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छऊ नृत्य
संपादित करेंछऊ नृत्य एक पारंपरिक भारतीय नृत्य रूप है, जो मार्शल आर्ट्स, नटकी, और कथावाचन के तत्वों का मिश्रण है। यह नृत्य झारखंड और उड़ीसा के संताल परगना क्षेत्र से उत्पन्न हुआ है और विभिन्न क्षेत्रीय त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ है। यह नृत्य अपने ऊर्जावान और अभिव्यक्तिपूर्ण प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है, जो अक्सर मिथकीय कथाओं, नायक कार्यों और अच्छे और बुरे के बीच के ब्रह्मांडीय संघर्ष को दर्शाता है।
उत्पत्ति और ऐतिहासिक महत्व
संपादित करेंछऊ नृत्य की उत्पत्ति प्राचीन मार्शल आर्ट्स परंपराओं से जुड़ी हुई है। यह नृत्य पहले योद्धाओं के प्रशिक्षण का हिस्सा था, जो शक्ति, चुस्ती और युद्ध कौशल को बढ़ाने के लिए किया जाता था। समय के साथ यह एक अधिक विकसित प्रदर्शन कला के रूप में रूपांतरित हो गया, जिसमें नाटक और नृत्य के तत्वों को जोड़ा गया। यह परंपरा क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रथाओं में गहराई से निहित है और यह चैतरा पर्व (मार्च-अप्रैल) और मकर संक्रांति जैसे प्रमुख त्योहारों के दौरान प्रदर्शित किया जाता है, जो मौसमी परिवर्तनों और धार्मिक विजयों का जश्न मनाते हैं।
छऊ नृत्य की शैलियाँ
संपादित करेंछऊ नृत्य की तीन प्रमुख शैलियाँ हैं, जो प्रत्येक की अपनी विशेषताएँ और भिन्नताएँ हैं:
- पुरूलिया छऊ (पश्चिम बंगाल और झारखंड): इस शैली में जोशीले और शक्तिशाली आंदोलनों की विशेषता होती है। यह शैली अक्सर अत्यधिक ऊर्जावान नटकी करतबों को शामिल करती है। कलाकार अक्सर देवताओं, राक्षसों और जानवरों का प्रतिनिधित्व करने वाले मास्क पहनते हैं। नृत्य तेज़ गति का और भावनात्मक रूप से प्रभावशाली होता है।
- सेराईकेला छऊ (झारखंड): इस शैली में अधिक परिष्कृत और नियंत्रित आंदोलन होते हैं, जिसमें सौम्यता और सटीकता पर जोर दिया जाता है। कलाकार हाथों के इशारों और जटिल शारीरिक आंदोलनों के माध्यम से भावनाओं को व्यक्त करते हैं, जो अन्य शैलियों की तुलना में अधिक तरल और सुंदर दिखाई देते हैं।
- मयूरभंज छऊ (उड़ीसा): मयूरभंज छऊ शैली अपने लयबद्ध और सुंदर नृत्य आंदोलनों के लिए जानी जाती है। कलाकार elaborate कपड़े और मास्क पहनते हैं, और यह नृत्य नाटकीय कथावाचन, मार्शल आर्ट्स और नटकी करतबों को शामिल करता है। यह शैली अक्सर देवताओं और नायकों की मिथकीय कथाओं को प्रस्तुत करती है।
प्रदर्शन और पोशाकें
संपादित करेंछऊ नर्तक विस्तार पोशाकें और मास्क पहनते हैं, जो नृत्य के कथावाचन तत्व का अभिन्न हिस्सा होते हैं। मास्क आमतौर पर लकड़ी या कागज के-माचे से बने होते हैं और ये अक्सर देवताओं, राक्षसों और अन्य मिथकीय पात्रों को दर्शाते हैं। इन मास्कों को विस्तार से चित्रित किया जाता है, जिससे नृत्य का दृश्यात्मक आकर्षण बढ़ता है।
नर्तक ढोल, नगारा, और शहनाई जैसे पारंपरिक संगीत वाद्य के साथ प्रदर्शन करते हैं, जो नृत्य के लिए लयबद्ध आधार प्रदान करते हैं। संगीत तेज़ गति का होता है, जिसमें जटिल ताल होते हैं, जो आंदोलनों की ऊर्जा से मेल खाते हैं।
छऊ और धार्मिक महत्व
संपादित करेंछऊ नृत्य केवल एक कला रूप नहीं है, बल्कि यह एक अनुष्ठानिक अभ्यास भी है। इसे दैवीय आशीर्वाद प्राप्त करने और अच्छे का बुरे पर विजय मनाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है, और यह अक्सर देवताओं और राक्षसों के बीच मिथकीय युद्धों को दर्शाता है। यह नृत्य स्थानीय धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं से जुड़ा होता है, विशेष रूप से रथ यात्रा और अन्य त्योहारों में। इन घटनाओं के दौरान छऊ नृत्य प्रदर्शित किया जाता है ताकि समुदाय के लिए समृद्धि, स्वास्थ्य और सुरक्षा की कामना की जा सके।
यूनेस्को मान्यता
संपादित करें2010 में, छऊ नृत्य को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया गया, जो इसे एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान करता है। इस मान्यता ने नृत्य के संरक्षण और पारंपरिक कला रूपों को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका को रेखांकित किया है।
वर्तमान स्थिति और पुनरुत्थान
संपादित करेंहाल के दशकों में, छऊ नृत्य को शहरीकरण, वैश्वीकरण और मनोरंजन के बदलते रूपों के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। हालांकि, हाल के वर्षों में इसे सांस्कृतिक आयोजनों, राज्य-प्रायोजित त्योहारों और व्यक्तिगत कलाकारों के प्रयासों के माध्यम से पुनर्जीवित किया गया है। यह नृत्य अब महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक त्योहारों में प्रदर्शित किया जाता है, साथ ही अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी इसे मान्यता प्राप्त हो रही है।
विभिन्न नृत्य समूह और सांस्कृतिक संगठनों ने छऊ को आधुनिक तत्वों के साथ पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, जबकि इसके पारंपरिक रूप को बनाए रखते हुए। प्रदर्शन अब भारत और विदेशों में प्रमुख त्योहारों में दिखाई दे रहे हैं, जिससे यह छऊ नृत्य की सांस्कृतिक प्रासंगिकता सुनिश्चित कर रहा है।
संदर्भ (References)
संपादित करें- UNESCO मान्यता: छऊ नृत्य को 2010 में यूनेस्को की "अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की प्रतिनिधि सूची" में शामिल किया गया। इसने इस कला रूप की सांस्कृतिक महत्ता को वैश्विक पहचान दिलाई। यह नृत्य मुख्य रूप से रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों पर आधारित कथाओं के माध्यम से अपनी कहानी कहता है।
- मार्शल आर्ट्स से उत्पत्ति: छऊ नृत्य की उत्पत्ति ओडिशा के पारंपरिक मार्शल आर्ट्स से हुई थी। यह योद्धाओं द्वारा युद्ध के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होने के लिए किया जाता था।
- आर्थिक महत्व: पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के गाँव, जैसे कि चोरिडा, छऊ नृत्य के मास्क निर्माण और प्रदर्शनों पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं। यह कला न केवल उनके जीवन-यापन का साधन है बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण का एक माध्यम भी है।