हिन्दी साहित्य में भारतीय नारी-प्रेम का संदर्भ

                                           डाॅ छेदी साह,डी0लिट्0(हिन्दी)
           
  विश्व के अन्य साहित्य की तरह हिन्दी में राष्ट्र-प्रेम, समाह-प्रेम,पषु-पक्षी प्रेम,प्रकृति प्रेम के साथ-साथ नारी-प्रेम को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दी के आदिकाल से लेकर आजतक भारतीय कवियों ने नारी प्रेम का किसी न किसी रूप में आश्रय ग्रहण किया है। हिन्दी साहित्य में नारी प्रेम को विभिन्न रूपों में ग्रहण किया गया है। महिला साहित्यकार डाॅ0 पुष्पा वंसल के शब्दों में ’’विष्व-साहित्य का सर्वप्रचलित रस शंृगार रस है, वही रसराज भी कहलाता है तथा नारी इसी रसराज का प्राणाधार है। पुरूष के लिए नारी की विमोहिनी शक्ति सदा से ही एक रहस्य एक चुनौती एक अदम्य आकर्षण रही है तथा उसमें वही सदा से पुरूष की भावात्मक सत्ता पर राज्य करती रही है। ’पद्मावत’ की पद्मावती’ कादम्बरी की महाष्वेता गहन साधना का कारण रही है। ’कामायनी’ की श्रद्घा,’उर्वषी’ की उर्वषी प्रणयिनी प्रषिक्षिका की भूमिका में उतरी है। असंख्य दुर्गावतियाँ,मृगनयनियाँ, लक्ष्मीबाइयाँ इतिहास की दिषा को मोड़ती हुई साहित्य में प्रधानपात्र या पात्रा के आसन पर प्रतिष्ठित है’’। 
            हिन्दी साहित्य का आदिकाल वीरगाथा काल कहा जाता है। वीरगाथा काल की प्रसिद्व काव्य-कृतियाँ पृथ्वीराज रासो’’वीसलदेव रासो’ हम्मीर रासो’ आदि में वीर रस का सुन्दर सामंजस्य देखने को मिलता है। इस काल के कवियों ने नारी के रूप-सौंदर्य का तथा उसके गुण-षील का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। साथ ही साथ नायिकाओं के रूपाकर्षण पातिव्रत्य तथा उनके सती -स्वरूप का प्रभावषाली वर्णन देखने को मिलता है। हिन्दी के रासों साहित्य में नारी की ओजस्विता की आरती उतारते हुए यह भी कहा गया है कि पुरूष के सुख-दुःख में हाथ बँटाने वाली नारी की निन्दा करना अनुचित है। ’पृथ्वीराज रासो’ के अंत में महाराज पृथ्वीराज के बन्दी होने पर संयोगिता के प्राण त्यागने तथा अन्य रानियों के सती होने का भी प्रषंसनीय वर्णन मिलता है। आदिकाल में कविवर विद्यापति ने प्रमुखतः नारी के स्थूल माँसल सौंदर्य का वर्णन किया है। परंतु एक स्थल पर कविवर विद्यापति ने नारी के सौंदर्य का सुरूचिपूर्ण वर्णन किया है। वंसत के सौरभ से ओत-प्रोत पवन शीतलता और स्नेह बाँटता  हुआ बह रहा था। मधुर पराग भीनी सुरभि से पवन का अलमस्त गति सरस बनी हुई थी। स्वप्न और कल्पना की नायिका के मुख से धूँघट वायु के स्पर्ष से हट जाता था मानों पवन रूप में कोई दक्खिन नायक नायिका का धूँघट हटा रहा हो। ब्रह्मा ने यंत्रो से चन्द्रमा की रचना की। बार-बार उसे काँटा छाँटा, बार-बार उसे नये रूप में आकर्षक बनाने का प्रयास किया। फिर भी नायिका की मुख छवि को चन्द्रमा नहीं पा सका। नायिका की आँखंे कमलिनी से भी अधिक सुन्दर और चित्ताकर्षक थी। नायिका का रूप देखकर कमलिनी जल में छिप गयी थी ग्लानिवष। कवि कहता है कि संसार में सभी मनुष्य मानते है कि कमलिनी आकर्षण में अपूर्व है फिर भी वह जल में छिपने का उपक्रम करती है। 
                प्रेम की अनुभूति और अलक्ष्य प्रियके साथ मिलन की लालसा के क्षेत्र में ये रहस्यवादी कवि माने जा सकते है। परमात्मा रूपी प्रियतम से संयोग की तीव्र लालसा लेकर विरहिणी नायिका रूपी आत्मा प्रतीक्षारत है। 
              अतः संत महाकवि कबीर ने आत्मा और परमात्मा के मिलन को प्रेम और प्रेयसी के मिलन का रूप प्रदान करने हेतु शृंगार की रचनाएँ भी की। काव्य पक्तियाँ इस प्रकार हैं - 

दुलहिन गावहु मंगलचार हम घर आये हो राजाराम भरतार तन रति करिहौं,मन रति कीन्हा पाँचों तत्व बाराती रामदेव मेरे पाहुने आये मैं जौवन मदमाती ।

           प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि मल्लिक मोहम्मद जायसी थे। इनकी प्रसिद्ध रचना ’पद्मावत’ में राजा रत्नसिंह और सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का वर्णन है। इन दोनों का संयोग हीरामन तोते से कराया था -
           लौकिक प्रेम के साथ-साथ अलौकिक प्रेम का सुन्दर समन्वय का रूप इस प्रकार है -

तन चितउर मन राजा कीन्हा हिय सिंघल बुद्धि पद्मिनि चीन्हा । गुरू सुआ जेई पंथ दिखाआ बिन गुरू जगत को निरगुन पावा नागमती यह दुनिया धंधा बचा सोई न एहि चित बंधा राधव दूत सोई सैतानू माया उलाउद्दीन सुल्तानू

              हिन्दी का रीतिकाल अपने नायिका भेद वर्णन तथा नख-षिख वर्णन के लिए ही प्रसिद्ध है। नायक पतंग उड़ा रहा है। उसकी पतंग की परछाई नायिका के आँगन में पड़ रही है। नायिका पागल सी पकड़ती फिर रही है। पतंग की छाया के स्पर्ष में उसे नायक के स्पर्ष के सुख का आनंद प्राप्त हो रहा है -

उड़ती गुड्डी लखि ललन की अँगना अँगना माहि । बौरी लौं दौरी फिरति छुवत छबीली छाँहि।

              नारी वर्णन को लेकर हिन्दी के पद्य-साहित्य तथा गद्य साहित्य में विषिष्ट अंतर है। आरंम्भिक कालों में पद्य का ही प्रभुत्व रहा है। वहाँ नारी को राधा,सीता,नायिका प्रेयसि, बाल सुकुमारी राजकुमारी आदि के रूप में ही वर्णित किया गया है। जिसमें उसको किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत वैषिष्ट्य न देकर केवल जातिगत पहचान दी गई। उस पहचान के दो स्तम्भ हैं- एक सौंदर्य, दूसरा प्रेम। दोनों ही स्थितियों में उस नारी का सामान्यतः समाज, जीवन, राजनीति तथा राष्ट्र आदि के साथ कोई संबंध दिखाई नहीं देता। वह अपने यौवन एवं सौंदर्य भार के बोझ से झुकी अपनी प्रणय सबंधी भावनाओं में ही लिप्त है। 
                  विद्यापति की राधा, जायसी की पदमावती,सूर की राधा बिहारी आदि रीतिकाली कवियों की नायिका एकान्त प्रणय में लिप्त उत्कृष्ट सौंदर्य की स्वामिनी है। इसके आगे उनके कुलजाति वंष वर्ग आदि का कोई परिचय नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि मध्ययुगीन भारतीय समाज में नारी की भूमिका मात्र इतनी ही रह गयी थी। अषिक्षा पर्दा-प्रथा बाल-विवाह आदि कुप्रथाओं द्वारा जन समाज में फैल रही विलासिता और अकर्मण्यता की भावनाओं ने उसे ऐसी परिस्थिति में पहुँचा दिया। 
            आधुनिक काल भारतीय जीवन में सर्वांगीण परिवत्र्तन का संदेष लेकर आया। सबसे  बड़ा परिवत्र्तन यह हुआ कि स्वयं नारी अपनी पहचान का सही रूप में व्यक्त करने के लिए व्याकुल हो उठी। सत्यनारायण कवि रत्न की गोपिकायें अपूर्व तर्क कुषल है, हरिऔध जी राधा गोकुल वासियों को जागृति का संदेष देती है तो सीता वन वासियों को षिक्षित करने का प्रयास करती है। 
       मैथिलीषरण गुप्त की यषोधरा अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली है -

सखि वे मुझसे कहकर जाते । कह तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते ।



        प्रसाद की ’’श्रद्धा’’ मनु जैसे उच्छृंखल, निर्बाध अधिकारी भोगी विलासी मनुओं को पूर्णतया अपने नियंत्रण में ले लेती है तथा उसे अपने निर्देषों के द्वारा एक सफल काम व्यक्ति बना देती है। पूर्ववत्र्ती किसी नारी ने इस प्रकार पुरूष के जीवन को निर्देषित नहीं किया था। श्
         नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्यनिधि है। महाकवि प्रसाद के यहाँ नारी श्रद्धामयी है -

नारी तुम केवल श्रद्रधा हो विष्वास-रजत नग-पग तल में पीयूष स्त्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।

            स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के हिन्दी साहित्य में चित्रित नारी पूर्णतः बदली हुई है। वह षिक्षित है, कार्यषील है, अर्जन कार्य में संलग्न है, पुरूष से मैत्रीभाव रखती है। वह अपने दायित्व को समझती एवं निवाहती है तथा राष्ट्र की एक समान नागरिक है। 
           मोहन राकेष के नाटक और उपन्यास, लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक,सुरेन्द्र वर्मा के नाटक आधुनिक नारी के प्रेम और द्वन्द्व को चित्रित करता है। अंतर द्वन्द्व से उपन्यास और नाटक जीवन्त हो उठता है। यहाँ नारी मुष्किलों का सामना करती है।  
         नागार्जुन,फणीष्वरनाथ रेणु,हिमांषु जोषी, कृष्णा सोबती जैसे श्रेष्ठ रचनाकारों ने भारत के विभिन्न अंचलों में रहने वाली नारी के मन की व्यथा देखी है। हिमंाषु जोषी की ’’शृंगार की आग में’’ यदि पहाड़ी प्रदेष की नारी के जीवन की दुर्दषा आयी है तो कृष्णा सोबती के ’’जिन्दगी नामा’’ डार से बिछुड़ी में पंजाबी अंचल की नारी की भावात्मक उष्णता उसका परिवार के प्रति जुड़ाव तथा मायका व ससुराल दोनों घरों में बँटती तड़पती ममता का चित्रण हुआ है -
         आज की कविता में भी नारी की स्थिति का यथार्थवादी चित्रण मिलता है। जनकवि नागर्जुन रचित कविता ’’घर से बाहर निकलेगी कैसे लजवंती’’ ’’जयति नख रंजनी’’ में सामंन्ती नारी की प्रवृतियाँ के विरोध का स्वर मुखरित हुआ है। 
           निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में नारी-प्रेम के विभिन्न रूपों का अनुपम वर्णन मिलता है। 
         


                                                        (डाॅ0 छेदी साह)
                                                                    ज्योति बिहार काॅलनी, 
                                                                     पोस्ट- बहादुरपूर, 
                                                                      थाना जीरोमाईल
                                                                      जिला भागलपुर 
                                                                     पिन नं0 832210 
                                                                     मो0-9931887372   

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