सबसे पहले शब्द-संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हजार वर्ष—पुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८०० वैदिक शब्दों को एकत्रित किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या 'निरुक्त' संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी/शताब्दी/शती में लिखा अमरसिंह कृत 'नामलिंगानुशासन' या 'त्रिकांड' जिसे संपूर्ण संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।

  • (१) जहाँ तक संस्कृत कोशों का संबंध है, शब्दप्रकृति के अनुसार उसके तीन प्रकार कहे जा सकते हैं -
  • शब्दकोश,
  • लौकिक शब्दकोश, और
  • उभयात्मक शब्दकोश
  • (२) वैदिक निघंटुओं की शब्द-संग्रह-पद्धति क्या थी, इसका ठीक ठीक निर्धारण नहीं होता। पर उपलब्ध निघंटु के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि उसमें नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चारों प्रकार के शब्दों का संग्रह रहा होगा। परंतु उनका संबंध मुख्य और विरल शब्दों से रहता था और कदाचित् वेदविशेष या संहिताविशेष से भी प्रायः वे संबद्ध थे। वे संभवतः गद्यात्मक थे।
  • (३) लौकिक संस्कृत की कोशपरंपरा में 'अमरपूर्व' कोशकारों की दो पद्धतियाँ थीं - एक 'नामतंत्र' और दूसरा 'लिंगतंत्र'। इस द्बितीय विधा के कोशों में सस्कृत शब्दों के प्रयोगों में स्वीकार्य लिंगों का निर्दश होता था। एकलिंग, द्बिलिंग, त्रिलिंग शब्दों के विभाग के अतिरिक्त अर्थवतलिंग और नानालिंग के प्रकरण भी इनमें हुआ करते थे। ये कोश अनुमान के अनुसार गद्यात्मक थे।
  • (४) नामतंत्रात्मक कोशों की भी दो विधाएँ होती थीं— एक समानार्थक शब्दसूचीकोश (जिसे आज पर्यायवाची कोश कहते है) और दूसरा अनेकार्थकोश या नानार्थ कोश।
  • (५) 'अमरसिंह' के कोशग्रंथ में 'नामतंत्र' और 'लिंगतंत्र' दोनों का समन्वय होने के बाद जहाँ एक ओर कोश उभयनिर्देशक होने लगे वहाँ कुछ कोश 'अमरकोश' के अनुकरण पर ऐसे भी बने जिनमें समानार्थक पर्यायों और अनेकार्थक शब्दों —दोनों विधाओं की अवतारण एकत्र की गई। फिर भी कुछ कोश (अभिधान चिंतामणि और कल्पद्रु आदि) केवल पर्यायवाची भी बने, और कुछ कोश— विश्वप्रकाश, मेदिनी, नानार्थार्णवसंक्षेप— आदि नानार्थकोश ही है। 'वर्णादेशना' सदृश कोशों को छोड़कर संस्कृत कोश प्रायः पद्यात्मक हैं। इनमें मुख्य छंद अनुष्टुप् है। कभी कभी बहुछंदवाले कोश भी बने।
  • (६) अमरकोश' की पद्धति पर कुछ कोशों में शब्दों का वर्गीकारण, स्वर्ग, द्योः, दिक्, काल आदि विषयसंबद्ध पदार्थों के आधार पर कांडों, वर्गों, अध्यायों आदि में हुआ और आगे चलकर कुछ में वर्णानुक्रम शब्दयोजना का भी आधार लिया गया। इनमें कभी सप्रमाण शब्दसंकलन भी हुआ।
  • (७) अनेकार्थकोशों में विशेष रूप से वर्णाक्रमानुसारी शब्दसंकलन-पद्धति स्वीकृत हुई। उसमें भी अंत्यक्षर (अर्थात् अतिम स्वरांत व्यंजन) के आधार पर शब्दसंकलन का क्रम अपनाया गया और थोड़े बहुत कोशों में आदिवर्णानुसारी शब्द-क्रम-योजना भी अपनाई गई। अत्यवर्णानुसारी कोशों की उक्त योजना का आधार कहीं-कहीं निर्दिष्ट वर्ग या उच्चारणास्थान होता था। इनमें कभी-कभी अक्षर संख्यानुसार भी एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से शब्दवर्गों का विभाजन भी किया गया है।
  • (८) इन विशेषताओं के अतिरिक्त एकाक्षरकोशमाला और द्बिरूपकोश नामक शब्दकोशों की दो विधाओं का उल्लेख मिला है। एकार्थनाममाला, 'द्वयर्थनाममाला' आदि ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि कोशकार 'सौहरि' के नाम से निर्मित वे कोश कहे गए हैं। 'राक्षस' कवि का 'षडर्थनिर्णयकोश' भी उल्लिखित है। 'षड्मुखकोश'- वृत्ति भी संभवतः ऐसा ही टीकाग्रंथ था। 'वर्णदेशाना' गद्यात्मक कोश है। वैकल्पिक रूपों का भी एकाध कोशों में निर्देश किया गया है।
  • (९) कुछ कोशटीकाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृतकोश के युग में बड़े कोशों के संक्षेपीकरण द्बारा व्यवहारोपयोगी लघु रूप के निर्माण की पद्धति भी प्रचलित थी। संस्कृत के वैयाकरणो में भी 'बृहत्' और 'लघु' संस्करणों के संपादन की प्रवृत्ति मिलती है जैसे— 'लघुशब्देंदुशेखर', 'बृहतच्छब्देंदुशेखर', 'बालमनोरमा', 'प्रौढ़मनोरमा', तथा 'लघुसिद्धांतकौमुदी'। 'राजमुकुट' कृत अमरकोश टीका में 'बुहत्अमरकोश', सर्वदानंद द्बारा 'बृहानंद अमरकोश' और 'भानुदीक्षित' द्बारा 'बृहत् हारावली' के नाम् उल्लिखित है। ऐसा मालूम होता है कि इन्ही ग्रंथों के संक्षिप्त संस्करण के रूप में 'हारवली' और 'अमरकोश' आदि निर्मित हुए हैं।
  • (१०) आनुपूर्वमूलक वैकल्पिक शब्दों के संकल भी कहीं-कहीं मिल जाते हैं। 'शब्दार्णवसंक्षेप' में पर्यायों की प्रवृत्तिमूलक सूक्ष्म अर्थच्छाया की भेदपरक व्याख्या भी मिलती है। 'कल्पद्रुकोश' में लिखित म० म० रामावतार शर्मा के कथन से यह भी पता लगता है कि अतिप्राचीन 'व्याडि' के कोश में कभी कभी अर्थनिर्देशन के लिये व्युत्पत्तिपरक सूचना भी दी जाती रही है।
  • (११) पालि, प्राकृत और अपभ्रंश कोशों में कुछ नवीनता लक्षित नहीं होती। इतना अवश्य है कि पाली कोशों में बौद्धमत के परिभाषिक शब्दों का काफी परिचय मिल जाता है और पाली के बहुत से शब्दों का अर्थज्ञान भी हो जाता है। 'पाली' का महाव्युत्पत्यात्मक कोश गद्यात्मक है।
  • (१२) प्राकृत कोशों में अधिकतः देशी शब्दकोश और देशी नाममालाएँ हैं। इनमें अव्युत्पन्न माने गए देशी शब्दों का संकलन हैं। कुछ में जैन प्राकृत ग्रंथों के संपर्क से जैनमत के पारिभाषिक शब्दों का आंशिक परिचय मिल जाता है। 'पइअलच्छीनाममाला' नामक ग्रंथ में संभवतः सामान्य प्राकृत नामपदों का अत्यंत लघु शब्द संग्रह रहा होगा।
  • (१३) अपभ्रंश के कोश संभवतः पृथक् उपलब्ध नहीं है। प्राकृत के देशी शब्दकोशों अथवा देशी नाममालाओं में ही उनका अंतर्भाव समझना चाहिए।

संस्कृत कोशों की टीकाएँ और उनका महत्त्व

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संस्कृत में टीका, व्याख्या और भाष्य की प्रणाली विशेष महत्त्व रखती है। प्रायः सभी प्रकार के ग्रंथों में इन टीकाओं का विशेष महत्त्व है। इसका कारण यह है कि अनेक टीकाओं में मूल की अपेक्षा अधिक बातें, नूतन व्याख्या तथा खण्डन-मंडन द्बारा नव्य मतों की भी स्थापना की गई है। कोशग्रंथों के टीकाकारों का कृतित्व भी बड़े महत्त्व का है। उनमें जहाँ एक ओर नए शब्द, नवीन, अर्थ और नई व्याख्याएँ हैं वहीं दूसरी ओर अनेक कोशकारों और कोशग्रथों के नाम भी मिलते हैं। अनेक तो ऐसे टीकाकार हैं जो स्वयं ग्रंथकार है और स्वयमपि जिन्होंने अपने ग्रंथ की टीकाएँ भी लिखी हैं। अधिकांश ने केवल टीकाएँ बनाई है।

'अमरकोश' की टीकाएँ सर्वाधिक और कदाचित् सर्वप्राचीन भी है। उनका अनुवाद हिंदी आदि भाषाओं में कोशकरण भी किया गया है। इन टीकाओं में अनेक पूर्ववर्ती कोशों या कोशकारों के नाम और कभी कभी उद्धरण भी मिलते है। अमरकोश के टीकाकार 'क्षीरस्वामी' तथा 'हेमचंद्र' ने काव्य कोश के नानार्थ और पर्यायवाची कोशों का संकेत दिया है। इनसे यह भी लक्षित होता है कि कभी-कभी शब्द की अर्थबोधक व्याख्याएँ भी वहाँ थीं, यथा— 'क्षुद्र - छिद्रसमोपेतं चालनं तितउः पुमान्'। अथवा 'स्कंधादूध्वँ तरोः शाखा कटप्री विटपी मतः'। हेमचंद्र ने ३० कोशकारों या कोशों का उल्लेख किया है। टीका आदि के आधार पर, तारपल, दुर्ग, धरणीधर, धर्ममुनि, रंतिदेव, रुद्र विश्वरूप, बोपदेव, शुभांग (शुभांक), वोपालित (गोपालित), कृष्णकवि (वैभाषिक शब्दकोश) आदि नाना नाम मिलते है। 'राक्षस' या 'रभस' के षडर्थकोश का भी उल्लेख है।

इन कोशटीकाओं में शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी है। 'अमरकोश' की 'रामाश्रयी' टीका में प्रत्येक शब्द की पाणिनीय व्याकरणनुसारी व्युत्पत्ति दो गई है। कभी-कभी किसी में त्रुटियाँ और कभी कभी प्रयोग भी बताए गए है। सब मिलाकर इन टीकाओं को कोशवाङ्मय का महत्वपूर्ण अंग कहा जा सकता है। वस्तुतः ये कोशों के पूरक अंग है। इनमें 'उक्त, अनुक्त और दुरुक्त' विषयों का विचार और विवेचन किया गया है। अतः संस्कृत कोशों के इतिहास में इनका महत्त्व और योगदान हमें कभी नहीं भूलना चाहिए।

प्राचीन भारतीय कोशों एवं आधुनिक पाश्चात्य कोशों में अन्तर

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आधुनिक और पाश्चात्य कोशों की भेदकताएँ मुख्यतः निम्ननिर्दिष्ट हो सकती हैं-

(१) योरप में विशेष रूप से और भारत में आंशिक रूप से - आदिमध्यकालीन कोशकर्म में कठिन शब्दों का सरल शब्दों या पर्यायों द्वारा अर्थज्ञापन होता था। योरप में सामान्यतः एक पर्याय दे दिया जाता था जबकि भारत में वैदिक निघंटुकाल से ही पर्यायशब्दों का अर्थबोधकपरक एकत्रीकरण होता था। इनमें दुर्बोंध्य और कठिन शब्दों के संग्रह की मुख्य प्रेरणा थी। भारतीय कोशों में बहुपर्याय संग्रह के कारण अनेक क्लिष्ट शब्दों के साथ पर्यायवाची कोशों में सरल शब्द भी समाविष्ट रहते थे। निघंटु का शब्दसंकलन भी वैदिक वाङ्मय के समग्र शब्दनिधि का संग्रह न होकर अधिकत: दुर्बोध्य और विवेच्य शब्दों की संकलन प्रेरणा से प्रभावित है।

(२) भारत के प्राचीन कोश पर्यायवाची या समानार्थक थे। आरंभिक अवस्था में इनमें नानार्थक शब्दों का परिशिष्ट जुड़ा रहता था। आगे चलकर नानार्थक या अनेकार्थ शब्दलिपि का विस्तार से आकलन होने लगा। फलत: संस्कृत के अनेक नानार्थ कोशों में मुख्यत: नामसंग्रह होता था और आगे चलकर लिंगनिर्देश भी होने लगा। पर्यायवाची कोशों की संग्रह-योजना वर्गपरक हो गई थी। नानार्थ शब्दों की क्रम योजना में अंत्य व्यंजनाक्षर का क्रम (मूलत:) अपनाया गया। पर कभी कभी आदिवर्ण का आधार लेकर वर्णमालानुसरी शब्द-क्रमयोजना का प्रयास भी किया गया। पर दूसरी ओर आधुनिक कोशों में लघु कोशोंके अतिरिक्त पर्याय के साथ साथ अर्थबोधक व्याख्याएँ भी दी जाती है। संस्कृत में यह नहीं था। टीकाएँ अवश्य यह कार्य करती थीं। संस्कृत के समानार्थक कोशों की भाँति आधुनिक कोशों में पर्याय रखने पर आधिक बल देने चेष्टा नहीं होती। कभी कभी अवश्य ही संस्कृत कोशों के प्रभाव से हिदी आदि में भी पर्ययवाची कोश बन जाते हैं। पर वस्तुत: ये कोश संस्कृत कोशों के अंवशेषमात्र है, आधुनिक कोश नहीं।

(३) संस्कृत के प्राचीन कोशों में मुख्यत: नामपदों, अव्ययशब्दों तथा कभी कभी धातुओं का भई संग्रह होता था। व्याकरण-प्रभावित संग्रहदृष्टि का मूल कदाचित् पाणिनि के धातुपाठ और गणपाठों में दिखाई पड़ता है। आरंभ में, अमरकाल और उसके बाद, संस्कृत का मुख्य रूप नामलिंगानुशासनात्मक हो गया। आधुनिक कोशों में रचनाविधान की भिन्नता के कारण इसे अनुपयोगी मानकर सर्वथा त्याग दिया गया। परंतु व्याकरणमूलक ज्ञान और प्रयोग के लिये उपयोगी निर्देश प्रत्येक के साथ लघुसंकेतों द्वारा निदिष्ट होते हैं।

(४) आज के शब्दकोशों का निर्माण उन समस्त जनों के लिये होता है जो उन-उन भाषाओं के सरल या कठिन किसी भी शब्द का अर्थ जानना चाहते हैं। संस्कृत कोशों का मुख्य रूप पद्यात्मक होता था। इस कारण उसका अधिकत: उपयोग वे ही कर पाते थे जो कोशपद्यों को कंठस्य कर रखते थे। प्रयोग और अर्थज्ञान के साथ साथ कोशों को कंठस्थ करना भी एक उद्देश्य समझा जाता था पर आज के नवीन कोशों का यह प्रयोजन बिल्कुल ही नहीं हैं।

(५) संस्कृत के प्राचीन कोशों का प्रयोजन होता था- कवियों, साहित्यनिर्मताओं और काव्यशास्त्रादि के पाठकों के शब्दभंड़ार की वृद्धि करना। परंतु आधुनिक कोशो का मुख्य प्रयोजन है शब्दों के अर्थ का ज्ञान और तत्संबंधी अन्त बातों की जानकारी देते हुए उनके समीचीन प्रयोग की शक्ति बढ़ाना।

(६) इनेक अतिरित्क शब्दोच्चारण, व्युत्पत्तिसूचन, शब्दप्रय़ोग का प्रथम और यदि कोई शब्द लुप्तप्रयोग हो गया हो तो उसका सप्रमाण ऐतिहासिक वर्णन, नाना अर्थो का समान्य एबं विशेष संदर्भ-संयुत्क विविक्त विवरण, यौगिक एवं मुहावरों के शब्दयोगों तथा धातुयोगों आदि के अर्थवैशिष्ट्य का सोदाहरण निरूपण भी आधुनिक कोशों में रहता है। यह सब प्राचीन कोशों में नहीं था। कोशटीकाओं में अवश्य इनमें से अनेक बार्ते अंशत: और प्रसंगत: निदिष्ट कर दी जाती थीं।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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