सदस्य:रवि एस. प्रभू नाथ/प्रयोगपृष्ठ

#बौद्ध_देवी_तारा

सभी बुद्धों की माता और मैत्री एवं करुणा की स्त्रैण प्रतिमूर्ति हैं बौद्ध देवी तारा। वैसे तो बहुत पहले से बौद्ध साहित्य में इनका नाम मिल जाता है लेकिन इनको महत्वपूर्ण स्थान मिला 5वीं/छठी शताब्दी में जब बौद्धों की वज्रयान शाखा और बौद्ध धर्म में तंत्र-मंत्रों का प्रसार होने लगा। बौद्ध देवियों की प्राचीनता देखनी है तो कुषाणकालीन गांधार कला देखें जिसमें बौद्ध देवी हारिति की मूर्तियाँ बनाई गईं हैं दूधधारिणी रूप में।

बौद्ध धर्म में ऐसी मान्यता है कि इनका जन्म बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के आंसुओं से हुआ था,जब अवलोकितेश्वर नरक के विभत्स स्थिति को देख रहे थे। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ मंजुश्रीमूलकल्प में इनके अन्य नाम हैं:- भृकुटी, मामकी, लोचना, श्वेता, पण्डारवासिनी,सुतारा आदि। तारा देवी 8 बड़े भय से अपने भक्तों की रक्षा करती हैं :-सिंह ,हाथी,अग्नि,सर्प,डाकू,पाप, बंदीगृह और राक्षस से।

ये अवलोकितेश्वर की शक्ति भी हैं(वही पुरुष और नारी के सम्मिलन/संसर्ग से सृष्टि का निर्माण वाला कांसेप्ट)।

ध्यानी बुद्ध अमोघसिद्धि इन्हीं से पैदा हुये। मारीचि और एकजटा इनकी दो सहयोगी देवियाँ हैं। वैसे तो ये वरद मुद्रा के रूप में एक आशीर्वाद देने वाली देवी हैं लेकिन जब इन्हें "उग्रतारा" के रूप में इनका अंकन होता है तो ये दाहिने हाथ में तलवार,ढाल और बाएँ हाथ मे कमल और खोपड़ी लिये रहती हैं। नालन्दा विश्वविद्यालय/विहारों से इनकी सबसे अधिक मूर्तियाँ मिली हैं। नालन्दा के ही एक कांस्य मूर्ती में ये 10 हाथों वाली देवी हैं जिसमें बौद्ध विद्या देवी प्रज्ञापारमिता देवी का दर्शन किया जा सकता है। मरिची देवी का एक मुख वाराह(सुअर) का भी है बौद्ध मूर्तिकला में।

बिना मातृशक्ति के कोई भी सृष्टि या धर्म अधूरा है इसलिए सभी मातृशक्तियों को नमन,वंदन।