सदस्य:R KUMAR GUPTA/प्रयोगपृष्ठ
जीवन एक प्रवाह
प्रकृति में जीवन सतत बह रहा है। पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु जीवन इस के माध्यम हैं। इनके द्वारा जीवन प्रकट होता है तथा उसका पोषण एवं प्रसार होता है। जीवन पुराने आधार को छोड़ नए आधार ग्रहण करता है परंतु जीवन पुराना नहीं होता क्योंकि वह ठहरता नहीं बल्कि सतत गतिमान रहने के साथ साथ विकसित भी होता रहता है। यही जीवन की प्रकृति है और यही उसकी चेष्ठा है। शरीर जीवन का आधार है जिसमें भौतिक एवं चेतन तत्व का संयोग जीवन द्वारा, जीवन के लिए, जीवन रहने तक रहता है। शरीर को स्वस्थ एवं गतिमान रखने के लिए आवश्यक है कि शरीर में भौतिक ऊर्जा एवं चेतन ऊर्जा की आपूर्ति आवश्यकतानुसार होती रहे, इसीलिए जीवन इन तत्वों की प्राप्ति में सदैव चेष्ठा रत रहता है और प्रकृति से बाह्य चेष्ठा द्वारा भौतिक ऊर्जा तथा आंतरिक चेष्ठा द्वारा चेतन ऊर्जा लेता रहता है परंतु किसी कारण भौतिक ऊर्जा एवं चेतन ऊर्जा की आपूर्ति न होने से शरीर में इन तत्वों का स्तर गिरने लगता है और जीवन टूटने लगता है।
नए जीवन का निर्माण उसके पूर्वज जीवन से होता है, नया जीवन जब अस्तित्व में आता है तो जीवन के अस्तित्वगत गुण ( पोषण, प्रसार एवं सुरक्षा ) के साथ पूर्वज जीवन के स्थूल अर्थात शारीरिक गुण इसे अस्तित्व में आते ही प्राप्त होते हैं परंतु व्यक्तित्व वाले गुण इसे आनुवंशिक रूप में प्राप्त नहीं होते और इस समय यह व्यक्तित्व के आधार पर शून्य होता है। नया जीवन जब अस्तित्व में आता है तो वह अपने चारोंओर के वातावरण से चेतन ऊर्जा एवं चेतन तत्व (जो कि स्वभावगत गुणों से युक्त होती है) को अवशोषित कर अपने जीवन को पोषित एवं विकसित करता है। इस जीवन को वातावरण से वह चेतन तत्व प्राप्त होते हैं जो इसके अनुकूल होते हैं। ये चेतन तत्व इस जीवन के ऊपर अपने गुणों की छाप छोड़ते हैं जिससे कि इस जीवन का व्यक्तित्व बनता है। चूँकि नए जीवन के समीप स्वभावगत रूप से इसके माता-पिता एवं परिवार वाले ही होते हैं इसलिए अधिकांश गुण उन्हीं से प्राप्त होते हैं परंतु कभी कभी ये स्थिति कुछ अलग ही होती है क्योंकि वातावरण में उपलब्ध अन्य जीवित या अजीवित लोगों के स्वभावगत गुण जब इस जीवन को प्राप्त होते हैं तो इस जीवन के व्यक्तित्व पर उनकी छाप दिखाई देती है। कभी कभी किसी अजीवित व्यक्ति के गुण इतने मिलते हैं कि हम इसे उस व्यक्ति का पुनर्जन्म कहने लगते हैं।( रामकुमार गुप्ता )