संत बखना
संत बखना जी, गायक संत थे। वे संत दादू दयाल के बावन प्रधान शिष्यों में से एक थे। पदों की रचना करते और घूम-घूम कर तथा साधु संतों की संगत में बैठकर गाते। वे गृहस्थ संत थे। संत दादू से उनका बड़ा गहरा लगाव था। दादू की मृत्यु होने पर बखना जी ने जो पद गाया था, उससे पता चलता है कि उनके मन में गुरु के लिए कितनी श्रद्धा थी- ‘बीछड़या राम सनेही रे, म्हारे मन पछतावो ये ही रे। बिलखी सखी सहेली रे, ज्यों जन बिन नागर वेली रे। बखना बहुत बिसूरे रे, दरसन के कारण झूरे रे।’
वे राजस्थान के नरायणा नगर के रहने वाले थे। वे मुसलमान थे लेकिन ऐसे सांसारिक बंधन पूरी तरह भुला चुके थे। दादू की शिष्य परंपरा में रज्जब, बाजिद, बखना जी - सभी ने साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रचार किया। बखना जी कहते थे कि हमें अपना जीवन ‘राम’ की चेतना से जगृत कर लेना चाहिए। रामनाम का गुणगान करने में जो समय बीतता है, वही सार्थक होता है, शेष व्यर्थ है।
उनका कहना था कि धन की सेवा, अहंकार और वंश स्वामीपन - एक ही मानसिकता के दो पक्ष हैं-
‘बखना हम तो कहेंगे, रीस करो मत कोई।
माया अरु स्वामी पणी, दोइ-दोई बात न होइ।।’
संत बखना आत्म ज्योति जगाने की बात पर बल देते थे। यदि हम सच्ची साधना करें तो परमात्मा स्वयं आकर हमसे मिलेंगे-
‘ढूंढै दीप पतंग नै, तो वखनां विरद लै जई।
दीपक मांहै जोति व्है, तो घणां मिलैगा आई।’
कहते हैं अजमेर जते हुए सम्राट जहांगीर नरायणा में ठहरे थे। उसने बखना जी की परीक्षा लेने के लिए काजी और पंडितों से पूछा कि परमात्मा ने यह सृष्टि किस समरू रची?
संत बखणा जी ने कहा-
‘जिहुं विरिया यह सब हुआ, सो हम किया विचार।
बखना वरियां खुशी की, करता सिरजनहार।’
वे कहते थे कि साधु संतों की वाणी को अपनाना चाहिए, क्योंकि वही समाज को धोकर निर्मल बनाती है। ‘वाणी बरसे सबद हुहाव। कनरस भरि-भरि हरिरस भाव।’