समर्थ रामदास
समर्थ रामदास (१६०६ - १६८२) महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध सन्त थे। उन्होने दासबोध नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो मराठी में है।
जीवन चरित
संपादित करेंसमर्थ रामदास का मूल नाम 'नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी' (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के जालना जिले के जांब नामक स्थान पर रामनवमी के दिन मध्यान्ह में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में शके १५३० सन १६०८ में हुआ। समर्थ रामदास जी के पिता का नाम सूर्याजी पन्त था। वे सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन 'आदित्यह्रदय' स्तोत्र का पाठ करते थे। वे गाँव के पटवारी थे लेकिन उनका बहुत सा समय उपासना में ही बीतता था। उनकी माता का नाम राणुबाई था। वे संत एकनाथ जी के परिवार की दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) हुए। समर्थ रामदास जी के बड़े भाई का नाम गंगाधर था। उन्हें सब 'श्रेष्ठ' कहते थे। वे अध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने 'सुगमोपाय ' नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा का नाम भानजी गोसावी था। वे प्रसिद्ध कीर्तनकार थे।
एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।
उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।'
इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।
तपश्चर्या
संपादित करें12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम "रामदास" पड़ा।
गृहत्याग करने के बाद १२ वर्ष के नारायण नासिक के पास टाकली नाम के गाव को आए। वहाँ नंदिनी और गोदावरी नदियोंका संगम है। इसी भूमि को अपनी तपोभूमि बनाने का निश्चय करके उन्होंने कठोर तप शुरू किया। वे प्रातः ब्राह्ममुहूर्त को उठकर प्रतिदिन १२०० सूर्यनमस्कार लगाते थे। उसके बाद गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप करते थे। दोपहर में केवल ५ घर की भिक्षा मांग कर वह प्रभु रामचंद्र जी को भोगलगाते थे। उसके बाद प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलने के बाद स्वयं ग्रहण करते थे। दोपहर में वे वेद, वेदांत, उपनिषद्, शास्त्र ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे। उसके बाद फिर नामजप करते थे। उन्होंने १३ करोड राम नाम जप १२ वर्षों में किया। ऐसा कठोर तप उन्होंने १२ वर्षों तक किया। इसी समय में उन्होंने स्वयं एक रामायण लिखा|यही पर प्रभु रामचन्द्र की जो प्रार्थनाये उन्होंने रची हैं वह वह 'करुणाष्टक' नाम से प्रसिद्ध है। तप करने के बाद उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ, तब उनकी आयु २४ वर्षों की थी। टाकली में ही समर्थ रामदास जी प्रथम हनुमान का मंदिर स्थापन किया।
तीर्थयात्रा और भारतभ्रमण
संपादित करेंआत्मसाक्षात्कार होने के बाद समर्थ रामदास तीर्थयात्रा पर निकल पड़े| 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। घुमते घुमते वे हिमालय आये। हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद मूलतः विरक्त स्वभाव के रामदास जी के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया। अब आत्मसाक्षात्कार हो गया, ईश्वर दर्शन हो गया, तो इस देह को धारण करने की क्या जरुरत है ?ऐसा विचार उनके मन में आया। उन्होंने खुद को १००० फीट से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया। लेकिन उसी समय प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठ लिया और धर्म कार्य करने की आज्ञा दी। अपने शरीर को धर्म के लिए अर्पित करने का निश्चय उन्होंने कर दिया। तीर्थ यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आए। वहाँ उनकी भेंट सिखोंके के गुरु हरगोविंद जी महाराज से हुई। गुरु हरगोविंद जी महाराज ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के साथ ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।
शिष्यमंडळ
संपादित करें- कल्याण स्वामी
- उध्दव स्वामी
- दत्तात्रय स्वामी
- आचार्य गोपालदास
- भीम स्वामी
- दिनकर स्वामी
- केशव स्वामी
- हणमंत स्वामी
- रघुनाथ स्वामी
- रंगनाथ स्वामी
- भोळाराम
- वेणा बाई
- आक्का बाई
- अनंतबुवा मेथवडेकर
- दिवाकर स्वामी
- वासुदेव स्वामी
- गिरिधर स्वामी
- मेरु स्वामी
- अनंत कवी
प्रभु दर्शन
संपादित करेंबचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु रामचंद्रजी के दर्शन हुए थे। इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा।
अंतिम समय
संपादित करेंअपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने सातारा के पास परळी के किले पर व्यतीत किया। इस किले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। तमिलनाडु प्रान्त के तंजावर ग्राम में रहने वाले 'अरणिकर ' नाम के अंध कारीगर ने प्रभु श्री रामचंद्र जी, माता सीता जी, लक्ष्मण जी कि मूर्ति बनाकर सज्जनगढ़ को भेज दी। इसी मूर्ति के सामने समर्थजी ने अंतिम पांच दिन निर्जल उपवास किया। और पूर्वसूचना देकर माघ वद्य नवमी शालिवाहन शक १६०३ सन १६८२ को रामनाम जाप करते हुए पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए। वहीं उनकी समाधि स्थित है। यह समाधी दिवस 'दासनवमी' के नाम से जाना जाता हैं। यहाँ पर दास नवमी पर 2 से 3 लाख भक्त दर्शन के लिए आते हैं।
प्रतिवर्ष समर्थ रामदास स्वामी के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में 2 माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।
व्यक्तित्व
संपादित करेंसमर्थ जी का व्यक्तित्व भक्ति ज्ञान वैराग्य से ओतप्रोत था। मुखमण्डलपर दाढ़ी तथा मस्तकपर जटाएं, भालप्रदेश पर चन्दन का टिका रहता था। उनके कंधेपर भिक्षा के लिए झोली रहती थी। एक हाथ में जपमाला और कमण्डलु तथा दूसरे हाथ में योगदण्ड (कुबड़ी) होती थी। पैरोंमें लकड़ी कि पादुकाए धारण करते थे। योगशास्त्र के अनुसार उनकी भूचरी मुद्रा थी। मुखमें सदैव रामनाम का जाप चलता था और बहुत कम बोलते थे। वे संगीत के उत्तम जानकार थे। उन्होनें अनेको रागोमें गायी जानेवाली रचनाएं कि हैं। स्वामी प्रतिदिन १२०० सूर्यनमस्कार लगाते थे इस कारण शरीर अत्यंत बलवान था। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष छोड़कर पूरे जीवम में वे कभी एक जगह पर नहीं रुके। उनका वास्तव्य दुर्गम गुफाएं, पर्वत शिखर, नदी के किनारें तथा घने अरण्यमें रहता था। ऐसा समकालीन ग्रंथमें उल्लेख है।
ग्रन्थरचना
संपादित करेंसमर्थ रामदास जी ने दासबोध, आत्माराम, मनोबोध आदि ग्रंथोंकिं रचना है। समर्थ जी का प्रमुख ग्रन्थ 'दासबोध ' गुरुशिष्य संवाद रूप में है। यह ग्रंथराज उन्होनें अपने परमशिष्य योगिराज कल्याण स्वामी के हाथोंसे महाराष्ट्र के 'शिवथर घल (गुफा)' नामक रम्य एवं दुर्गम गुफा में लिखवाया। इसके साथ उनके द्वारा रची गयी ९० से अधिक आरतियाँ महारष्ट्र के घर घर में गायी जातीं हैं। आपने सैंकड़ो 'अभंग' भी लिखें हैं। समर्थजी स्वयं अद्वैत वेदांति एवं भक्तिमार्गी संत थे किन्तु उन्होंने तत्कालीन समाज कि अवस्था देखकर ग्रंथोंमें राजनीती, प्रपंच, व्यवस्थापन शास्त्र, इत्यादि अनेको विषयोंका मार्गदर्शन किया है। समर्थ जी ने सरल प्रवाही शब्दोमें देवी देवताओंके १०० से अधिक के स्तोत्र लिखें हैं। इन स्तोत्र एवं आरतियोंमें भक्ति, प्रेम एवं वीररस का आविष्करण है।। आत्माराम, मानपंचक, पंचीकरण, चतुर्थमान, बाग़ प्रकरण, स्फूट अभंग इत्यादि समर्थ जी कि अन्य रचनाएं हैं। यह सभी रचनाएं मराठी भाषा के 'ओवी 'नामक छंद में हैं।
कार्य
संपादित करेंसमर्थ रामदास जी ने अपने शिष्योंके द्वारा समाज में एक चैतन्यदायी संगठन खड़ा किया। उन्होनें सातारा जिले में 'चाफल ' नाम के एक गाँव में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर निर्माण केवल भिक्षा के आधार पर किया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। शक्ति एवं भक्ति के आदर्श श्री हनुमान जी कि मूर्तियां उन्होनें गाँव गाँव में स्थापित कि। आपने अपने सभी शिष्योंको विभिन्न प्रांतोंमें भेजकर भक्तिमार्ग तथा कर्मयोग कि सिख जनजन में प्रचारित करने कि आज्ञा कि। युवाओंको बलसम्पन्न करने हेतु आपने सूर्यनमस्कार का प्रचार किया। समर्थजीनें ३५० वर्ष पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया। समर्थ रामदास जी के भक्तों एवं अनुयायियोंको ' रामदासी' कहते हैं। समर्थजी द्वारा स्थापित सम्प्रदाय को 'समर्थ सम्प्रदाय ' अथवा 'रामदासी सम्प्रदाय कहते हैं। 'जय जय रघुवीर समर्थ ' यह सम्प्रदाय का जयघोष है तथा 'श्रीराम जय राम जय जय राम ' जपमन्त्र है। समर्थ जी कि विचारधारा तथा कार्य का प्रभाव लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार आदि महान नेताओं पर था।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- दासबोध
- दासबोध, आत्माराम, मनोबोध व अन्य समर्थ वाङमय अनेक भाषाओंमे यहां उपलब्ध है।
- छत्रपति शिवजी के गुरु थे समर्थ स्वामी रामदास
- दासबोध.कॉम (फ्री डाउनलोड)
- कल्याण स्वामी के बारे में वेबसाईट
- समर्थ रामदास के बारे में वेबसाईट
- समर्थ वाग्देवता मंदिर, धुळे
- श्रीधर स्वामी के बारे में वेबसाईट
- Speech given by Dr. Shivajirao Bhosale on Samartha Ramdas in Marathi
- Letter of Ramdas Swami to Shivaji Maharaj