सदस्य:Ladaram ghanchi/प्रयोगपृष्ठ
क्षत्रियवंश क्षत्रिय लाठेचा राजपूत/राजपुत घाँची जो कि अहिलनवाड़ा की 13 राजपुत जातियों के 189 राजपुत सरदारो ने कुमारपालसिंह[सोलंकी] और वेलसिंह[भाटी] के नेतृत्व में दारू और मांस को प्रतिबंध करके (छोड़कर) एक शाकाहारी क्षत्रिय लाठेचा राजपूत (वर्तमान में क्षत्रिय घाँची) समाज की "विक्रम संवत 1191 ज्येष्ट शुक्ल पक्ष तीज वार रविवार,को नए समाज की नींव रखी, उन 13 जातियों के राजपुत सरदारो को अपनी मातृभूमि पाटण छोड़ने का कारण केवल तत्कालीन महाराजा जयसिंह ने अपने वचन देने के बाद भी उन क्षत्रिय सरदारो का दूसरे सरदारो द्वारा अपमान किया और उन राजपुत सरदारों को तुकारो/रेकारों(इला) देने पर उन स्वाभिमानी सरदारो ने अपनी मातृभूमि छोड़कर 1191 से 1199 तक आबु नरेश विक्रमसिंह परमार के राज में ठहरे ओर 1199 में राजपुताना में प्रवेश करा जो कि मारवाड़ सिरोही ओर जालोर रियासतों में बस गए और 12 वी शताब्दी में जब अहिलनवाड़ा के महाराज जयसिंह की मर्त्यु के पचात उनके भतीजे कुमरपाल सिंह जो कि क्षत्रिय घाँची समाज के संस्थापक थे उनको पुनः अहिलनवाड़ा भेजा गया था वहाँ के उत्तराधिकारी के रूप में कुमरपालसिंह के राज्याभिषेक के बाद पुनः उन्होंने सभी 13 राजपुत जातियों के सरदारो को अहिलनवाड़ा बुलाकर पुनः रजपूती में लौटने का आग्रह किया गया पर उनमें से कुछ सरदार पुनः अहिलनवाड़ा जाकर अपनी मूल रजपूती पहचान ग्रहण कर ली व बाकी सरदारो ने क्षत्रिय लाठेचा राजपूत (वर्तमान में क्षत्रिय घाँची) जाति के रूप में राजपुताना में ही रहना स्वीकार किया जब कुमारपाल के राज्य की सीमा जैसलमेर तक लगने लगी तो उन्होंने अपने द्वारा स्थापित क्षत्रिय सरदारो के लिए मारवाड़ रियासत के पाली कस्बे में उन क्षत्रिय सरदारो के लिए इष्टदेव सोमनाथ महादेव मंदिर का निर्माण अपने राजकोषीय व्यय से करवाया ताकि सभी 13 जातियों के सरदार अपने इष्टदेव को राजपुताना में रहते हुए याद कर सके