विनोबा भावे संपादित करें

परिचय संपादित करें

महान दार्शनिक, सन्त, समाज-सुधारक और युग निर्र्माता विनोबा भावे उन विभूतियों में से थे जिन पर प्रत्येक जाति को गौरव होग। एक कहावत है - "कुछ महान पैदा होथे है, कुछ महानता प्रास करते है और कुछ पर महानता थोपी जाती है।" आचार्य भावे वे उन महान विभूतियों में से थे जिन्होने अपने कार्यों से महानता को अजिरत किया था। पराधीनता के युग में निरंतर स्वतन्त्रता के हेतु संघर्श करने वाले, समाज के दलित वर्ग के उत्थान में सक्रिय योगदान करने वाले और स्वतन्त्रता के पशचात गानधीजी के स्वतंत्र भारत के स्वप्न को साकार करने वाले आचार्य भावे ने अप्ने कार्यों से समस्त मानव जाति कामसितरक ऊनचा है।

प्रारंभिक जीवन संपादित करें

आचार्य विनोबा का वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था। महात्मा गान्धि ने स्नेहवश उन्हें विनोबा नाम दिया। ११ सितंबर, ११०५ को महाराश्त्रा के कोलावा जिले में गगोडा गांव में उनका जन्म हुआ। उनके पिता नरहरि शम्भू राव भावे टेक्सटाइल टेक्नोलाजी के ग्याता थे और उनकी माता रुक्मिणी देवी एक धार्मिक महिला थीं। विनोबाजी ने गंन्धिजी को परामर्श से ७ जून, १९२६ को उनसे भेंट कि। इसके बाद उनके जीवन में महान परिवर्तन आया। गंन्धिजी की प्रेरणा से भावे काऊराव आश्रम में रहने लगे। गंन्धिजी ने उन्हें सदेव सामाजिक नेता के रूप में देखा।

सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यकर्ता संपादित करें

विनोबाजी सदेव सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता रहे। स्वतन्त्रता के पूर्व गान्धिजी के रचानात्म्क कार्यों में सक्रिय रूप से योगदान देते रहे। कार्यधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, उन्हें किसी पहाडी स्थान पर जाने की डाक्टर ने सलाह दी। अत: १९३७ ई० में विनोबा भावे पवनार आश्रम में गये। तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनके रचनात्मक कार्यों को प्रारंभ करने का यही केन्द्रीय स्थान रहा।

महान स्वतंत्रता सेनानी संपादित करें

रचानात्म्क कार्यों के अतिरित्क वे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। १९३७ में गान्धिजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लोटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की तो उन्हें बंदी बनाकर छह माह की सजा दी गयी। कारागार से मुक्त होने के बाद गान्धिजी ने उन्हें पहेला सत्याग्रही बनाया। १७ अक्टूबर, १९४० को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये तथा उन्हें ३ वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। गान्धिजी ने १९४२ को भारत छोडा आंदोलन करने से पूर्व विनोबाजी से परामर्श लिया था।