सदस्य:Devesh shastri/प्रयोगपृष्ठ
डिस्कबरी आफ इटावा
संपादित करें-देवेश शास्त्री- ......... प्रयोगधर्मी देवेश शास्त्री ने अबतक दर्जनों शोधकर्ताओं को दिशानिदेंश व बौद्धिक सहयोग कर निस्वार्थ भाव से पीएचडी करवाई। यानी कि आप डाक्टरों के डाक्टर हैं, मगर स्वयं ‘डाक्टर’ नहीं हैं। जब उनसे कहो कि पीएचडी कर लो, सीधा जवाब मिलता। क्या होगा? विद्वद्समूह ने कहा- स्वेच्छा से किसी विषय पर शोधग्रंथ लिखो, कोई न कोई यूनीवर्सिटी डाक्ट्ररेट की मानद उपाधि देगा। जिसका प्रत्येक चिंतन एक शोधग्रंथ हो तो वह तो डाक्टर है ही। ‘‘डिस्कबरी आफ इटावा’’ भी एक दिव्य शोधग्रंथ सिद्ध होगा।(लेखक डा. डा0 एल एन मिश्र आरटीआई के प्रथम राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित प्रशासनिक अधिकारी है।) -इष्टापथ- सृष्टि के प्रारंभ में इस ब्रह्मांड की भौगोलिक स्थिति का निर्धारण बड़े ही सलीके से किया गया। धराधाम पर हृदयस्वरूप अजनाभखंड का नाम पुरुवंशीय दुष्यंतपुत्र भरत, भगवान ऋषभपुत्र भरत, दशरथनंदन भरत और भरतमुनि यानी चारों भरतों के नाम पर इस भूखंड का नाम ‘‘भारतवर्ष’’ माना जा रहा है। भारतवर्ष को तीन भागों में विभाजित किया गया। अफगान से लेकर अरुणाचल तक हिमालय परिक्षेत्र की पट्टी ‘‘उत्तरापथ’’ के नाम से तथा मध्यक्षेत्र में अवंतिका (उज्जयिनी) से दक्षिणी भूभाग ‘‘दक्षिणापथ’’ के नाम से प्रख्यात है। इन दोनों उत्तरापथ-दक्षिणापथ के मध्य का भूभाग, जो सुरसरि गंगा और सूर्यतनया कालिन्दी के मध्य का दोआबी क्षेत्र ‘‘इष्टापथ’’ है। इष्टापथ को वैदिक वांगमय में ऋषिभूमि-दिव्यभूमि की संज्ञा दी गई है। पौराणिक प्रसंग के अनुसार स्रष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने महात्मा पुलस्त्य को पदमपुराण का उपदेश दिया था। पुलस्त्य ने मोक्षद्वार (हरिद्वार) में भ्ीष्म को उपदेश दिया। जबकि जहां सुरसरि गंगा तथा सूर्यतनया यमुना का एकात्मरूप हुआ उस संगम स्थल प्रकृष्ट यागस्थल होने के कारण प्रयाग नाम हुआ। इस तरह इष्टि (याग) साधन है इष्ट (माोक्ष) साधना का। प्रकृष्ट यागात् प्रयाग से मोक्षद्वार यानी हरिद्वार तक का भूखण्ड की दिव्यता शस्त्रों में वर्णित है। इसमें साक्षात् गोलोक स्वरूप ब्रज क्षेत्र, शूकरक्षेत्र मधुवन, पंचनदतीर्थ व इद्रप्रस्थादि दिव्यस्थल हैं। हरिद्वार से लेकर प्रयाग तक फैले ‘‘इष्टसाध्य दिव्य इष्टापथ’’ का अंश स्वरूप भूखंड इष्टिकापुरी है, जिसका परिवर्तित नाम इटावा है। उत्तरापथ-दक्षिणापथ-इष्टापथ को उस रूप में देखा गया जैसे-मकर रेखा, भूमध्य रेखा व कर्क रेखा। कर्क रेखा उत्तरी गोलार्ध में भूमध्य रेखा के समानान्तर पश्चिम से पूर्व की ओर खींची गई कल्पनिक रेखा हैं। कर्क रेखा पृथ्वी की उत्तरतम अक्षांश रेखा हैं, जिसपर सूर्य दोपहर के समय लम्बवत चमकता हैं। यह घटना जून क्रांति के समय होती है, जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य के समकक्ष अत्यधिक झुक जाता है। इस रेखा की स्थिति स्थायी नहीं हैं वरन इसमें समय के अनुसार हेर-फेर होता रहता है। मकररेखा रेखा दक्षिणी गोलार्द्ध में भूमध्य रेखा के समानान्तर पश्चिम से पूरब की ओर खींची गई कल्पनिक रेखा हैं। दिसम्बर को सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत चमकता है। भूमध्य रेखा पृथ्वी की सतह पर उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव से समान दूरी पर स्थित एक काल्पनिक रेखा है। यह पृथ्वी को उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में विभाजित करती है। दूसरे शब्दों में पृथ्वी के केंद्र से सर्वाधिक दूरस्थ भूमध्यरेखीय उभार पर स्थित बिन्दुओं को मिलाते हुए ग्लोब पर पश्चिम से पूर्व की ओर खींची गई कल्पनिक रेखा को भूमध्य या विषुवत रेखा कहते हैं।
-ऋषि-संसद नैमिषारण्य- विभिन्न पुराणों में तमाम आख्यानों में ‘‘एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः’’ का उल्लेख इसकी पुष्टि करता है कि जनहित से जुड़े तमाम मुद्दों पर शौनक आदि 88,000 ऋषि चर्चा करते रहे हैं। जनसमस्याओं का निदान करने हेतु चर्चा और समाधान के माध्यम को जनतंत्र में संसद कहा जाता है। इस आधार पर नैमिषारण्य को ऋषियों की संसद कह सकते हैं। ‘‘नैमिषारण्य’’ उत्तरापथ व इष्टापथ के मध्य का वह क्षेत्र है जहां दोनों पथात्मक दिव्य रेखाओं की वेब्स (मिश्रित आभा) विशेष तरंग उत्पन्न करती है। पद्मपुराण के अनुसार जब ऋषियों ने साक्षात भगवान से यज्ञ के लिए उत्तम स्थान जानना चाहा तो श्रीहरि ने कहा इस चक्र को देख रहे हो वह द्रुत गति से जा रहा है तुम सब इसके पीछे-पीछे जाओ, यह धर्ममय चक्र नेमि के जीर्णशार्ण होकर गिर जाये उसे ही पुण्यस्थान समझना। धर्मचक्र गंगावर्त नामक स्थान पर गिरा निमि शीर्ण होकर चक्र जहां गिरा उसे नैमिष नाम दिया गया। ऋषियों ने दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञों का अनुष्ठान शुरू कर दिया। जिसका आभामंडल आज भी अपनी विकरण प्रक्रिया से गंगा-यमुना के दोआबी इष्टापथ को दिव्य बनाये हुए है। -इष्ट साध्य इष्टि- इष्ट का व्यापक अर्थ है। आकांक्षा, मनमाफिक, प्यारा, चाहत आदि इष्ट के पर्याय है। मानव जीवन का इष्ट है मोक्ष। सत् रूप परमात्मा और जीवात्मा का तद्रूप साक्षात्कार ही मोक्ष ‘‘इष्ट’’ कहा गया है। इष्टापथ का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘‘मोक्षमार्ग।’’ मायावश मोक्षेतर भोगविलास के साधनादि व धन-यश आदि की कामना भी ‘इष्ट’ मान बैठने वाले लोग इस पथ को अपने ढंग से इष्टसाध्य मानते रहे। इष्ट-दर-इष्ट ‘‘तृष्णा’’ की संपूर्ति ‘संतोष’ रूप परमेष्ट कहा गया है। शास्त्र अनासक्त भाव को को मोक्षमार्ग की अर्हता के रूप में मानते हैं। इष्ट साधन इष्टि (यज्ञ) हैं। इष्टापथ में स्रष्टि के प्रारंभ से लगातार अनगिनत साधु, संत, साधक व ऋषि यज्ञ करते रहे है। हरिद्वार से प्रयाग तक का यह इष्टापथ विविध इष्टिधूम से पर्यावरणीय संरक्षित व अग्निहोत्र-भस्म स्वरूप दिव्योर्वरक से सर्वाधिक उर्वरा है। -इष्ट्यर्थ इष्टिका निर्माण- इष्ट (मोक्ष) साध्य इष्टि (यजन) कुंड हेतु इष्टिका (ईंट) का निर्माण हरिद्वार से प्रयाग तक फैले ‘इष्टापथ’ के जिस भूभाग पर होता था। उसे इष्टिकापुरी नाम दिया गया। हडप्पा व मोहनजोदड़े की खुदाई से ईंट के भवन निर्माण के प्रमाण भले मिले हों, मगर स्रष्टि के प्रारंभ से ही ईंटों का निर्माण होने लगा था। स्वयं प्रजापति ब्रह्मा ने भी यजन किया था। इष्टि (यज्ञ) से संबद्ध यजुर्वेद में ‘‘इष्ट साध्य इष्टि’’ के महत्व के साथ इष्ट्यर्थ इष्टिका (ईंट) के स्वरूप का भी निर्धारण है। त्रिकोणीय, चतुष्कोणीय, पंचकोणीय, सप्तकोणीय, नवग्रहीय आदि इष्टिका निर्माण व उनको अभिमंत्रित करने व यज्ञ-कुंड में प्रयोग का वैशिष्ट्य विधान है। इष्टिका निर्माण की कार्यशाला ‘‘इष्टिकापुरी’’ का परिवर्तित नाम इटावा है, जो ईंट और अवा शब्दों का संयुक्त रूप हुआ ईंटावा। ईंटावा का तद्भव शब्द इटावा प्रचलन में आया। -दुर्दान्त अभयारण्य- स्रष्टि के प्रारम्भिक दौर में युग युगान्तर सूर्यसुता कालिन्दी की तलहटी का यह भूभाग दुर्दान्त अभयारण्य रहा। यमुना के दक्षिण व उत्तर दिशा में लगभग 10 कोस की यह पट्टी निशाचरी-भूभाग के रूप में जानी गई। स्वयं प्रजापति ब्रह्मा ने यहीं तप बल से सृष्टि प्रारंभ की। धर्मशास्त्रों के अनुसार यहीं चर्मण्वती नदी (चंबल) के उत्तर व यमुना के दक्षिण में ब्रह्मा जी ने तपस्या की। यज्ञ के धुएं से ऋषि ‘धूम’ प्रकट हुए। ऋषि ‘धूम’ के पुत्र महर्षि धौम्य हुए जिनका आश्रम चतुर्दिक वाहिनी यमुना के तट पर था वहां उन्होंने शिव की उपासना की वह स्थान आज भी धूमेश्वर महादेव के रूप में प्रख्यात है। -दुर्दांत अरण्य की प्रथमबस्ती चक्रांकानगरी- दुर्दान्त अभयारण्य में दूर-दूर आदिवासियों ने अपने बसेरे बनाये। सुरक्षा की दृष्टि से कालिन्दी व चर्मण्वती नदी के दोआब में नगर बसा जिसका नाम था चक्रांकानगरी जहां रामायण काल में राजा सुबाहु का शासन था। पद्म पुराण के अनुसार अयोध्या नरेश श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा कहीं नहीं पकड़ा गयाए मगर यहां राजा सुबाहु के पुत्र दमनक ने पकड़ा था। शत्रुघ्न की सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ। क्रौंच व्यूह की रचना की गई। युद्ध में सुबाहू के दो पुत्र मारे गये। बाद में सुवाहु ने समर्पण कर दिया और अपनी सेना का शत्रुघ्न की सेना में विलय कर दिया। चक्रांकानगरी ही इकचक्रानगरी पद्मपुराण में जिस चक्रांकानगरी का उल्लेख है वहीं महाभारत काल की इकचक्रानगरी है। जब पांडव लाक्षागृह अग्निकांड से सुरक्षित निकलकर छद्मवेश में भूमिगत हो गये थे, तब वे कहीं और नहीं। यहीं इकचक्रानगरी में एक ब्राह्मण के घर में माता कुंती के साथ ठहरे थे। यहीं भीम ने बकासुर का बध किया। जहां आज बकेवर नगर बसा है। अर्जुन पांचाल की राजधानी कंपिल में स्वयंबर से द्रोपदी को लेकर इकचक्रानगरी लौटे और माताजी ने देखे बिना कह दिया जो लाओ हो पांचों भाई आपस में बांट लो। चूकि यहां पांडव भिक्षावृत्ति पर केंद्रित थे अतः कुंती ने भिक्षार्जित सामग्री बांटने की बात कही थी किन्तु मां के आदेश पर द्रोपदी पांचों भाइयों की धर्मपत्नी हुई। अज्ञातवास के दौरान भी पांडवों ने इसी दुर्दांत इलाके में प्रवास किया। यहीं हिडिम्ब का बध कर भीम ने राक्षस भगिनी हिडिम्बा से विवाह किया, यहीं घटोत्कच का जन्म हुआ। -प्राचीन शिक्षाकेन्द्र हुआ धौम्य आश्रम- चतुर्दिक वाहिनी यमुना के तटपर महर्षि धौम्य का आश्रम एक लंबे अंतराल तक शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा जहां दूर-दूर से वटु विद्याध्ययन के लिए आते थे। आरुणि और उद्दालक ने यहीं शिक्षा ग्रहण की। चैमास में लगातार हुई जलवृष्टि से खेत की उपजाऊ मिट्टी को बहपे से राकने को मेड़ बांधंने का गुरु धौम्य ने आरुणि को आदेश दिया। पानी का बहाव इतना तेज था कि आरुणि के प्रयास विफल रहे तो वह स्वयं मेड़ के सहारे लेट गया और रात भर लेटा रहा। पानी बंद होने पर गुरु और शिष्यों ने आरुणि की खोज की। वह साक्षात् मेड़ बना अचेत पड़ा मिला। आरुणि की गुरुभक्ति की गाथा पुराणों में मिलती है। कठोपनिषद् में नचिकेता प्रसंग भी उद्दालत से जुड़ा है। -सत् का रहस्य इसी धरा से उद्घाटित हुआ- महर्षि धौम्य ने अपने शिष्यों को सत् स्वरूप की परा विद्या दी, इस तरह सत् का रहस्य इसी धरा से उद्घाटित हुआ। ब्रह्मविद्या-विशारद पंडित आरुणी ने अपनेे पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। एक दिन आरुणी ने श्वेतकेतु से कहा- बेटा, किसी आश्रम में जाकर तुम ब्रह्मचर्य की साधना करो और वेदों का वहां पर गहरा अध्ययन करो। हमारे कुल की परंपरा यही रही है। कोई भी हमारे वंश में केवल ‘ब्रह्मबंधु’ होकर नहीं रहा। ब्रह्मबंधु यानी ब्राह्मणों का केवल संबंधी, स्वयं वेदों को न जानने वाला। कुमार श्वेतकेतु एक आचार्य के गुरुकुल में गया। 12 वर्ष तक वह वहां रहा। वेद-पारंगत होकर लौटा। अपनी वेद-विद्या का उसे बड़ा गर्व हो गया। पिता आरुणी ने एक दिन उसे बुलाकर पूछा- बेटा, तेरे गुरु ने क्या वह रहस्य भी बताया कि जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है। श्वेतकेतु वह नहीं जानता था। वह स्तब्ध रह गया। उसने नम्रतापूर्वक पिता से पूछा- ऐसा वह रहस्य क्या है? मेरे आचार्य ने उसे नहीं बताया। तब, आरुणी ने उस रहस्य के विषय में श्वेतकेतु को प्रवचन किया- ‘‘प्रारंभ में केवल सत् था, केवल एक, और अद्वितीय। सत् से ही सब-कुछ बना है। वह कारण है और यह सब कुछ, सारा जगत् समस्त ब्रह्मांड उसका कार्य है। बिना कारण के कार्य नहीं होता? सत् से ही सब-कुछ बना है। उसमें से सब कुछ निकला है और उसी में सब लीन हो जाता है।’’ श्वेतकेतु को उदाहरण दे-देकर आरुणी ने समझाया- ‘‘कुछ नदियां पूर्व की ओर बहती हैं और कुछ पश्चिम की ओर। किंतु वे नदियां बनीं कैसे? समुद्र से जो भाप उठी थी, उसी से वर्षा हुई और वे नदियां बन गईं। वह पानी बह-बहकर समुद्र में पहुंचा। समुद्र में पहुंचकर उन नदियों का पानी क्या यह जानता है कि मैं अमुक नदी का पानी हूं।’’ सत् से जो उपजा वह नहीं जानता कि उसकी उत्पत्ति सत् से हुई है। यह बड़ा सूक्ष्म तत्व है। अणु के अंदर जो तत्व छिपा हुआ है, उस अव्यक्त को कौन जानता है? परंतु वह है। सत् को कौन नकार सकता है? श्वेतकेतु! तू वही सत् है, तू वही है-‘‘तत्वमसि’’। मेरी बात को यदि ठीक तरह से न समझा हो, तो जा, वटवृक्ष का एक फल उठा ला। श्वेतकेतु फल उठा लाया। पिता के कहने से उसने उसे तोड़ा। उसके अंदर बहुत सारे छोटे-छोटे बीज दिखाई दिए। पिता के कहने पर उसने फिर एक बीज को भी तोड़ा। क्या देखता है श्वेतकेतु! इस तोड़े हुए बीज के अंदर? कुछ भी तो नहीं दिख रहा है इसके अंदर, पिताजी! इसके अंदर से ही तो वत्स इतना विशाल वटवृक्ष बना है। हां, जिसके अंदर ‘कुछ भी नहीं’ दिखता है, उसी में से तो। इस ‘कुछ नहीं’ में ही ‘सब कुछ’ समाया हुआ है, पर वह दिख नहीं रहा। अत्यंत सूक्ष्म है वह। स्थूल उसे पकड़ नहीं सकता। श्वेतकेतु आज रात एक कटोरी में पानी भर देना और उसमें नमक की एक डली डाल देना। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया। दूसरे दिन प्रातः आरुणी ने पूछा- देख नमक की वह डली कटोरी में कहां पड़ी हुई है? वह तो मुझे कहीं नहीं मिल रही है। कटोरी के नीचे के भाग से एक चम्मच पानी अपने मुंह में डालकर बता कि वह कैसा है? नमकीन है। पिताजी! मैं समझ गया कि वह डली कटोरी में सारे ही पानी में, नीचे के, बीच के और ऊपर के पानी में मिलकर एकाकार हो गई हैं। यह उसके स्वाद से मालूम हुआ, पर वह दिख नहीं रही है। आरुणी जो समझाना चाहता था उसे श्वेतकेतु समझ गया। नमक की डली नष्ट नहीं हुई थी। उसका केवल रूप बदल गया था। आरुणी बोले- ‘‘इस प्रकार वह सत्, जिससे यह सब कुछ बना है, देखने में नहीं आता, पर वह सभी वस्तुओं और प्राणियों में विद्यमान है। श्वेतकेतु! मुझे प्रसन्नता है कि तूने उस सत् के रहस्य को समझ लिया। -प्रेतात्मा का किया उद्धार- महर्षि धौम्य सदैव परहित में ही संलग्न रहते थे, उन्होंने स्वयं अपरा एकादशी व्रत रहकर पे्रतात्मा का उद्धार किया। अपरा एकादशी की प्रचलित कथा के अनुसार प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई से द्वेष रखता था। उस पापी ने एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को इष्टापथ में एक जंगली पीपल के नीचे गाड़ दिया। इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक उत्पात करने लगा। एक दिन अचानक महर्षि धौम्य उधर से गुजरे। उन्होंने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत को जान लिया। अपने तपोबल से प्रेत उत्पात का कारण समझा। महर्षि ने प्रसन्न होकर उस प्रेत को पीपल के पेड़ से उतारा तथा परलोक विद्या का उपदेश दिया। दयालु महर्षि धौम्य ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपरा एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई। वह महर्षि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया।
-सूर्योपासना से द्रोपदी ने पाया अक्षय-पात्र- लाक्षागृह अग्निकांड से सुरक्षित निकलकर पाण्डवों के प्रवास से ही महर्षि धैम्य का सानिध्य धर्मराज युधिष्ठिरादि पाण्डवों को मिल चुका था। अज्ञातवास के दौरान पांडवों को महर्षि धौम्य ने पराविद्या शिखाई और द्रोपदी को परमेश्वर के अंशांश रूप भगवान भास्कर के महत्व की दीक्षा दी तथा सूर्योपासना का संदेश दिया। द्रोपदी की तपश्चर्या से प्रसन्न होकर सूर्य नारायण ने अक्षय पात्र प्रदान किया। तुलसीदास और इष्टिकापुरी! रामचरित मानस के लंकाकाण्ड की रचना पं नीलकंठ भट्ट को भरेह नरेष के आश्रय में भेजना तुलसी के मानस का संस्कृत में काव्यानुवाद इष्टसाध्य इष्टापथ के केन्द्र-बिन्दु इष्टिकापुरी से सन्तकवि गोस्वामी तुलसीदास का अटूट रिश्ता रहा है, इस तुलसी के इष्टसाध्य सम्बंध का साधन (निमित्तमात्र) स्वयं सत् स्वरूप पूर्णावतार श्रीराम और प्रधान प्रकृति स्वरूपा जनकनंदनी बैदेही ही मानी जा सकती है, जिन्होंने रामभक्त तुलसी बाबा को रामचरित मानस रूपी परमपिता परमात्मा के निर्गुण तत्व (साफ्टवेयर) अंतश्चतुष्टय में मुख्य ‘अहंकार’ वत् लंकाकाण्ड की रचना यहीं की। सप्त सोपानी मानस परमपिता परमात्मा का साक्षात् वांग्मय मूर्तिरूप है। मानस के प्रथम व द्वितीय सोपान बालकांड - अयोध्याकाण्ड सगुण तत्व (हार्डवेयर) के अंतर्गत ज्ञानेन्द्रियां कर्मेन्द्रियां सहित समस्त अंग-प्रत्यंग हैं, जबकि 4 सोपान अंतश्चतुष्टय (साफ्टवेयर) क्रमशः अरण्यकाण्ड-मन, किष्किंधाकाण्ड- चित्त, सुन्दरकाण्ड- बुद्धि और लंकाकांड-अहंकार हैं। सप्तम् सोपान उत्तरकाण्ड साक्षात् आत्मतत्व है, जो जीवात्मा-परमात्मा के एकीभाव (अष्टांगयोग की पूर्णता स्वरूप समाधि) परमानंद की अनुभूति है। योग की दृष्टि से देखें - तो सप्तसोपान मानस ही अष्टांगयोग है। बालकांड का पूर्वार्द्ध (रामावतार प्रसंग से पूर्व) यम है, उत्तर्रार्द्ध (रामावतार प्रसंग से से अंत तक) नियम है। अयोध्याकाण्ड साक्षात् आसन, अरण्यकाण्ड - प्राणयाम, किष्किन्धाकांड-प्रत्याहार, सुन्दरकाण्ड - धारणा, लंकाकाण्ड-ध्यान और उत्तरकाण्ड साक्षात् समाधि है। इस तरह इष्टिकापुरी में सूर्यतनया एवं धर्मराज यम की भगिनी यमुना और चर्मण्वती (चम्बल) के मध्यस्थ भरेह में हनुमच्छिष्य श्रीराम भक्त बाबा तुलसी ने अंतश्चतुष्टय के प्रमुखांश अहंकार के ध्यानयोग से सिद्ध किया तब प्रकट हुआ लंकाकाण्ड। यानी लंकाकाण्ड की रचना हुई। बताया जाता है कि मुगल बादशाह अकबर के आमंत्रण से बाबा तुलसीदास गये थे, किन्तु उन्होंने मुगल शासक की प्रश्रयाग्रह ठुकरा दिया था और नौका द्वारा जल मार्ग से लौट रहे थे, आषाढ़ का महीना प्रारम्भ हो चुका था। जैसे महर्षि धौम्य की तपोभमूमि पर चतुर्दिक वाहिनी यमुना पहुंचे तो बादल आने लगे, बाबा को अहसास हुआ चातुर्मास आ रहा है। देवशयनी एकादशी को उनकी नौका भरेह पहुची तो वही रोक लिया और बीहड़ांचल में चैमास बिताने का संकल्प लेकर भरेह में रुक गये। इस तरह देवशयनी से देवोत्थानी एकादशी तक गोस्वामी तुलसीदास ने चातुर्मास करते हुए यहां प्रवास किया और इस अवधि में लंकाकाण्ड का लेखन किया। इस दौरान भरेह नरेश महाराज भगवन्त राय उनके अंतरंग प्रशंसक हो गये थे। कार्तिकी पूर्णिमा को बाबा अपने सहयोगियों के साथ नौका लेकर आगे बढ़ गये। मानस की रचना पूर्ण हो चुकी थी, बाबा तुलसी चित्रकूट, अयोध्या और काशी स्वरूप त्रिगुणात्मक तीर्थ भ्रमण करते रहे। काशी में भरेह नरेश महाराज भगवन्त राय ने मानस प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास से भेंट की और भरेह में ही शेष जीवन दबिताने का आग्रह किया। बाबा ने अपने मित्र वज्योतिर्विज्ञान के प्रकाण्ड मनीषी पं. नीलकंठ भट्ट से परिचय कराया और कहा कि पं. नीलकंठ भट्ट भरेह में मेरा प्रतिनिधित्व करेंगे। भरेह नरेश महाराज भगवन्त राय सम्मान पूर्वक ज्योतिर्विज्ञान के प्रकाण्ड मनीषी पं. नीलकंठ भट्ट को लेकर भरेह आ गये। भरेह नरेश के नवरत्नों में पं. नीलकंठ भट्ट को प्रमुख पद प्राप्त हुआ। पं. नीलकंठ भट्ट ने भरेह नरेश के राज्याश्रय में श्रेष्ठतम ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की और उसका नाम भरेह नरेश के ही नाम पर ‘‘भगवन्त भास्कर’’ रखा। उसके साथ ही उन्होंने मयूखों की रचना की। इनमें ‘‘व्यवहार मयूख’’ नागरिक संहिता ग्रन्थ के रूप में प्रमुख माना जाता है, जिसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में कई राज्यों के हिन्दू पर्सनल लाॅ में कोड किया गया है। बाबा तुलसी के रामचरित मानस की दिव्य-आभा, इष्टसाध इष्टापथ के केन्द्र बिन्दु इष्टिकापुरी की प्रामाणिकता का आधार बनता चला गया। लगभग 200 साल बाद वैष्णव सन्त स्वामी गोविन्दवर दास के परमशिष्य श्रीमन्नारायणाचार्य जी ने बाबा तुलसी के रामचरित मानस का देववाणी संस्कृत में काव्यानुवाद किया। प्रत्येक चैपाई और दोहे को श्लोकों में बदल यिा गया। संस्कृत में अनूदित रामचरित मानस अनुपलब्ध थी, किन्तु श्रीनारायण चतुर्वेदी को सुन्दरकाण्ड की पांडुलिपि मिल गई, और वह न केवल प्रकाशित हुई बल्कि सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के मध्यमा के अनिवार्य हिन्दी विषय के पाठ्यक्रम में शामिल हुई आज भी वह उ.प्र. माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद के पूर्वमध्यमा एवं उत्तरमध्यमा में पढ़ाई जा रही है। पिलुआ वाले महावीर: जो कभी नहीं होते तृप्त इटावा जिला मुख्यालय से ढाई-तीन कोस पश्चिम में कालिन्दी के तट पर प्रसिद्ध पिलुआ वाले महावीर है,विश्राम मुद्रा में लेटे हुये,बजरंग बली की इस प्रतिमा का यह रहस्य शदियों से बना हुआ है कि आखिर हनुमंत लाल के मुंह खिलाया जाना दूध-मिष्ठान्न आदि खाद्य-पदार्थ कहां जाता है? महाभारत महाकाव्य में उल्लेख है घ्घ्पुनः इष्टापथं ययौ।घ्घ् पांडव बार-बार इष्टापथ आये, लाक्षागृह से बचते हुए पांडव अभयारण्यस्थ इकचक्रानगरी में आकर एक ब्राह्मणी के षर में रहे यहीं जंगल में भीम ने हिडिम्बादि असुरों का संहार किया और हिडिम्बा से विवाह किया, जिससे घटोत्कच पैदा हुआ था, इसी क्षेत्र में वकासुर का भीम ने बध किया। महाकवि भास का नाटक घ्घ्मध्यमव्यायोगघ्घ् का कथानक इसी क्षेत्र से सम्बद्ध है। तत्संबन्धी एक कथानक के अनुसार भीम-हिडिम्बा यमुना के किनारे विहार कर रहे थे,कुल-पुरोहित महर्षि धौम्य के आश्रम से होते हुए यह पराक्रमी दम्पति पश्चिम को बढ़ते गये। पुरोहित के आश्रम से लगभग ढाई कोस ही आगे निकले थे कि रास्ते में हनुमान जी अपनी पूंछ फैलाये लेटे हुए आराम कर रहे थे,भीम ने प्रणाम किया और रास्ते से पूंछ हटाने का अनुरोध किया। हनुमानजी ने कहा- बेटा मेरी पूंछ पीछे कर दो,और निकल जाओ। सोलह हजार हाथियों की ताकत रखने वाले भीम हनुमानजी की पूछ तिलभर भी नहीं हटा पाये और हार गये। इतने में हनुमान जी ने कहा- बेटा! प्यास लगी है, पानी पिला दो। भीम यमुना से कलश भर कर लाते रहे,और पिलाते रहे। पानी पिलात-पिलाते भीम थक गये,लेकिन बजरंगबली तृप्त नहीं हुए। पतिव्रता हिडिम्बा ने अपने हाथ से यमुना जल भरकर कलश लाई और सश्रद्धा निवेदन किया- जेठजी! आप अपनी अनुजवधू के हाथ से जल ग्रहण कर तृप्त हो जाओ। (हनुमान और भीम पवनपुत्र हैं लिहाजा दोनों भाई हुए) हिडिम्बा के जल पिलाते ही बजरंगवली तृप्त होकर बैठ गये और पूंछ समेट ली,बोले-घ्घ्बेटी! दंभ ही अनर्थ का कारण होता है दंभ शक्ति को क्षीर्ण कर देती है,ईश्वरीय प्रेरणा से अपने छोटे भाई का दंभ दूर करना था। मेरा आशीर्वाद है- विजयी हो।घ्घ् यह कहकर बजरंगबली फिर लेट गये। भीम-हिडिम्बा से श्रद्धापूरक पूजा की और आगे बढ़ गये। कालांतर में राजा सुमेर शाह के वंशज राजा प्रतापशाह ने अपनी राजधानी इटावा की बजाय निकटवर्ती प्रतापनेर स्थानान्तरित की, तब राजा को स्वप्न हुआ कि हनुमान जी कह रहे थे मेरा दिव्य विग्रह (मूर्ति) टीले से निकालो। खुदाई हुई लेटे हुए हनुमान की प्रतिमा मिली जिसे पिलुआ के पेड़ की जड़ पर स्थापित कर दिया गया। तीसरी पीढ़ी कि राजा लोकेन्द्र सिंह ने भव्य मंदिर बनवाया। पिलुआ वाले हनुमान मंदिर के पीठाधीश्वर महंत स्वामी हरभजन दास बताने हैं -घ्घ्लेटे हुए हनुमान यहीं पिलुआ के पड़ की जड़ से प्रकट हुए थे। प्राचीनकाल में प्रतापनेर के राजा हुकुमतेजप्रताप सिंह चैहान को सपना हुआ कि मै पिलुआ की जड़ से जिस मुद्रा में प्रकट हुआ हूं, उसी मुद्रा में मेरी पूजा-सेवा की व्यवस्था करो। राजा ने परीक्षा के तौर पर राज्य भर का दूध मकाकर हनुमान जी को पिलाया लेकिन वे तृप्त नहीं हुए।घ्घ् सिद्ध स्थल के रूप में पिलुआ वाली महावीर की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती गई। मान्यता है कि जो भी व्यंक्ति अहंभाव का त्याग कर दास्यभक्ति-भाव से लड्डू, बूंदी, दूध आदि का भोग लगाता है चोला चढाता है उसकी प्रत्येक मनोकामना हनुमान जी पूरी करती हैं। यहां बुढ़वा मंगल को लक्खी मेला लगता है और बसन्त ऋतु में मारुति महायज्ञ भी होता हैं। मंदिघ्र परिघ्सर में सैकड़ों भक्त श्रद्धा भाव से हर रोज आते रहते हैं।
-mahakavi DEV- (जन्म- सन् 1673, इटावा - मृत्यु- सन् 1768) रीतिकालीन कवि थे। श्भावविलासश् का रचना काल इन्होंने 1746 में दिया है और उस ग्रंथ निर्माण के समय इन्होंने अपनी अवस्था 16 ही वर्ष की बतलाई है। इस प्रकार से इनका जन्म संवत 1730 के आसपास का निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और वृत्तांत कहीं प्राप्त नहीं होता। इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से काल यापन किया हो। ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमे नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता रही या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य। देव ने अपने श्अष्टयामश् और श्भावविलासश् को औरंगजेब के बड़े पुत्र श्आजमशाहश् को सुनाया था जो हिन्दी कविता के प्रेमी थे। इसके बाद इन्होंने श्भवानीदत्ता वैश्यश् के नाम पर श्भवानी विलासश् और श्कुशलसिंहश् के नाम पर श्कुशल विलासश् की रचना की। इसके बाद श्मर्दनसिंहश् के पुत्र श्राजा उद्योत सिंह वैश्यश् के लिए श्प्रेम चंद्रिकाश् बनाई। इसके उपरांत यह लगातार अनेक प्रदेशों में घूमते रहे। इस यात्रा के अनुभवों का इन्होंने अपने श्जातिविलासश् नामक ग्रंथ में उपयोग किया। इस ग्रंथ में देव ने भिन्न भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन किया है। इस प्रकार के वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हों, ऐसा नहीं है। इतना घूमने के बाद इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता श्राजा मोतीलालश् मिले, जिनके नाम पर संवत 1783 में इन्होंने श्रसविलासश् नामक ग्रंथ बनाया। जिसमें इन्होंने श्राजा मोतीलालश् की बहुत प्रशंसा की है- मोतीलाल भूप लाख पोखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खघ्रीदे हैं। रचनाएँ-देव अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर दूसरे क्रम में रखकर एक नया ग्रंथ प्रायरू तैयार कर दिया करते थे। इससे एक ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। श्सुखसागर तरंगश् प्रायरू अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। श्रागरत्नाकरश् में राग रागनियों के स्वरूप का वर्णन है। श्अष्टयामश् तो रात दिन के भोगविलास की दिनचर्या है जो उस समय के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन विधि का ब्योरा पेश करने के लिए बनी थी। श्ब्रह्मदर्शन पचीसीश् और श्तत्वदर्शन पचीसीश् में जो विरक्ति का भाव है वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो। देव आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीति काल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्य शास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धांत निरूपण का मार्ग नहीं पा सके। एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ, विचार पद्धति के उत्कर्ष साधन के लिए यह भाषा तब तक विकसित नहीं थी, दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परम्परा थी। अतरू आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं मिल पाया। कुछ लोगों ने भक्तिवश इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना का श्रेय देना चाहा। नैयायिकों की श्तात्पर्य वृत्तिश् बहुत समय से प्रसिद्ध चली आ रही थी और यह संस्कृत के साहित्य मीमांसकों के सामने थी। श्तात्पर्य वृत्तिश् वाक्य के भिन्न भिन्न पदों (शब्दों) के श्वाच्यार्थश् को एक में समन्वित करने वाली वृत्ति मानी गई है अतरू यह श्अभिधाश् से भिन्न नहीं, वाक्यगत अभिधा ही है। श्छलसंचारीश् संस्कृत की श्रसतरंगिणीश् से लिया गया है। दूसरी बात यह है कि साहित्य के सिद्धांत ग्रंथों से परिचित मात्र जानते हैं कि गिनाए हुए 33 संचार उपलक्षण मात्र हैं, संचारी और भी कितने ही हो सकते हैं। अभिधा, लक्षणा आदि शब्दशक्तियों का निरूपण हिन्दी के रीति ग्रंथों में प्रायरू कुछ भी नहीं हुआ। इस दृष्टि से देव का कथन है कि-
अभिधा उत्तम काव्य हैय मध्य लक्षणा लीन। अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन
देव का श्व्यंजनाश् से तात्पर्य श्पहेली बुझाने वालीश् श्वस्तुव्यंजनाश् का ही जान पड़ता है। कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में बहुत थी पर उनके सम्यक स्फुरण में उनकी रुचि बाधक रही है। अनुप्रास की रुचि उनके सारे पद्य को बोझिल बना देती थी। भाषा में स्निग्ध प्रवाह न आने का एक बड़ा कारण यह भी था। इनकी भाषा में श्रसाद्रताश् और सरलता बहुत कम पायी जाती है। कहीं कहीं शब्दव्यय बहुत अधिक है और अर्थ बहुत अल्प। अक्षरमैत्री के ध्यान से देव कहीं कहीं अशक्त शब्द भी रखते थे जो कभी कभी अर्थ को अवरुद्ध करते थे। श्तुकांतश् और श्अनुप्रासश् के लिए देव कहीं कहीं ना केवल शब्दों को ही तोड़ते, मरोड़ते और बिगाड़ते बल्कि वाक्य को भी अविन्यस्त कर देते थे। जहाँ कहीं भी अभिप्रेत भाव का निर्वाह पूरी तरह हो पाया है, वहाँ की रचना बहुत ही सरस बन पडी है। देव के जैसा अर्थ, सौष्ठव और नवोन्मेष कम ही कवियों में मिलता है। रीति काल के प्रतिनिधि कवियों में सम्भवतरू सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 और कोई 72 तक बतलाते हैं। इनके निम्नलिखित ग्रंथों का पता है- देव की प्रमुख रचनाएँ क्रम ग्रंथों का नाम (1) भावविलास (2) अष्टयाम (3) भवानीविलास (4) सुजानविनोद (5) प्रेमतरंग (6) रागरत्नाकर क्रम ग्रंथों का नाम (7) कुशलविलास (8) देवचरित (9) प्रेमचंद्रिका (10) जातिविलास (11) रसविलास (12) काव्यरसायन या शब्दरसायन क्रम ग्रंथों का नाम (13) सुखसागर तरंग (14) वृक्षविलास (15) पावसविलास (16) ब्रह्मदर्शन पचीसी (17) तत्वदर्शन पचीसी (18) आत्मदर्शन पचीसी क्रम ग्रंथों का नाम (19) जगदर्शन पचीसी (20) रसानंद लहरी (21) प्रेमदीपिका (22) नखशिख (23) प्रेमदर्शन
-उत्तर का पद्मनाभ मंदिर- भारतीय संस्कृति में धर्म का एक विशेष महत्त्व रहा है और इसीलिए दान का भी महत्त्व रहा है। हमारे मंदिरों की सम्रद्धि सदैव से लुटेरों के आक्रमण का केंद्र रही है! पहले मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सोमनाथ मंदिर को कई बार लूटा और अब इस्लामिक और ईसाई गठबंधन केरल के पद्मनाभ मंदिर को लूट रहा है, और देश के हिन्दू ये देख ही नहीं पा रहे हैं कि उनकी संपत्ति को छिना जा रहा है जो कि बाद में इस्लाम और ईसाइयत के प्रचार में लगाई जाएगी। उत्तर भारत में काशी विश्व्नाथ मंदिर, रामजन्मभूमि और कृष्ण जन्मस्थल आदि स्थानों पर हुए मुगल आक्रमण इतिहास के पन्नों में उलटफेर कर दर्शाये जाते रहे। दूसरी ओर उत्तर भारत का एक ऐसा भी मंदिर है जिसे संपदा के अनुसार उत्तर का पद्मनाभ मंदिर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह है इष्टिकापुरी (इटावा) का नरसिंह मंदिर अस्तल, जिसकी अकूत संपदा घ्घ्रहस्यघ्घ् है। काफी कुछ महंत परंपरा के चलते खुर्द-बुर्द हो चुकी है, इनमें बेशकीमती आभूषण और कई जिलों में फैली अचल संपदा है। यहां भी अकूत संपदा को लूटने को आलमगीर औरंगजेब आया था, लेकिघ्न ईश्वरीय चमत्कार के आगे औरंगजेब नतमस्तक हो गया और उसने मंदिर तोड़ने का इरादा बदल दिया और वार्षिक वजीफे का राजाज्ञा पत्र दिया, जो आज भी है। लंबे समय तक वजीफा मिलता रहा और वैष्णव भक्तों की श्रद्धा-भक्ति से निरंतर संपदा बढ़ती गई। इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि रामानुज वैष्णव संप्रदाय का मंदिर 11 वीं शताब्दी का है, रामानुजाचार्य का जीवन परिचय कुछ यूं है- 1017 ई. में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली, रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया थारू- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया, फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। 1137 ई. में वे ब्रह्मलीन हो गए। रामानुजाचार्य घ्घ्रामानुज वैष्णव संप्रदाय के प्रणेता है, अतः यह मंदिर संभवतः 11 वीं शताब्दी में बनाया गया होगा। इष्टिकापुरी (इटावा) के नरसिंह मंदिर अस्तल की ख्याति समूचे भूमंडल में थी, तभी तो आलमगीर औरंगजेब ने इस मंदिर पर आक्रमण किया। जन समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिये उसने बाबड़ी पर आकाश में चटाई बिछाकर नमाज पढ़ने का चमत्कार दिखाया। नरसिंह मंदिर अस्तल के महंत त्रिकालदर्शी भिड़ंग ऋषि उस समय यमुना स्नान कर रहे थे, उन्हें जैसे ही आक्रमण की अनुभूति हुई, वैसे ही मृगछालासन और कमंडल लेकर दौड़ते हुए आये और बोले - घ्घ्रे धूर्त! बंदकर ये तमाशा।घ्घ् औरंगजेब ने जवाब दिया- घ्घ्तूझमें ईश्वरीय शक्ति है तो दिखा चमत्कार, मै औरंगजेब हूं। बुत (मूर्तिपूजा) ढोंग है...घ्घ् वह कुछ और कहता मगर क्रोध में ऋषि भिड़ंग ने मृगछाला निकटवर्ती कुएं पर आकाश में फैला दी। ऋषि अपने आसन पर चढ़े ही थे, औरंगजेब चटाई सहित वाबड़ी (तालाब) पर जा गिरे मगर डूबे नहीं। ऋषि ने आकाश में बिछे आसन पर संध्या प्रारंभ करते हुए कहा- घ्घ् बोल डुबो दूं?घ्घ् हाथ में यमुना जल लेकर संकल्प मंत्र पढ़ना शुरू किया तो औरंगजेब चटाई सहित तालाब में डूबने लगा। मुंह से निकला - घ्घ्बाबा! बचाओ। बचाओ!!घ्घ् मंत्र पूरा होने वाला था, ऋषि भिड़ंग ने संकल्प का रूप बदल दिया-घ्घ्..... आक्रांतायाः जीवन रक्षणार्थं नभे संध्यां करिष्ये।घ्घ् औरंगजेब चटाई सहित अपने आप जल से जमीन पर आ गये चारों ओर राधे-राधे गान होने लगा, औरंगजेब भी गाने लगा। संध्या पूरी होते ही औरंगजेब ऋषि के समक्ष नतमस्तक हुआ, उसने मंदिर को तोड़ने की इच्छा त्यागते हुए तत्काल नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा को नियमित रूप से आर्थिक सहायता (वजीफा) देते रहने का लिखित हुक्मनामा दिया। यह हुक्मनामा मंदिर के गर्भगृह के समक्ष स्थापित मानस्तंभ पर आज तक सुरक्षित है। नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा में ऋषि भिड़ंग के बाद उनके शिष्य गोपाल दास महंत हुए। एक सहस्राब्दी तक नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा में महंत ही सर्वेसर्वा होते थे। 1911 में महंत रामप्रपन्न रामानुज ने विचार किया- हो न हो आने आले महंत निष्ठावान न रह पायें और स्वार्थ पूर्ण महत्वाकांक्षा में मंदिर की गरिमा शैलीन गिरा दें। उन्होंने वसीयत की - घ्घ्नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा की सारी चल-अचल संपत्ति भगवान नरसिंह महाराज की होगी, व्यवस्था संचालन के लिए ट्रस्ट बनाया जाये, जो महंत को समुचित दिशा निर्देश देता रहे। वसीयत के आधार पर महंत रामप्रपन्न रामानुज ने प्रथम ट्रस्ट बनाया जिसके अध्यक्ष राजा नरसिंह राव बनाये गये, 5 ट्रस्टी थे। चूंकि राजा नरसिंह राव लखना स्टेट के उत्तराधिकार मसले पर प्रीमो सुप्रीम कोर्ट लंदन में बैरिस्टर मोतीलाल नेहरू और ज्योती शंकर दीक्षित के साथ व्यस्त थे, लिहाजा नरसिंह मंदिर अस्तल, इटावा के ट्रस्ट पर कम ध्यान दे पाये। परंपरानुरूप महंत सर्वेसर्वा रहे। ट्रस्ट अस्तित्व में रहे, मगर मोनोपॉली महंतों की चलती रही। महंत जगदीश नारायण, नरसिंह मंदिर अस्तल के 11 वें महंत र्हैं मंदिर की संपदा खुर्द-बुर्द होती रही। महंत जगदीश नारायण 57 वर्ष से महंत पद पर हैं। 1965 में ट्रस्ट के अध्यक्ष राजाराम चैधरी ने एडवोकेट जनरल से परामर्श करते हुए अनुमति मांगी। 1966 में मुकदमा किया, सात वर्ष बाद 1973 में फैसला आया और प्राप्त आवेदनों के आधार ट्रस्ट घोषित किया, राजाराम सहित कई ट्रस्टी काल कवलित हो चुके हैं, लिहाजा अटल बिहारी चैधरी 205 लालपुरा इटावा को अध्यक्ष और ब्रजेश दुबे, भगवानदास शुक्ला, जगदीश गुप्ता, राम अवतार तुलसीपुरा और सुरेंद्र कुमार (जालौन) को अध्यक्ष घोषित किया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मुकदमा नं0 323ध्1973 के 6-1-2010 के निर्णय में ट्रस्ट का अनुमोदन हुआ। 13 मई 2012 को ट्रस्ट की आमसभा हुई। घ्अस्तलघ् शब्द की पहचान आज अस्तल पुलिस चैकी के रूप में है। पहले अस्तल वार्ड था और अस्तल अखाड़ा था। उत्तर भारत में दक्षिण के पद्मनाभ मंदिर की तरह अकूत संपदा वाला अस्तल मंदिर भी है, यकीन नहीं होता। हो भी तो कैसे, नई और युवा पीढ़ी ने मंदिर देखा ही नहीं। अस्तल में मजबूत चहारदीवारी वाले तीन परकोटों के अंदर नरसिंह महाराज मंदिर का गर्भगृह है, बिल्कुल उसी शैली में जैसा वृन्दावन में रंगनाथ मंदिर चार परकोटों में है। कुछ समय पहले यहां 2-3 स्कूल थे। गौशाला थी, अखाड़ा था, मनमोहक बगीचा था, नरसिंह क्लब द्वारा नाटक होते थे। आज यहां तमाम गैराजे हैं जिनमें खड़ी हैं गाड़ियां, दो धान मील हैं, बहुमंजिली इमारतें और सैकड़ों किरायेदार हैं। बीते 57 वर्ष से महंत बने चले आ रहे जगदीश नारायण ही सर्वेसर्वा हैं अब ट्रस्ट के अस्तित्व में आने से महंतजी व्यथित दिख रहे हैं। -एलेन ओक्टेवियन ह्यूम और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस-
आज 28 दिसम्बर है, 129 वर्ष पहले यानी 1885 को आज ही के दिन आतताई ब्रिटिश हुकूमत के एक अफसर ने भारत की आजादी और स्वराज के लिए एक ‘प्लेटफार्म’ दिया, जो है ‘‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।’’ अंग्रेज अफसर का आखिर हृदय परिवर्तन कैसे हुआ, संस्कृतनिष्ठा और इष्टसाध्य इटावा की अदृश्य ज्योति से! 1829 को इंग्लैंड में जन्में एलेन ओक्टेवियन ह्यूम ब्रिटिश कालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी एवं राजनैतिक सुधारक थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। इसी पार्टी ने भारत की स्वतंत्रता के लिये मुख्य रूप से संघर्ष किया और अधिकांश संघर्षों का नेतृत्व किया। ए. ओ. ह्यूम ने भारत में भिन्न-भिन्न पदों पर काम किया इनमें ‘इटावा का कलक्टर पद’ महत्वपूर्ण है, यही हुए हृदय परिवर्तन ने भारतवर्ष की स्वतंत्रता की नींव रखी। ‘‘ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बफादार व समर्पित हिन्दुस्तानियों का संगठन खड़ा करने की मानसिकता ने इंडियन नेशनल कांग्रेस का खाका भले ही ए. ओ. ह्यूम के दिमाग में खिंचा था, मगर उस वक्त राष्ट्रभक्त हिन्दुस्तानियों के विद्रोही तेवर के आगे ए. ओ. ह्यूम को मुंह की खानी पड़ी, और जान बचाकर महिला के लिवास में जिलामुख्यालय इटावा छोड़कर यमुनापार भागना पड़ा। इस घटना ने कलक्टर का हृदय परिवर्तन कर दिया और दिमाग में ‘ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बफादार व समर्पित हिन्दुस्तानियों का संगठन खड़ा करने खाका स्वतः बदल गया। यही है इष्टसाध्य इटावा की अदृश्य ज्योति का कमाल।’’ यहां उस अदृश्य ज्योति का भी उल्लेख प्रासंगिक है, जिसे गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तक एक लोटा पानी में पढ़ा जा सकता है। ब्रिटिश हुकूमत के ही भरथना के डिप्टी कलक्टर सर सप्रू अपने सेवक के एक दृष्टान्त से विरक्त होकर सिद्ध सन्त खटखटा बाबा हो गये, बाबा की चमत्कारी सिद्धि से प्रभावित होकर ब्रिटिश हुकूमत के ही जिला जज, मैनपुरी भी नौकरी छोड़कर खटखटा बाबा के शिष्य बन गये। इटावा में रहते हुए कलक्टर ए. ओ. ह्यूम कालेज, कोतवाली, जिला परिषद भवन सहित कई इमारतें, अनाज मंडी (जिसे ह्यूमगंज नाम दिया गया) व सड़के बनवाई। किन्तु कदाचार से पूरी तरह विरक्त हो चुके ए. ओ. ह्यूम ने 1882 में अवकाश ग्रहण किया। वरिष्ठ अधिवक्ता स्व. पं. कृष्ण गोपाल चैधरी द्वारा लिखी गई पुस्तक से तमाम रहस्योद्घाटन होते हंै जो मूलतः कलक्टर ह्यूम व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर केन्द्रित है। इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे। ह्यूम ने सन् 1885 में, ब्रिटिश शासन की अनुमति से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया था। कांग्रेस एक राजनैतिक पार्टी थी और इसका उद्देश्य था अंग्रेजी शासन व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी दिलाना। ब्रिटिश पार्लियामेंट में विरोधी पार्टी की हैसियत से काम करना। अब प्रश्न यह उठता है कि ह्यूम साहब, जो कि सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त अफसर थे, को भारतीयों के राजनैतिक हित की चिन्ता क्यों और कैसे जाग गई? सन् 1885 से पहले अंग्रेज अपनी शासन व्यवस्था में भारतीयों का जरा भी दखलअंदाजी पसंद नहीं करते थे। तो फिर एक बार फिर प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों दी ब्रिटिश शासन ने एक भारतीय राजनैतिक पार्टी बनाने की अनुमति? यदि उपरोक्त दोनों प्रश्नों का उत्तर खोजें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीयों को अपनी राजनीति में स्थान देना अंग्रेजों की मजबूरी बन गई थी। सन् 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों की आँखें खोल दी थी। अपने ऊपर आए इतनी बड़ी आफत का विश्लेषण करने पर उन्हें समझ में आया कि यह गुलामी से क्षुब्ध जनता का बढ़ता हुआ आक्रोश ही था जो आफत बन कर उन पर टूटा था। यह ठीक उसी प्रकार था जैसे कि किसी गुब्बारे का अधिक हवा भरे जाने के कारण फूट जाना। समझ में आ जाने पर अंग्रेजों ने इस आफत से बचाव के लिए तरीका निकाला और वह तरीका था सेफ्टी वाल्व्ह का। जैसे प्रेसर कूकर में प्रेसर बढ़ जाने पर सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते निकल जाता है और कूकर को हानि नहीं होती वैसे ही गुलाम भारतीयों के आक्रोश को सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते बाहर निकालने का सेफ्टी वाल्व्ह बनाया अंग्रेजों ने कांग्रेस के रूप में। अंग्रेजों ने सोचा कि गुलाम भारतीयों के इस आक्रोश को कम करने के लिए उनकी बातों को शासन समक्ष रखने देने में ही भलाई है। इसी क्रम में कांग्रेस की स्थापना के ठीक 50वें वर्ष 1935 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ‘‘धारा सभा के गठन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आधार शिला रखनी पड़ी, जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी को सीधे ब्रिटिश हुकूमत के प्रतिनिधि प्रत्याशी से चुनाव लड़ना होता था। 1937 के पहले धारासभा चुनाव में इटावा-भरथना सीट से कांग्रेस प्रत्याशी चै. बुद्धू सिंह ने ब्रिटिश प्रतिनिधि उम्मीदवार लखना नरेश नरसिंह रावको पछाड़ा। ह्यूम के कांग्रेस गठन के प्रस्ताव पर ब्रिटिश पार्लियामेंट की मुहर लगने के सन्दर्भ में कुछ विचारकों का मत यह भी है - ‘‘सीधी सी बात है कि यदि किसी की बात को कोई सुने ही नहीं तो उसका आक्रोश बढ़ते जाता है किन्तु उसकी बात को सिर्फ यदि सुन लिया जाए तो उसका आधा आक्रोश यूँ ही कम हो जाता है। यही सोचकर ब्रिटिश शासन ने भारतीयों की समस्याओं को शासन तक पहुँचने देने का निश्चय किया। और इसके लिए उन्हें भारतीयों को एक पार्टी बना कर राजनैतिक अधिकार देना जरूरी था। एक ऐसी संस्था का होना जरूरी था जो कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारतीयों का पक्ष रख सके। याने कि भारतीयों की एक राजनैतिक पार्टी बनाना अंग्रेजों की मजबूरी थी। किसी भारतीय को एक राजनैतिक पार्टी का गठन करने का गौरव भी नहीं देना चाहते थे वे अंग्रेज। और इसीलिए बड़े ही चालाकी के साथ उन्होंने ह्यूम साहब को सिखा पढ़ा कर भेज दिया भारतीयों के पास एक राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए। इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह भी मिला कि एक अंग्रेज हम भारतीयों के नजर में महान बन गया, हम भारतीय स्वयं को अंग्रेजों का एहसानमंद भी समझने लगे। ये था अंग्रेजों का एक तीर से दो शिकार!’’ - देवेश शास्त्री