सखी संप्रदाय, निम्बार्क मत की एक शाखा है जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सम० १४ ४१ वि०) ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण को कुंजबिहारी के रूप में तथा श्रीराधा रानी को कुंजबिहारिनी के रूप में पूजा जाता है। ये नंद के लाल और वृषभानु गोप की पुत्री, बृज के राधाकृष्ण नही, अपितु निकुंज के बिहारी-बिहारिणी जू हैं, जो धरा धाम पर राधाकृष्ण के रूप में भक्तों को सुख पहुंचाने के लिए प्रकट होते हैं। इसमें सखी का अर्थ स्त्री, पुरूष और नपुंसक तीनो प्रकार की देह भाव से ऊपर उठकर निष्काम, निष्कपट, विशुद्ध सखी भाव है, जो अपने प्रिया प्रीतम के चरणो की दासी है तथा उनको सुख पहुंचाने के लिए ही सभी कार्य उनकी इच्छानुसार करतीं हैं। सखी भाव ,गोपी भाव से भिन्न है किंतु इन भावो का यह आशय कदापि नही कि कोई पुरूष शरीर मे होकर स्त्री भेष या श्रंगार धारण करके स्वांग रचे। ये तो आंतरिक मनो भाव है। जिसकी मूल आचार्य श्रीराधा रानी की परम सखी - ललिता जू महारानी हैं, जिन्होने निकुंज रस प्रदान करने के लिए वृंदावन के राजपुरा ग्राम में स्वामी श्री हरिदास जी के रूप में अवतार ग्रहण किया। निकुंज से ललिता सखी, वंशी सखी और विशाखा सखी तीनो ही श्रीहरिदास, श्री हितहरिवंश व श्रीहरिराम व्यास के रूप में अवतरित हुईं व निकुंज रस सभी को प्रदान कर बांके बिहारी जी को निधिवन मे प्रकट किया।

स्वामी श्री हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।

यह संप्रदाय "जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी " के आधार पर अपना समस्त जीवन "राधा-कृष्ण सरकार" को निछावर कर देती है। आज हरिदासी संप्रदाय का प्रमुख स्थान श्रीवृंदावन का तटिया स्थान ही है। जहां स्वामी जू की परंपरा से निकुंज उपासना आज हो रही है। इसके अतिरिक्त श्रीराधावल्लभ लाल के संत भी सखी सहचरी भाव से ही निकुंज उपासना किया करते हैं।