स्थाई कृषि

पोषणीय कृषि
(संधारणीय कृषि से अनुप्रेषित)

स्थाई कृषि या टिकाऊ खेती या संधारणीय कृषि (Sustainable agriculture) पादप एवं जानवरों के उत्पादन की समन्वित कृषि प्रणाली है जो पर्यावरणीय सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर की जाती है। संधारणीय कृषि दीर्घावधि में :

  • मानव के भोजन एवं रेशों (फाइबर) की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी;
  • अनवीकरणीय उर्जा के स्रोतों का अधिकतम दक्षता के साथ कम से कम उपयोग करेगी।
  • जहाँ सम्भव होगा प्राकृतिक जैविक चक्रों एवं नियंत्रणों को अन्य संसाधनों के साथ मिश्रित करके उपयोग करेगी;
  • कृषि कार्यों को आर्थिक रूप से स्वपोषित (Sustainable) बनायेगी।

21 वीं सदी में टिकाऊ खेती के निम्नलिखित बातों पर विषेष ध्यान देना होगा-

  • फसल प्रणाली के साथ- साथ एग्री-बिजनैस आधारित खेती में विविधीकरण करना जिसमें फसल + डेयरी/पषुपालन/बकरी/मत्स्य/मुर्गी /बत्तख/कछुआ/तीतर/बटेरपालन/बागवानी, औषधीय एवं सुगंध पौधे, फूल, फल सब्जियाँ, मषरुम, रेषम आदि ताकि आमदनी बढ़े।
  • प्रमुख स्रोतों- ऊर्जा, जल, भूमि एवं मानव शक्ति (श्रम) को सुव्यवस्थित ढ़ंग से संगठित करना होगा।

कृषि में रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से जहाँ खेती की लागत में वृध्दि हुयी है। वही मृदा उर्वरता में निरन्तर कमी आ रही है। आज देश में बढ़ती हुयी जनसंख्या को पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। वही बिगत साठ वर्षो से प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन दोहन से हमने बहुत कुछ खो दिया है। दिन प्रतिदिन नई तकनीकों का प्रयोग करके अधिक उत्पादन की चाह में हमने पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण् को मृदा प्रदूषण को बढ़ावा दिया है। एक ही खेत में लगातार धान्य फसलों के सघन खेती करने से तथा असंतुलित उर्वरकों एवं रसायनिक कीट नाषी के प्रयोग से मृदा संरचनाए, वायु संचार की दषा तथा मृदा जैविक पदार्थ में लगातार गिरावट आयी है। इसके अतिरिक्त मृदा में पाये जाने वाले सुक्ष्म जीवाणुओं तथा कृषक मित्र केंचुओं की संख्या में कमी हुयी है। इसके फसस्वरुप फसलोत्पादन एवं मृदा उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पडा है। फसलोत्पादन की वृध्दि दर में गिरावट आई है। जिसे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों को बिना क्षति पहुंचाये समाज को खाद्य एवं पोषक तत्वों की आवष्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। दीर्घकाल तक हम इस तरह की खेती पर जीवन व्यतीत कर प्रष्नगत है। अभी हाल ही के दषकों में संसार बहुत तेजी से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी, एवं पर्यावरणीय एवं कृषि पारिस्थितिकी तौर पर बदला है। कारण -बढ़ती हुई मानवीय भोजन, वस्त्र, मकान आदि की पूर्ति के लिए भूमि, जल एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन हुआ जिससे टिकाऊ खेती की आवष्यकता महसूस हुई, अत: टिकाऊ खेती वह खेती है् मानव की बदलती आवष्यकताओं की आपूर्ति हेतु, कृषि में लगने वाले साधनों का इस प्रकार सफल व्यवस्थित उपयोग किया जाना, ताकि प्राकृतिक संसाधनों का हृस न होने पाए और पर्यावरण भी सूरक्षित रहे। टिकाऊ खेती कोई एक नारा नही है, बल्कि यह एक भविष्य की अनिवार्य आवष्यकता है, जिसमें खाद्यान्न-जनसंख्या, भूमि, जल-पर्यावरण तथा लाभ: खर्च अनुपात में सामंजस्य जरुरी है तभी भविष्य में मानव पेट भर सकेंगे। टिकाऊ खेती

परिभाषा के अनुसार बदलते पर्यावरण अर्थातृ धरती के तापक्रम में वृध्दि, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी एवं ओजोन की परत में क्षति आदि नई उत्पन्न विषमताओं में कृषि को संधारणीयता देने के साथ-साथ बढ़ती आबादी को अन्न खिलाने के लिए उत्पादकता के स्तर पर क्रमागत वृध्दि करना ही टिकाऊ खेती है। दूसरे शब्दों में वह खेती है, जो मानव की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी की अन्न, चारे, वस्त्र तथा र्इंधन की आवष्यकताओं को पूरा करे जिसमें परम्परागत विधियों एवं नई तकनीकों का समावेष हो, भूमि पर दबाव कम पड़े, जैव-विविधता नष्ट न हो, रसायनों का कम प्रयोग, जल एवं मृदा प्रबन्ध सही हो, संधारणीय खेती कहलाएगी।

संधारणीय खेती के आधार

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1. विभिन्न फसलों का फसल प्रणाली में समावेष करने से प्रति इकाई लागत को कम किया जा सकता है। इससे विभिन्न प्रकार की खाद्यान जैसे धान्य, दाल, तेल व रेषा इत्यादि आवष्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य का संरक्षण होता है।

2. संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करे। इससे फसलों का गुणवत्ता उत्पादन युक्त भरपुर होगा। यहा पर संतुलित उर्वरक प्रयोग से तात्पर्य सिर्फ यह हैं कि नत्रजन फास्फोरस व पोटाष का सही अनुपात में प्रयोग करें इसके अभाव आवष्यकतानुसार सुक्ष्म पोषक तत्वों का भी प्रयोग करना है। आवष्यक संतुलित उर्वरकों के प्रयोग से मृदा में पोषण तत्वों की उपलब्धता में होने वाले असंतुलन भी कम होता है।

3. एकीकृत पोषक तत्वों आपूर्ती प्रबन्धन आवष्यक है। इसके अन्तर्गत कार्बनिक खादें जैसे गोबर की खाद, हरी खाद, वर्मी कम्पोस्ट इत्यादि का रासायनिक उर्वरकों के साथ उचित मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इससे उत्पादकता में वृध्दि के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य में भारी सुधार होता है।

4. जल का समुचित प्रयोग करें। फसलों में जल के उचित प्रबन्धन से उर्वरक एवं अन्य उत्पादन घटकों की उपयोग क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।

5. खर पतवारों का एकीकृत नियन्त्रण करना। खरपतवार के प्रभावषाली नियन्त्रण के लिए नाषी रसायनों जैविक तौर तरीका भी अपनाया जाए प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।

6. रोग एवं कीटों का एकीकृत नियन्त्रण करना। रोग एवं कीटों का समन्यवित नियन्त्रण करने से कीटों व रोगों का रसायनिक पदार्थों के प्रति होने वाले सहनषीलता को नियन्त्रित किया जा सकता है। तथा साथ-साथ कृषि लागत में भी कमी की जा सकती है।

संधारणीय खेती के लाभ

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1. मृदा की उर्वरा शक्ति को न केवल बनाये रखता हैं बल्कि उसमें वृध्दि भी करता है।

2. पोषक तत्वों को संतुलित एवं दीर्घकालीन उपयोगी बनाता है।

3. मृदा में लाभकारी सुक्ष्म जीवों की पर्याप्त जनसंख्या को बनाये रखता है।

4. भूमिगत जल स्तर को बनाये रखना।

5. रसायनों के अत्यधिक उपयोग से होने वाले प्रदूषण का कम होना।

6. प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग पर बल

बाहरी कड़ियाँ

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