بیگم حضرت محل
بیگم حضرت محل
जन्म1820[उद्धरण चाहिए]
فیض آباد, سلطنت اودھ, ہندوستان
निधनاپریل[उद्धरण चाहिए] 1879
کھٹمنڈو, نیپال
धर्मاسلام

बेगम हज़रत महल का नाम ज़बान प्रा ॓ते ही जंग-ए-आज़ादी का तसव्वुर ज़हन में उभर आता है । हज़रत महल का नाम हिंदूस्तान की जंग-ए-आज़ादी में पहली सरगर्म अमल ख़ातून रहनुमा के नाम से मशहूर है । 1857-1858 की जंग-ए-आज़ादी में सूबा अवध से हज़रत महल की ना काबिल फ़रामोश जद्द-ओ-जहद तारीख़ के सफ़हात में सुनहरे अलफ़ाज़ में दर्ज है हज़रत महल ने सिनफ़ नाज़ुक होते हुए भी बर्तानवी सामराज-ओ-ईस्ट इंडिया कंपनी से लोहा लिया । बर्तानवी हुकूमत की� तक़सीम करो और हुकूमत करो�की पालिसी की मुख़ालिफ़त करते हुए उन्हों ने हिंदूओं और मुस्लमानों में इत्तिहाद पैदा कर के तहरीक जंग-ए-आज़ादी हिंद 1857-ए-को एक नया रख दिया । बेगम हज़रत महल पहली ऐसी क़ाइद थीं, जिन्हों ने बर्तानवी हुकूमत के सामने घुटने नहीं टीके और 20बरस जिलावतनी और अपनी मौत 1879 तक लगातार बर्तानवी हुकूमत की मुख़ालिफ़त की । हालाँकि हज़रत महल के मुताल्लिक़ मौरर्ख़ीन को भी ज़्यादा पुख़्ता जानकारी नहीं है शायद वो फ़ैज़ाबाद के एक ग़रीब ख़ानदान से ताल्लुक़ रखती थीं कुछ अंग्रेज़ी मुसन्निफ़ीन के मुताबिक़ इन का नाम इफ़्तिख़ार अलनिसा-ए-था । नाम से लगता है कि इन के आबा-ओ-अजदाद ईरान से यहां आकर अवध में बस गए थे । उन की तालीम एक रक़ासा की शक्ल में हुई जिस का मक़सद वाजिद अली शाह को मुतास्सिर करना था । नवाब साहिब ने इन को अपने हिर्म में जगह दी । पी-जे-ओ-टेलर के मुताबिक़ जब इफ़्तिख़ार अलनिसा-ए-के यहां एक बेटे की विलादत हुई तो उन का रुतबा बढ़ा और उन्हें नवाब साहिब ने अपनी अज़्वाज में शामिल करके हज़रत महल का लक़ब दिया और उन्हें शाही ख़ानदान में मलिका का दर्जा दिया । अपने बेटे बिरजीसक़दर की पैदाइश के बाद हज़रत महल की शख़्सियत में बहुत बदलाओ आया और उन की तंज़ीमें सलाहीयतों को जिला मिली । 1856में बर्तानवी हुकूमत ने नवाब वाजिद अली शाह को जिला वतन कर के कलकत्ता भेज दिया । तब हज़रत महल ने अवध की बागडोर सँभाल ली और बेगम हज़रत महल एक नए वजूद में सब के सामने आती हैं। इन का ये रख अपने वतन के लिए था । जिस का मक़सद था अपने मुल्क से अंग्रेज़ों को बाहर फेंकना ये मशाल लो , सभी के दिल में जल रही थी । लेकिन उसे भड़काने और जुनून में बदलने में बेगम हज़रत महल ने एक ख़ास किरदार अदा किया। उन्हों ने ये साबित किया कि औरत सिर्फ घर की चहार दीवारी का निज़ाम ही ख़ूबी से नहीं सँभालती बल्कि वक़्त पड़ने पर वो अपने जौहर दिखा कर दुश्मनों को खदेड़ने का हौसला भी रखती है । हिंदूस्तान की पहली जंग-ए-आज़ादी के दौरान उन्हों ने अपने हामीयों जिन के दिलों में अपने मुल्क से अंग्रेज़ों के नापाक क़दमों को दूर करने का जज़बा था । अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ मुनज़्ज़म किया और जब उन से अवध का निज़ाम छीन लिया गया तो उन्हों ने अपने बेटे बिरजीसक़दर को वलीअहद बना दिया । जंग-ए-आज़ादी में वो दूसरे मुजाहिदीन आज़ादी के साथ मिल कर चलने की हामी थीं जिस में नाना साहिब भी शामिल थे। जब बर्तानवी फ़ौज ने लखनऊ पर दुबारा क़बज़ा कर लिया और उन के सारे हुक़ूक़ छीन लिए तो उन्हों ने ब्रिटिश हुकूमत की तरफ़ से दी गई किसी भी तरह की इनायत को ठुकरा दिया । इस से बेगम हज़रत महल की ख़ुददारी का पता चलता है। वो सिर्फ एक बेहतरीन पालिसी साज़ ही नहीं थीं। बल्कि जंग के मैदान में भी उन्हों ने जौहर दिखाए। जब उन की फ़ौज हार गई तो उन्हों ने दूसरे मुक़ामात पर फ़ौज को मुनज़्ज़म किया। बेगम हज़रत महल का अपने मलिक के लिए ख़िदमत करना बेशक कोई नया कारनामा नहीं था । लेकिन एक औरत हो कर उन्हों ने जिस ख़ूबी से अंग्रेज़ों से टक्कर ली वो मानी रखता है । 1857की बग़ावत की चिनगारियां तो मलिक के कोने कोने में फूट रही थीं। मलिक के हर कोने में इस की तपिश महसूस की जा रही थी उसी चिंगारी को आग में तबदील करने का सहरा बेगम हज़रत महल के सर जाता है । उत्तरप्रदेश के अवध इलाक़ा में भी आज़ादी की ललक थी । जगह जगह बग़ावतें शुरू हो गई थीं। बेगम हज़रत महल ने लखनऊ के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में घूम घूम कर लगातार इन्क़िलाबीयों और अपनी फ़ौज की हौसलाअफ़्ज़ाई करने में दिन रात एक कर दिया । एक औरत का ये हौसला और हिम्मत देख कर फ़ौज और बाग़ीयों का हौसला जोश से दोगुना हो जाता । उन्हों ने आस पास के जागीरदारों को भी साथ मिला कर अंग्रेज़ों से डट कर मुक़ाबला किया । बेगम हज़रत महल का किरदार जंग-ए-आज़ादी की इस पहली जंग में नाक़ाबिल फ़रामोश है । आज जब भी 1857की बग़ावत का ज़िक्र आता है तो बेगम हज़रत महल का नाम ख़ुदबख़ुद ज़बां पर आजाता है । अंग्रेज़ों की मक्कारी और चालाकी को हज़रत महल बहुत अच्छी तरह समझ चुकी थीं। वो एक दौर अंदेश ख़ातून थीं । अंग्रेज़ों से लोहा लेने केलिए उन्हों ने अपनी सलाहीयतों का भरपूर इस्तिमाल किया । इंतिज़ामी हुकूमती फ़ैसलों में बेगम हज़रत महल की सलाहीयत ख़ूब काम आई। बेगम हज़रत महल के फ़ैसलों को क़बूल किया गया । बड़े बड़े ओहदों पर काबुल ओहदेदार मुक़र्रर किए गए । महिदूद वसाइल और मुश्किल हालात के बावजूद बेगम हज़रत महल लोगों की हौसलाअफ़्ज़ाई करती रहीं। बेगम हज़रत महल ने ख़वातीन की एक फ़ौज तैय्यार की और कुछ माहिर ख़वातीन को जासूसी के काम पर भी लगाया । फ़ौजी ख़वातीन ने महल की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की । अंग्रेज़ी फ़ौज लगातार रेज़ि डीनसी से अपने साथीयों को आज़ाद कराने केलिए कोशिश करर ही थी । लेकिन भारी मुख़ालिफ़त की वजह से अंग्रेज़ों को लखनऊ फ़ौज भेजना मुश्किल हो गया था । इधर रेज़ि डीनसी पर नामों के ज़रीया लगातार हमले किए जा रहे थे । बेगम हज़रत महल लखनऊ के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में तन्हा फ़ौजीयों का हौसला बढ़ा रही थीं। लेकिन होनी को कौन टाल सकता था । दिल्ली पर अंग्रेज़ों का क़बज़ा हो चुका था ।मुग़ल शाह बहादुर शाह ज़फ़र के नज़रबंद होते ही इन्क़िलाबीयों के हौसले कमज़ोर पड़ने लगे । लखनऊ भी धीरे धीरे अंग्रेज़ों के क़बज़ा में आने लगा था । हेनरी हैवलाक और जेम्ज़ आउट राम की फ़ौजें लखनऊ पहुंच गईं। बेगम हज़रत महल ने कैसरबाग के दरवाज़े पर ताले लटकवा दिए । अंग्रेज़ी फ़ौज बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही थी । बेगम ने अपने फ़ौजीयों में जोश भरते हुए कहा , � अब सब कुछ क़ुर्बान करने का वक़्त आगया है�- अंग्रेज़ी फ़ौज का अफ़्सर हेनरी हैवलाक आलिम बाग़ तक पहुंच चुका था । कैंप वैल भी कुछ और फ़ौज लेकर इस के साथ जा मिला । आलिम बाग़ में बहुत हुजूम इकट्ठा हो गया था । अवाम के साथ महल के सिपाही शहर की हिफ़ाज़त केलिए उमंड पड़े । मूसलाधार बारिश हो रही थी । दोनों तरफ़ तीरों की बौछार हो रही थीं। बेगम हज़रत महल को क़रार नहीं था । वो चारों तरफ़ घूम घूम कर सरदारों में जोश भर रही थीं। इन की हौसलाअफ़्ज़ाई से इन्क़िलाबीयों का जोश हज़ार गुना बढ़ जाता । वो भूके प्यासे सब कुछ भूल कर अपने वतन की एक एक इंच ज़मीन केलिए मर्रमिटने को तैय्यार थे । आख़िर वो लम्हा भी आगया जब अंग्रेज़ियों ने अपने साथीयों को रीज़ीडनसी से आज़ाद करा ही लिया । और लखनऊ पर अंग्रेज़ों का क़बज़ा हो गया । बेगम हज़रत महल की शख़्सियत हिंदूस्तानी निस्वानी समाज की पैरवी करता है वो बेहद ख़ूबसूरत रहम दिल और निडर ख़ातून थीं। अवध की पूरी क़ौम , अवाम ओहदेदार , फ़ौज उन की इज़्ज़त करती थीं। यहां तक कि इन के एक इशारे पर अपनी जान तक क़ुर्बान करने का जज़बा उन की अवाम में था । उन्हें कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि वो औरत की सरबराही में काम कररहे हैं उन्हें अपनी इस लीडर पर अपने से ज़्यादा भरोसा था । और ये भरोसा बेगम हज़रत महल ने टूटने नहीं दिया । जब बाग़ीयों के सरदार दलपत सिंह महल में पहुंचे और बेगम हज़रत महल से कहा,बेगम हुज़ूर आप से एक इल्तिजा करने आया हूँ। बेगम ने पूछा वो क्या ? इस ने कहा । आप अपने फ़रंगी क़ैदीयों को मुझे सौंप दीजिए । में इस में से एक एक का हाथ पैर काट कर अंग्रेज़ों की छावनी में भेजूँगा । नहीं हरगिज़ नहीं । बेगम के लहजा में सख़्ती आगई । हम क़ैदीयों के साथ ऐसा सुलूक ना तो ख़ुद कर सकते हैं और ना किसी को इस की इजाज़त दे सकते हैं।क़ैदीयों पर ज़ुलम करने की रिवायत हम में नहीं है । हमारे जितने भी फ़रंगी क़ैदी और उन की औरतों पर कभी ज़ुलम नहीं होगा । अंदाज़ा होता है बेगम हज़रत महल इंसाफ़ पसंद और हुस्न-ए-सुलूक की मालिक थीं । बेगम ने जिन हालात और मुश्किल वक़्त में हिम्मत-ओ-हौसले के साथ अपने फ़राइज़ अंजाम दिए वो हमारे लिए मिसाल है वो भले ही आज हमारे बीच ना हूँ पर इन का ये क़ौल आम हिंदूस्तानियों केलिए एक दरस है । ये हिंद की पाक-ओ-साफ़ सरज़मीन है । यहां जब भी कोई जंग भड़की है हमेशा ज़ुलम करने वाले ज़ालिम की शिकस्त हुई है । ये मेरा पुख़्ता यक़ीन है । बेकसों , मज़लूमों का ख़ून बहाने वाला यहां कभी अपने गंदे ख़ाबों के महल नहीं खड़ा कर सकेगा । आने वाला वक़्त मेरे इस यक़ीन की ताईद करेगा । जंग के बाद आख़िर कार बेगम हज़रत महल ने नेपाल में पनाह ली । इबतिदा में नेपाल के राना जंग बहादुर ने इनकार कर दिया । लेकिन बाद में इजाज़त दे दी । वहीं पर 1879 में इन की वफ़ात हुई। काठ मुंडो की जामि मस्जिद के क़ब्रिस्तान में गुमनाम तौर पर उन को दफ़ना दिया गया ।15 अगस्त, 1962 में इन को ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करते हुए सुबाई हुकूमत ने विक्टोरिया पार्क में इन की याद में संग मर मर का मक़बरा तामीर करा कर उसे बेगम हज़रत महल पार्क नाम दिया । हज़रत महल का ये कारनामा इस बात का सबूत है कि औरत लाचार और मज़लूम नहीं । वो वक़्त पड़ने पर मुर्दों के साथ क़दम मिला कर चल भी सकती है और आगे बढ़ कर कोई भी ज़िम्मेदारी बह ख़ूबी निभा भी सकती है । ज़रूरत है अपनी सलाहीयतों को पहचान कर उन्हें इस्तिमाल करने की अपने वजूद को पहचान देने की