भारतवर्ष के इतिहास में बौद्ध-धर्म

भारतवर्ष के इतिहास में बौद्ध - युग का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध थे। उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म 563 ईसा पूर्व में लुम्बिनी में शाक्य वंश के राजा सुद्धोधन के यहाँ हुआ। 16 वर्ष की आयु में यशोधरा से उनका विवाह हुआ। 28 वें वर्ष पुत्र राहुल का जन्म हुआ। 29 वें वर्ष में गृहत्याग किया। सिद्धार्थ को  दिखने वाले चार महादुख - वृद्ध , रोगी ,मृत्यु ,और सन्यासी चार महाचिन्ह माने गए हैं। इन्हें देखकर सिद्धार्थ के जन्म मन में सन्यास की भावना जगी। 7 वर्ष भटकने के बाद 35 वर्ष की आयु गया के उरुवेला नामक स्थान पर पीपल वृछ के नीचे समाधि के 49 वें दिन उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और वे बुद्ध कहलाये। बुद्ध ने अपने धर्म की घोषणा संस्कृत को छोड़कर जनता की बोली में की और दार्शानिक जंजाल से दूर रहते हुए उन्होंने लोगों को यह बताया कि मनुष्य दुःखी है ,दुःख अकारण नहीं है ,इस दुःख का निरोध संभव है।

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य हैं ,जिनकी व्याख्या निम्नलिखित रूप में की जाती है -

1- दुःख आर्य सत्य है। जन्म भी दुःख है ,जरा भी दुःख है ,व्याधि भी दुःख है ,मरण भी दुःख है ,अप्रिय लोगों से मिलना भी दुःख है ,प्रिय लोगों से बिछुड़ना भी दुःख है और इच्छा करने पर किसी चीज का नहीं मिलना भी दुःख है।

2 -दुःख -समुदाय आर्य सत्य है। अर्थात मनुष्य को जो भी दुःख होते हैं ,वे किसी -न -किसी कारण को लेकर। यह कारण सदैव तृष्णा का कोई -न -कोई रूप होता है ,जैसे जन्म लेने की तृष्णा,खुश होने की तृष्णा ,सुख भोगने की तृष्णा। जब -  जब तृष्णा की पूर्ति में बाधा पड़ती है। ,तब -तब मनुष्य दुःखी होता है। असल में तृष्णा और दुःख में कारण -कार्य का सम्बन्ध है।

3 -दुःख -निरोध आर्य सत्य है। अर्थात दुःख के दूर करने का उपाय उनके कारण को दूर करना है। तृष्णा का सर्वथा त्याग ,वासना में लीन नहीं होने की योग्यता और जिन -जिन कारणों से मनुष्यों को दुःख होते हैं ,उन -उन कारणों से मुक्त हो जाने का भाव ,यह दुःख निरोध है।

4 -दुःख -निरोध -गामिनी -प्रतिपद आर्य सत्य है। इसका अर्थ यह है कि दुःखो से छूटने का मार्ग भी है। इस उपदेश के अंदर उन आठ प्रकार के आचरणों की गिनती है ,जिनका पालन करके मनुष्य दुःखो के कारणों का नाश कर सकता है।

ये अष्टांगिक मार्ग इस प्रकार है ;

1 . सम्यक सृष्टि। यह सोचना कि जीवन में दुःख हैं , दुःख अकारण नहीं हैं ,दुःख दूर किये जा सकते हैं तथा दुःख के दूर करने के उपाय भी हैं। अर्थात बुद्ध ने जो चार आर्य सत्य कहे हैं ,उनमें अटल विश्वास रखना।

2 . सम्यक संकल्प।   निष्कर्मता - सम्बन्धी संकल्प यानी जो कर्म करने योग्य नहीं हैं ,उन्हें नहीं करने का संकल्प : अद्रोह - सम्बन्धी संकल्प , अहिंसा - सम्बन्धी संकल्प।

3 . सम्यक वचन। झूठ बोलने से बचना ,चुगली करने से बचना , कड़ी बात कहने से बचना और बकवास में भाग लेने से बचना।

4 . सम्यक कर्मान्त। प्राणि - हिंसा नहीं करना , जो दिया नहीं गया है उसे नहीं लेना , दुराचार से बचना और भोग के अतिचार से दूर रहना।

5 . सम्यक आजीव। गलत रोजगार से अगर रोजी चलती हो तो उसे छोड़कर ऐसे रोजगार में लगना , जिससे धर्म नहीं बिगड़ता हो।

6 . सम्यक व्यायाम। मन में पाप के भाव जागते हो तो उन्हें दबाने का प्रयत्न करना ,मन में अच्छे भाव पैदा हो , उन्हें बढ़ाने की चेष्टा करना।

7 . सम्यक स्मृति। शरीर में बुढ़ापे , रोग और पाप के बीज हैं , इसका ध्यान रखना और क्षण क्षण , भीतर से जागरूक रहकर वासना का दलन और ज्ञान का विकास करना।

8 . सम्यक समाधि। चार प्रकार के ध्यान जिनमे वर्तक और विचार से मन  के भावों को सुलझाया जाता है है , शांति और एकाग्रता  से अपने अपने आपको जानने की कोशिश की जाती है। उपर्युक्त सात नियमों पर चलने वाला व्यक्ति सम्यक समाधि के योग्य हो जाता है और निम्नांकित चार अवस्थाओं को प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है -

प्रथम अवस्था - आर्य सत्यों के शांत चित्त से ध्यान की अवस्था है।

द्वितीय अवस्था - प्रगाढ़ चिन्तन द्वारा शान्ति तथा चित्त की स्थिरता का उदय होता है।  समस्त संशय सदा दूर हो जाते हैं।

तृतीय अवस्था - इस अवस्था में आनन्द एवं शांति से चित्त की साम्य अवस्था की ओर बढ़ते हैं - आनन्द एवं सुख के प्रति उदासीनता आ जाती है।

चतुर्थ अवस्था -दैहिक सुख एवं आनंद के प्रति उदासीनता से चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है। यह पूर्ण विराग एक पूर्ण निरोग की अवस्था है। इस प्रकार दुखो का निरोध होने पर अर्हन्त या निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। यह पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था है।

         बौद्ध दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देशय - बौद्ध दर्शन दुखवादी है। बौद्ध दर्शन का आधार दुःख एवं दुःख का निवारण है। दुःख का कारन अविज्ञा या अज्ञान है। अविज्ञा से मुक्ति मिलने पर प्रज्ञा-प्राप्ति कर दुःख का निवारण हो जाता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देशय निम्नांकित हो सकते हैं-

          (1) सम्यक दृष्टि का विकास- अविद्या के कारन उत्पन्न मिथ्या दृष्टि से मुक्ति, अनित्ये को नित्ये न समझकर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को पहचानने की क्षमता ही सम्यक दृष्टि है।

           (2) सम्यक-संकल्प की शक्ति का विकास - राग-द्वेष त्याग, सांसरिक विषयों के प्रति अनाशक्ति , हिंसा-त्याग के दृढ निश्च्य की शक्ति बालक को प्रदान करना की वह राग-द्वेषादि का त्याग करने का दृढ निश्च्य कर सके।

           (3) संयमित वाणी का विकास - शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बालक की वाणी को इस तरह से संयमित करना  है की वह पर-निंदा , मिथ्या एवं अप्रिय वचन, वाचालता का त्याग कर दे।

           (4) अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सम्यक कर्म करने की क्षमता का विकास - संयमित सम्यक वाणी की विकास की बाद शिक्षा का चौथा उद्देशय है - बालक की  कर्मो का सम्यक विकास अर्थात बालक की कार्यो से अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं इंद्रिये-निग्रह का परिचय मिले, अहिंसादि तत्त्व उसके कर्मो के आधार पर हों।

           (5)  शुद्ध एवं अच्छे उपायों से जीविकोपार्जन का प्रशिक्षण - शिक्षा का उद्देश्य है की बालक को ऐसे व्यवसाय तथा उद्योगों का प्रशिक्षण दे जिनके द्वारा वह शुद्ध एवं अच्छे उपायों से जीवकोपार्जन कर सके।

           (6) बुरी भावनाओं का नाश एवं अच्छी भावनाओं का विकास - बालक अपने पथ से भ्रष्ट न हो, इसलिए ये आवश्यक है की निरन्तर उसे ऐसा अभ्यास कराया जाये जिससे की -

                         - पुराने बुरी भावों का पूरी तरह से नाश हो जाये।

                         - नए बुरे भाव मन में न आएं।

                         - अच्छे-अच्छे विचारों से बालक की मन                        को परिपूर्ण रखा जाये।

            (7) नित्ये-अनित्ये वस्तुओं में विभेद-बुद्धि का विकास कर सांसरिक विषयों के प्रति अनासक्ति की भाव का विकास - सांसरिक अनित्य वस्तु के नष्ट होने पर हमें दुःख होता है यथा, अनित्य शरीर के नष्ट होने पर। अतः शिक्षा का उद्देश्य है कि बालक को निरन्तर शरीर की अनित्यता का प्रत्यक्ष ज्ञान कराकर यह स्मरण कराया जाये कि यह हाड़-मॉन्स का शरीर है।

             (8) निर्वाण - शिक्षा का अंतिम लक्ष्य निर्वाण कि प्राप्ति है। यह निर्वाण उपर्युक्त सात सोपानो को पार कर लेने से ही प्राप्त हो सकता है। बौद्ध-दर्शन में इसे समाधि अवस्था नाम दिया है। निर्वाण की प्राप्ति मृत्यु के बाद नहीं जीवित अवस्था में ही प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः यह राग-द्वेष, लोभ, मोह, तृष्णा, काम-वासना आदि के नाश की अवस्था है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य बालक को इस अवस्था की प्राप्ति करना ही है।