सतसई, मुक्तक काव्य की एक विशिष्ट विधा है। इसके अंतर्गत कविगण 700 या 700 से अधिक दोहे लिखकर एक ग्रंथ के रूप में संकलित करते रहे हैं। "सतसई" शब्द "सत" और "सई" से बना है, "सत" का अर्थ सात और सई का अर्थ "सौ" है। इस प्रकार सतसई काव्य वह काव्य है जिसमें सात सौ छंद होते हैं। बिहारी सतसई में एक मात्र ‘दोहा’ छंद का प्रयोग किया गया है।

Krishna Talks to Radha's Maidservant, Folio from a Satsai (Seven Hundred Verses) of Bihari Lal LACMA AC1999.127.5

सतसई काव्य ने एक विशिष्ट परंपरा के रूप में प्रतिष्ठित होकर अपनी निजी विशेषताएँ विकसित की हैं। सतसई रचना की परंपरा "हाल" की गाथासप्तशती से आरंभ हुई। यह प्राकृत का ग्रंथ है तथा इसमें रस से सिक्त और लोकजीवन का सजीव चित्र प्रस्तुत करनेवाली गाथाएँ हैं। इसके बाद गोवर्धनाचार्य की "आर्यासप्तशती" संस्कृत में लिखी गई। अमरु कवि के "अमरुशतक" में भी शृंगाररस के मनोहारी श्लोक हैं। संख्यापरक इन ग्रंथों के प्रभाव से हिंदी साहित्य में सतसई रचना का चाव बढ़ा परंतु हिंदी साहित्य के प्रांगण में सतसई रचना का सतत विकास अपने निजी ढंग पर हुआ; वह अपने पूर्ववर्ती सतसई साहित्य से प्रभावित है परंतु उसका निर्जीव अनुकरण नहीं है।

हिंदी साहित्य में रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारीलाल की लिखी "बिहारी सतसई" ने बड़ी प्रसिद्धि पाई। हिंदी साहित्य में इस ग्रंथ का अत्यंत प्रचार हुआ तथा सतसईरचना के लिए इसने अनेक कवियों को प्रेरित किया। "बिहारी सतसई" की बढ़ती हुई लोकप्रियता देखकर अनेक मूर्धन्य कवियों के दोहों को भी बाद में "सतसई" का रूप दे दिया गया, जैसे "तुलसीसतसई"। मुक्तक काव्य का यह रूप इतना जनप्रिय हुआ कि हिंदी में सतसइयों का एक विशाल भंडार हमें उपलब्ध है। इनमें रहीम सतसई, तुलसी सतसई, बिहारी सतसई, रसनिधि सतसई, मतिराम सतसई, वृंद सतसई, भूपति सतसई, चंदन सतसई, विक्रम सतसई, राम सतसई के नाम प्रमुख हैं और ये सतसइयाँ मध्य युग में लिखी गई। आधुनिक काल में भी अनेक सतसइयाँ मध्य युग में लिखी गईं। आधुनिक काल में भी सतसइयाँ लिखी गईं जैसे हरिऔध कृत हरिऔध सतसई, वियोगी हरि की वीर सतसई भी बड़ी प्रसिद्ध और सामयिक रचनाएँ हैं।

प्रमुख विशेषताएँ

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(1) सतसइयों में 700 या 700 से कुछ अधिक छंद होते हैं।

(2) सतसइयों में प्रमुख रूप से "दोहा" छंद का प्रयोग होता है; "दोहा" के साथ "सोरठा" और "बरवै" छंद का प्रयोग भी सतसईकार बीच बीच में कर देते हैं।

(3) सतसइयों, में प्रमुख रूप से शृंगाररस की प्रधानता है। शृंगार के अतिरिक्त नीति तथा भक्ति, वैराग्य को भी सतसईकारों ने लिया है। बिहारी सतसई शृंगारप्रधान रचना है, बृंद सतसई नीतिपरक काव्य है तथा तुलसी सतसई में भक्ति, ज्ञान, कर्म और वैराग्य के दोहे हैं। सतसईकारों ने अपनी सतसईयों में प्राय: इन सभी विषयों के दोहे कहे हैं। शृंगारप्रधान सतसईयों में शृंगार के साथ नीति तथा भक्ति और वैराग्य के दोहे भी मिलते हैं, जैसे बिहारी सतसई और मतिराम सतसई में। बृंद सतसई पूर्णत: नीतिसतसई है तथा तुलसी सतसई में भक्ति तया वैराग्य के दोहों के साथ नीति के दोहों की भी प्रधानता है। मुख्य रूप से शृंगार और नीति इन दोनों की प्रधानता सतसइयों में देखने को मिलती है।

(4) शृंगारकाल में भी आधुनिक सतसइयाँ लिखी गई जिनमें यदि एक ओर शृंगार और नीति की प्रधानता है तो दूसरी ओर "वीररस तथा करुणरस के नए विषयों को भी सतसईकारों ने लिखा है। सूर्यमल्ल मिश्रण की "वीर सतसई" तथा वियोगी हरि की वीर सतसई में राष्ट्रीयता को जगाने के लिए वीरोचित उक्तियाँ कही गई हैं और देश की दुर्दशा पर उन्होंने करुणा से युक्त दोहे कहे हैं। सतसई वस्तुत: मुक्तक काव्य की एक विशिष्ट परंपरा है।