सदस्य:Sasvatdharm/प्रयोगपृष्ठ
शाश्वत धर्म द्धारा धर्मार्थ हेतु
|| नारायणम् नमस्कृत्य नरम् चैव नरोत्तमम् ,
देवीम् सरस्वतीम् व्यासम् ततो जयमुदीयरेत् ||
(महाभारत / खण्ड १ / श्लोक १ )
अर्थ -
बद्रिकश्र्मनिवसी प्रसिद्ध् ऋषी श्री नारायण स्वरुप तथा श्री नर ( अन्तर्यामी नारायण स्वरुप भगवान श्री कृष्ण उनके नित्य सखा नरस्वरुप नरश्रेष्ठ अर्जुन ), उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती ओर् वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार कर जय का पाठ करना चहिये |
ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः पितामहाय | ॐ नमः प्रजापतिभ्ये | ॐ नमः कृष्णद्वेपायनाय | ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः |
(महाभारत / खण्ड १ / श्लोक 2 )
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
शाश्वत धर्म ओर सुख के आश्रय परमात्मा (गीता 14/27) ने इस लोक मे मनुष्य को धर्म रूपी सुख को भोगने के लिये ही भेजा है | परन्तु मन तू शाश्वत सुख को पाने की अपेक्षा क्षणिक व भोतिक आनन्द की ओर क्यों जा रहा है | तेरे गुरु ने तुझे प्रभु का नाम देकर कितनी असीम कृपा की है , इसे तेरे जैसा मूड़ क्या जाने , तेरे गुरु ने तुझे यज्ञ-दान-तप से जोड़ कर, भजन -अध्ययन से जोड़ कर कितना बड़ा उपकार किया है। तेरे मता -पिता ने तेरे मन रूपी देवालय में धर्म की आस्था का बीज डालकर कितनी महान कृपा की है। बदले में तूने क्या दिया ?… तेरे गुरु तो बस तुझसे भजन और अध्ययन ही तो मांगते है सेवा में। रे मन आज जो भी तू कुछ है ये तेरे प्रभु की कृपा ही तो है , फिर क्यों तू इन विषयों में आसक्त होता है। तुझे जो ये मनुष्य का जन्म मिला है , ऐसा जन्म पाना दुर्लभ है ओ मनुष्य तो इस जीवन को बिना भक्ति के नष्ट मत कर ।
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
तू अपने आपको बहुत बुद्धिमान , चतुर , मेधावी मानता है न, कारण कि तूने उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त की , तुझे अनेको भाषाओ का ज्ञान है। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कार्य किया। इसलिए तू सुख पाने के नियम भी स्वयं बनाता है। सुख शांति को पाने के लिए यदि तेरे बनाये हुए नियम इतने ही सत्य है तो फिर क्यों चिंता करता है जीविका की , घर -परिवार की , क्यों चिंता करता व्यापार की , क्यों चिंता करता है संतान की , यदि तू इतना ही सुखी है अपनी मान्यताओ से , अपने सिद्धांतों से तो क्यों क्रोध करता अपनी पत्नी पर, अपनी संतान पर , ओर प्राणियों पर। तेरे स्वयं के नियम यदि इतने ही सक्षम हैं तो क्यों तुझे निद्रा सताती है , क्यों तुझे भूख सताती है , क्यों तुझे काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार , भय , आसक्ति आदि दुखी करते है रे.… तेरे स्वयं के सिद्धांतो में, तेरे स्वयं के नियमो - मान्यताओ में वो बल नहीं जो इन सब पर विजय कर सके। इसलिए कहता हूँ की शाश्वत -सनातन -पुरातन शास्त्रों की और आ जा , गुरु के और शास्त्रो के बताये हुए मार्ग से तुझे शाश्वत सुख -शांति की प्राप्ति होगी। तू सब दुखो से चिन्ताओ से मुक्त होकर सुख के सागर में जीने लगेगा , तू उस अनन्त आनंद के स्त्रोत परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा रे प्यारे ……
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
हमारे शास्त्रों में महाभारत , महाराज मनु के द्वारा रचित शास्त्र, सभी वेद , और चिकित्सा शास्त्र मुख्य रूप से माननीय हैं , उनमे भी भगवान श्री कृष्ण के श्री मुख से निकले समस्त वचन परम प्रमाण है।
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
मेरे मन मैं जानता हूँ की अब तू कहेगा संसार में इतने धर्म है किसका शास्त्र सत्य है ? ये शास्त्र भी तो हमारे जैसे किसी मनुष्य ने लिखे होगे न , भगवान तो आकर लिख नहीं गया। लो मैं अभी एक नया शास्त्र लिख देता हूँ , और बन जाता हूँ गुरु ………………… ओ मेरे मन मित्र तू बहुत चतुर है , लेकिन मेरा गोविन्द मेरा परमात्मा परम चतुर है। तेरी इस समस्या का समाधान अभी कर देता हूँ। सूत्र १-
ध्यान दो - यदि मैं तुम्हे स्वयं की जीवनी सम्पूर्णतया सुनाऊँ और पुनः तुम अन्य किसी नए व्यक्ति को सुनाओ , तो क्या तुम शत - प्रतिशत त्रुटि रहित सुना सकते हो, नहीं न। मान लेते हैं की कम से कम एक प्रतिशत की त्रुटि तो होगी न ठीक इसी प्रकार अब वो नया व्यक्ति किसी अन्य को सुनाये तो एक प्रतिशत की त्रुटि आपकी और एक प्रतिशत की त्रुटि उस वक्ता की अर्थात दो प्रतिशत की त्रुटि हो गयी। अब यही दो प्रतिशत त्रुटियुक्त जीवनी सुनने वाला जब आगे किसी को सुनाएगा तो दो प्रतिशत पहले की त्रुटि और एक प्रतिशत इसके स्वयं की त्रुटि ------ अर्थात अब जो श्रोता है वह तीन प्रतिशत त्रुटियुक्त जीवनी सुनेगा। यदि यही क्रम बढ़ता गया तो दसवें श्रोता जो जीवनी लिखेगा वह दस प्रतिशत त्रुटि युक्त होगी। परन्तु यदि अब मैं दसवे व्यक्ति के पास जाकर उसकी लिखित अशुद्ध जीवनी को शुद्ध कर दूँ तो पुनः शत प्रतिशत शुद्ध हो जाएगी। क्योंकि मेरे विषय में भगवान के अतिरिक्त तत्पश्चात
मुझसे अधिक इस संसार में कोई नहीं जानता।
सूत्र २ -
ठीक आगे यदि में अपनी जीवनी दस व्यस्को को सम्पूर्णतया सुनाऊँ , फिर मेरे जाने के कुछ दिन पश्चात वो सभी श्रोता जीवनी को लिखे तो कोई १९६७ को १९६८ कहेगा , कोई ग्राम पुर्सी को ग्राम कुर्सी कहेगा। इन दस में हो सकता है की अपनी बात रखने के लिए वाद - विवाद भी हो जाये। अर्थात मान लेते हैं की ये दस भी कहीं कुछ भूल गए और कुछ अधिक बड़ा दिया। इनसे दस प्रतिशत की त्रुटि लिखने में हो गई। दस भी नहीं तो १ प्रतिशत की तो हो ही जायेगी न। परन्तु अब यदि मैं स्वयं जाकर उनकी जीवनी जांचने लगूं तो पूर्ण जीवनी को त्रुटिरहित कर दूंगा।
सूत्र ३ -
यदि परमात्मा स्वयं ही या अंश रूप से अथवा या किसी अधिकारी भक्त को आज्ञा दे की तुम मेरे विषय में सम्पूर्णतया पूर्वक लिखो , इसके लिए मैं तुम्हे समस्त दिव्य शक्तियाँ प्रदान करता हूँ , जिससे तुम वर्तमान भुत और भविष्य भली भांति प्रत्यक्ष देख सुन सकते हो। तो परमात्मा या अंश या ऐसे अधिकारी संत द्वारा रचित शास्त्र भी शत प्रतिशत नि संदेह शुद्ध ही होगा।
उपरोक्त त्रि सूत्रों के आधार पर रचित लेखों-शास्त्रो में परमात्मा के साथ -साथ ऋषियों - महात्माओं के नाम - वृतांत आते हैं तो और यदि उन ऋषि - महात्माओं ने भी प्रभु से या किसी परम भक्त से सुनकर या अपने अनुभव के आधार पर धर्मोपदेश दिया या लिखा है और उसी शास्त्र में प्रभु के भी वचन है तो प्रथम स्तर पर परमात्मा के वचनो को द्वित्य स्तर पर प्रभु द्धारा अधिकृत भक्त अथवा निज अंश के धर्मोपदेश / लेख को परम प्रामाणिक माना जाता है।
जिस भी सूत्र से जिस शास्त्र की प्रमाणिकता सिद्ध होगी उससे संबंधित सभी प्रमाण केवल उसी शास्त्र में ही होने चाहिए। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है
ठीक इसी प्रकार मनुष्य संसार के समस्त शाश्वत-पुरातन धर्म शास्त्रो का अवलोकन कर सकता है की अमुक शास्त्र को लिखने वाले के पास यह ज्ञान कितने महापुरुषों के पश्चात पंहुचा है। अथवा कितने प्रतिशत शुद्ध व् मिश्रण रहित है। …… क्रमशः
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
अब कहो मेरे मन, अब तो तुम शुद्ध शास्त्र की खोज कर सकते हो न।
तो पहले में विश्व के सभी शास्त्रों को क्रय करूँ फिर उनका अध्ययन करूँ पूरा जीवन तो ऐसे ही चला जायेगा। और ना इतनी बुद्धि है और ना इतना समय है मेरे पास। क्या बात है मन मित्र सब कार्य मुझसे ही कराना चाहते हो। तो ठीक है बंधु ध्यान दो -
विश्व के सभी शाश्वत सनातन पुरातन धर्म शास्त्रों में प्रथम स्तर पर केवल महाभारत ही शुद्ध है उसमे भी शाश्वत सुखशांत वासुदेव परिपूर्णतम परब्रम्ह परमात्मा अनंत ब्रह्माण्ड अधिनायक भगवान श्री कृष्ण के वचन परिपूर्णतम शुद्ध व प्रमाणिक है।
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
क्या आपने सभी का अध्ययन किया है आपको कैसे पता ?
मन मित्र तुम इन सब बातों को छोड़ो एक काम करो || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || इस मंत्र निरंतर जाप करो और जप के समय गोविन्द की किसी भी छवि का ध्यान करते रहना या प्रभु के जिस भी रूप आपका मन आसक्त हो । फिर कुछ समय बाद आकर बताना की क्या प्रभाव मिला जीवन में।
ठीक है मैं अध्ययन करता हूँ। पर ये तो बताओ की आपको कैसे पता शास्त्रों का। मेरे मन तुम नहीं मानोगे। अरे मनवा ये तो माता पिता और गुरु की परम कृपा का फल है जो उनकी सेवा करने से मिलता है। समझे मन मित्र ?
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
जो आपने त्रि सूत्र समझाये हैं , और आपके अनुसार केवल महाभारत ही समस्त विश्व में परम प्रामाणिक शास्त्र है। क्या उनका प्रमाण दोगे मुझे? वो भी केवल महाभारत से ही।
साधुवाद मन मित्र मैं आपको अपने गुरु देव की कृपा से समस्त प्रमाण देने का प्रयास करूंगा। और सुन फिर तो तू प्रभु की भक्ति करेगा ना। तो फिर अपना पूरा ध्यान यहीं रखना।
महाभारत के रचियता -
त्रि सूत्रों के आधार पर केवल महाभारत ही परम शुद्ध शास्त्र है , उसमे भी शाश्वत सुखशांत वासुदेव परिपूर्णतम परब्रम्ह परमात्मा अनंत ब्रह्माण्ड अधिनायक-अधिपति भगवान श्री कृष्ण के वचन परिपूर्णतम शुद्ध व प्रमाणिक है वर्तमान के इस जगत में। क्योंकि वेदव्यास जी श्री कृष्ण के अंश थे। फिर भी प्रभु ने व्यास जी को लिखने का विशेष अधिकार दिया। इसके साथ आवशयक दिव्य शक्तियां भी। अंशावतार तो बहुत हैं पर गोविन्द ने लेखनाधिकार नहीं दिया। आश्चर्य की ये सभी प्रमाण महाभारत में ही हैं। वो भी मेरे गोविन्द की वाणी में। ( महाभारत /५ /११४४/३८ ) , ( महाभारत /५ /११४४/३८ ) , ( महाभारत /५ /११४४/४१ ) , ( महाभारत /५ /११४४/४२ ), ( महाभारत /५ /११४४/४२ ), ( महाभारत /५ /११४४/४३)
॥ अथ भूयो जगत्स्त्रष्टा भो शब्देनानुनादयन ॥ ( महाभारत /५ /११४४/३८ ) ॥ सरस्वती मुच्चार तत्र सारस्वतोअभवत् । अपान्तरतमा नाम सुतो वाक्सम्भवः प्रभु ॥ ( महाभारत /५ /११४४/३८ )
तदनन्तर जगत्सृष्टा श्री हरी ने “भोः ” शब्द से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए सरस्वती (वाणी ) का उच्चारण किया। इससे वहां सारस्वत का आविर्भाव हुआ। सरस्वती या वाणी से उत्पन्न हुए उस शक्तिशाली पुत्र का नाम “अपान्तरतमा ” हुआ।
॥ वेदाख्याने श्रुतिः कार्या त्वया मतिमतां वर । तस्मात कुरु यथाअज्ञप्तम् ममेतद् वचनं मुने ॥ ( महाभारत /५ /११४४/४१ )
बुद्धिमानो में श्रेष्ठ मुने - तुम्हें वेदों की व्याख्या के लिए तथा श्रुतियों का पृथक - पृथक संग्रह करना चाहिए। अतः तुम मेरी आज्ञानुसार कार्य करो। मुझे तुमसे इतना ही कहना है।
॥ तेन भिन्नास्तदा वेदा मनो स्वायम्भुवेन्तरे । ततस्तुतोष भगवान हरिस्तेनास्य कर्मणा ॥ ( महाभारत /५ /११४४/४२ ) ॥ तपसा च सुतप्तेन यमेन नियमेन च । मन्वन्तरेषु पुत्र त्वमेव प्रवर्तकः ॥ ( महाभारत /५ /११४४/४३)
अपान्तरतमा ने स्वायम्भुव मन्वन्तर में भगवान की आज्ञानुसार वेदों और श्रुतिओं का विभाग किया। उनके इस कार्य से तथा उत्तम तप , यम नियम से भी हरि बहुत संतुष्ट हुए और कहा पुत्र तुम सभी मन्वन्तर में इसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक होगे। ॥ भूत भव्य भविष्याणाम् छिन्न सर्वार्थ संशयः । ये हांति क्रांतकाः पूर्व सहस्त्रयुगपर्य्याः ॥ ( महाभारत /५ /११४४/५२) ॥ तांश्च सर्वान मयोद्दिष्टान द्रक्ष्यसे तपसांवितः । पुनर्द्रक्ष्यसि चानेक सहस्रयुगपर्ययान ॥ ( महाभारत /५ /११४४/५३)
और किस लेखक के पास लिखित अधिकार व आवश्यक शक्तियां हो सकती है, किसी के पास भी नहीं केवल वेदव्यास जी को छोड़ कर। अतः महाभारत की तुलना में विश्व में कोई धर्म शास्त्र नहीं है वर्तमान में। इसलिए महाभारत परम प्रामाणिक शास्त्र है। समझे मन मित्र।
|| ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय || ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
॥ इदं शतसहस्त्रम तु लोकानां पुण्यकर्मणाम् ॥ उपाख्यानेः सह ज्ञेयमाधम् भारतमुत्तमम् ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०१ )
पुण्यकर्मा मानवों के सहित एक लाख श्लोकों के ग्रन्थ को महाभारत जानना चाहिए।
॥ चतुर्विंशतिसाहस्त्रीं चक्रे भारतसंहिताम् ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०२ )
॥ उपाख्यानैर्विना तावद भारतं प्रोच्यते बुधैः। ततोअप्यर्धशतं `भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०३ )
॥ अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम् । इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम् ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०४ )
॥ ततोअन्येभ्योअनुरुपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः । षष्टिं शतसहस्त्राणि चकारान्याम् संहिताम् ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०५ )
॥ त्रिंशच्छतसहस्त्रं च देवक`प्रतिष्ठितम् पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०६ )
॥ एकं शतसहस्त्रं तू मानुषेषु प्रतिष्ठितम् । नारदोअश्रा वयद् देवांसितो दें`देवलः पितृन ॥ ( महाभारत /१ /२५ /१०७ ) )