्रकीर्णकाध्याय (संगीत का प्रदर्शन)
- प्रबन्धाध्याय (संगीत-रचना, छन्द)
- तालाध्याय (ताल)
- वाद्याध्याय (वाद्य)
- नर्तनाध्याय (नृत्य)
संगीतरत्नाकर उत्तरी और दक्षिणी दोनों संगीत पद्धतियों में आधार ग्रन्थ माना जाता है। यह सात अध्यायों में विभाजित है जिनमें गायन, वादन और नृत्य तीनों से संबंधित पारिभाषिक शब्दों तथा अन्य बातों पर प्रकाश डाला गया है। यद्यपि उसने भरत का अनुशरण किया है फिर भी उसकी मौलिकता और सारणां चतुष्टयी, मूर्छना मध्यम ग्राम का लोप, अनेक विकृत स्वरों की प्राप्ति में झलकता है।
इसका प्रथम अध्याय - स्वराअध्याय में नाद की परिभाषा, नाद की उत्पत्ति और उसके भेंद (आहत और अनाहत), सारणां चतुष्टयी, ग्राम, मूर्छना, वर्ण, अलंकार और जाति का विस्तृत वर्णन मिलता है। सारणां चतुष्टयी प्रयोग के अन्तर्गत भरत ने स्वर वीणा और शारंगदेव ने श्रुति वीणा पर प्रयोग किया है। इसलिये भरत ने सात तार और पं० शारंगदेव ने 29 तार बांधे थे। मूर्छना के अन्तर्गत उसने सभी मूर्छनाओं को षडज ग्राम में खिसका दिया और प्रत्येक मूर्छना को षडज ग्राम से प्रारंभ किया। जिससे उसे विकृत स्वर की परख हुई। उसके समय तक केवल दो ही विकृत स्वर माने जाते थे । उसके स्वरों की विशेषता यह थी कि कोई भी स्वर अपने स्थान से हट जाने पर विकृत तो होता ही था, अपने स्थान पर रहते हुये भी पिछले स्वर से अन्तराल (श्रुत्यान्तर) बदल जाने पर भी विकृत हो जाता था।
दूसरा अध्याय राग विवेकाध्याय है। इसके अन्तर्गत उसने 264 रागों का वर्णन किया है। उसने सभी रागों को 10 भागों में बाटा है जिनके नाम है- (1) ग्राम राग जिनकी संख्या 30 मानी है (2) राग की 20, (3) उपराग की 8, (4) रागांग की भी 8, (5) भाषांग की 21, (6) क्रियांग की 12, (7) उपांग की 3, (8) भाषा की 6, (9) विभाषा की 20, (10) अन्तर्भाषा की 4 मानी है। इस वर्गीकरण का आधार अस्पष्ट होने के कारण इनके अर्थ के विषय में कई मतमतान्तर है। फिर भी इस वर्गीकरण से यह स्पष्ट है कि उस समय भरत की जातियां अप्रचलित हो गई थी।
तीसरा अध्याय प्रकीर्णकाध्याय है, जिसमें उसने वाग्गयेकार के 28 गुणों का विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त गायक के गुणदोष, अच्छाई और बुराई बताई है।
चौथा अध्याय प्रबंधाध्याय है, जिसमें शारंगदेव ने प्रबंध विषय पर विचार किया है। देशी संगीत, मार्गी संगीत, निबद्धगान, अनिबद्धगान, रागालाप, रूपकालाप, आलप्तिगान, स्वस्थान नियम का आलाप, अल्पत्व, बहुत्व आदि पर इस अध्याय में प्रकाश डाला है।
पंचम अध्याय तालाध्याय है, जिसमें उसने उस समय में प्रचलित तालो का विचार किया है। छठा अध्याय वाद्याध्याय है, जिसमें उसने समस्त वाद्यो को चार भागों में बाटा है - तत्, सुषिर, अवनद्ध और घन ।
संगीत रत्नाकर का अन्तिम अध्याय नर्तनाध्याय है जिसमें उसने नृत्य, नाट्य, और नृत्य संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला है।
भाष्य
संपादित करेंसंगीतरत्नाकर अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है और भारतीय संगीत में एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह है। इसलिये इसके अनेक भाष्य लिखे गये हैं, जैसे संगीतसुधाकर, तथा कल्लिनाथ का कलानिधि।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ संगीतरत्नाकर का संक्षिप्त परिचय
- ↑ Combinatorial Methods in Indian Mathematics : Pratyayas in sangeetaratnakara Archived 2018-05-13 at the वेबैक मशीन (पृष्ट ५५ से आगे)
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- संगीतरत्नाकरः (संस्कृत विकिस्रोत पर, देवनागरी में)
- संगीत रत्नाकर : एक अध्ययन (गूगल पुस्तक ; लेखक - श्रीराज्येश्वर मित्र ; केवल स्वरगताध्याय, रागविवेकाध्याय, प्रकीर्णकाध्याय, प्रबन्धाध्याय)
- संगीत रत्नाकर (archive.org)