सदस्य:Ericjohn919/प्रयोगपृष्ठ
निष्पादन कलाएँ
संपादित करेंनिष्पादन कलाएँ (performing arts) वे कलाएँ हैं जिनमें कलाकर अपनी ही शरीर, मुखमंडल, भाव-भंगिमा आदि का प्रयोग कर कला का प्रदर्शन करते है।दृश्य कला में निश्पादन कला के विपरीत कलाकार अपनी कला का उपयोग कर भौतिक वस्तुऍँ बनाते है, जैसे कि एक चित्र या शिल्प।निश्पादन कला के अन्तर्गत कई कलाऍँ मौजूद है, इन सब में साम्यता यह है कि इन्हें प्रत्यक्ष रूप से दर्शकों के सामने प्रदर्शित किया जा सकता है।
निष्पादन कला के विभिन्न प्रकार
संपादित करेंनिष्पादन कला के अन्तर्गत मूल रूप से नृत्य, संगीत, रंगमंच, और संबन्धित कलायें आती है। और जादू, मैम, कठपुतली, सर्कस, गान, और भाषण देना आदि इस कला के दूसरे रूप है। निष्पादन कला का प्रदर्शन करने वालों को कलाकार कहते है। यह कलाकार नायक, विदूशक, नर्तक, जादूगर, संगीतकार, गायक, आदि है। निष्पादन कला के कलाकार वह भी है जो इस कला को परदे के पीछे से सहारा देते है, जैसे कि लिरिसिस्ट, और रंगमंच् सूत्रधार। कलाकार अपने आवरण से पहचान पाते है और इसमे सिमट जाते है। कलाकार अपने पहनावे, रंगमंच के आवरण, रोशनी, शब्द आदि से आदत पड जाते है।
रंगमंच
संपादित करेंरंगमंच निश्पादन कला की वह शाखा है जहाँ कहानियों को दर्शकों के साम्मने प्रदर्शित किया जाता है। प्रदर्शन संभाषण,इशारों, संगीत, नृत्य आदि के द्वारा किया जाता है। साधारण रूप से रंगमंच द्वारा प्रदर्शन में मूल रूप से संवाद को अधिक महत्त्व दिया जाता है। रंगमंच एकांकी, संगीतसभा, नृत्य, इन्द्रजाल, जादू, मूककला, शास्त्रीय नृत्य, स्टांड अप कामेडी, आदि रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
नृत्य
संपादित करेंप्रदर्शन के रूप में किसी संगीत के अनुसार हाथो, मुख और पैरों का एक विशिश्ट रूप में हिलाना, घुमाना नृत्य कहलाता है। इस हाथो-पैरों के हिलाने की चेष्टा में एक प्रकार का संदेश रहता है। बातों द्वारा संवाद न कर पाने के विशय अनेक नृत्य द्वारा समझायें जा सकते है - जैसे कि हवा में झूमती हुई एक वृक्ष। नृत्यकला नृत्य या नाछने की विधि को एक रूप देने को कहते है। ऐसे नृत्यकला की रचना करने वाले व्यक्ति को नृत्य निर्देशक कहते है। नाचने की कला कई विशयों से प्रभावित होती है, जैसे कि, किसी प्रदेश में प्रचलित नृत्य उस प्रदेश की राजनैतिक, सामाजिक एवं लोकप्रियता पर आधारित होती है। आजकल खेल कूद, स्केटिंग, तैराकी, कुश्ती जैसे भिन्न भिन्न रूपो में भी नृत्य दिखायी देता है।
संगीत
संपादित करेंमनुष्य अपनी वाणी द्वारा गाकर कला प्रदर्शन कर सकता है। सुर, लय एवं ताल में गाने की विधि कला है। यह सीख कर ही प्राप्त हो सकती है। पीढी दर पीढी कई परिवार भारत में संगीत द्वारा जीवनी चलाते है। इस कला प्रदर्शन को कई प्रदेशों में दैवी भावना भी दी जाती है।
इतिहास
संपादित करेंरंगमंच वैदिक काल से ही भारत में प्रचलित था। इस कला प्रदर्शन में दिनचर्या में की जाने वाले काम मौजूद थे, जैसे कि खानपान, पूजापाठ आदि। संगीत और नृत्य भी इस वैदिक कालीन रंगकला में मौजूद थे।हरप्पा-मोहेंजोदडो के कई जनजातियों के लोग इस कला में ऐसे प्रदर्शन करते थे जिनमें जानवरों की तरह वे अभिनय करते। भेड-बकरी, भैन्स, हिरण, बन्दर आदि का शिकार करने वाले शिकारी के रूप में यह नाटक हुआ करते थे। भरतमुनि एक प्राचीन भारतीय लेखक थे जिन्होने भरतशास्त्र की रचना की। यह नृत्य पर लिखी गई पहली पुस्तक मानी जाती है। नाट्य शास्त्र हमे बताता है कि किस तरह से निष्पादन कलाओं का प्रदर्शन किया जाना चाहिये। रामायण और महाभारत भारत में प्रदर्शित सर्वप्रथम नाटकों मे से है। कलाकार इन दोनो एपिक्स में बहुत रुचि रख्ते थे और आज भी कलाकार इन कथाओं का प्रदर्शन करते है। भासमहाकवि जैसे कई लेखको ने रामायण और महाभारत पर आधारित कई एकांकी और नाटकों की रचना की। कालिदास, भवभूति, हर्षवर्धन और कई मध्य कालीन भारतीय लेखकों ने कई ऐसे नाटक लिखे जो आज भी रंगमंचो पर प्रदर्शित होते है। दक्षिण भारत देश में कई रूप के निश्पादन कलाएँ देखे जा सकते है जैसे केरल में कथकली, चाक्कियार कूत्तु, आदि।
आधुनिक काल में संगीत का प्रदर्शन
संपादित करेंआधुनिक काल में भारत में कई संगीत के प्रकार उपलब्ध है। दुनिया के पश्चिम भाग में प्रचलित पाँप, राँक, मेटल, आदि आज भारत की युवा मे प्रसिद्ध है। लेकिन प्राचीन काल से आती हुई शास्त्रीय संगीत जिसे उत्तर भारत में हिन्दुस्तानी और दक्षिण भारत में कर्णाटिक संगीत कहते है आज भी लोकप्रिय है।
आधुनिक कर्णाटिक संगीत सभा
संपादित करेंआधुनिक कर्णाटक संगीत सभा को कच्चेरी कहते है। यह साधारण रूप से तीन घंटो तक चलता है। और कई गीत गाएँ जाते है। प्रत्येक कर्णाटिक गीत एक राग में बनाया जाता है। अतः एक गाना किसी भी गायक द्वारा एक ही तरह से गाया जाता है। हर एक रचना राग एवं ताल में पहले से ही लिख दिया जाता है जोकि बदला नही जा सकता। गायक की प्रतिभा से गाने को और सुधार कर सुरों को अलग अलग गाकर खूबसूरत बनाया जा सकता है। कच्चेरी वर्णम या एक शुरुवाती मुखडे से शुरू की जाती है। वर्णम मे केवल सुर गाये जाते है। यह दर्शकों के सावधानी को खींचने के लिये गाया जाता है। वर्णम के बाद मुख्य संकीर्तन गाये जाते है। प्रत्येक कीर्तन से पहले उस के राग का आरोहण क्रम और अवरोहण क्रम गाया जाता है। विविध संगीत वाद्यों से राग को बार बार गायक बदल बदल कर एक नये अन्दाज मे गाकर सुनाता है। इस के बाद राग के एक एक उपभाग को परखते हुए रागालापनम नाम की विधि गायक और संगीत वादक प्रदर्शित करते है। फिर गायक अपने अन्दाज में गाने की अनोखी विधि प्रदर्शित करते है। इस समय दर्शकों मे से जिन लोगों को संगीत का पूर्वज्ञान हो, वे राग के सुरों का चयन कर आनन्द लेते है। ऐसे दर्शक रसिक कह लाते है। मुख्य कीर्तन के बाद संबन्धित छोटे और कम सुरो वाले गीत गाए जाते है। फिर दर्शको के अनुरोध पर कुछ छोटे गीत या मुखडे गाए जाते है। अंत में मङळम गाया जाता है। मंगळम के गाने के साथ कच्चेरी का समापन होता है।