सदस्य:Shivanichrist97/प्रयोगपृष्ठ

                                                              जातिवादी  भारात

जाति-प्रथा हिन्दू समाज की एक प्रमुख विशेषता है । प्राचीन समाय पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि इस प्रथा का लोगो के सामाजिक , आर्थिक जीवन पर विशेष प्राभाव रहा है।

वास्तव मे समाज मे आर्थिक मजबुती और क्षमता बढाने के लिए श्रम विभाजन के आधार पर इस प्रथा की उत्पत्ति हुई थी । आरन्भ मे इस विभाजन मे सरलता थी और एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति को अपना सकता था । परन्तु समय के साथ - साथ इस क्षेत्र मे सन्कीर्णाता आ गई ।

जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत मे नही बल्कि मिस्र , यूरोप आदि मे भी अपेक्षाकृत क्षीण रुप मे विदयमान थी । 'जाति' शब्द का उदभव पुर्तगाली भाषा से हुआ है । पी ए सोरोकिन ने अपनी पुस्तक 'सोशल मोबिलिटी' मे लिख है, " मानव जाति के इतिहास मे बिना किसी स्तर विभाजन के, उसने रह्ने वाले सदस्यो की समानता एक कल्पना मात्र है।" तथा सी एच फूले का कथन है "वर्ग - विभेद वशानुगत होता है, तो उसे जाति कह्ते है ।"

इस विष्य मे अनेक मत स्वीकार किए गए है । राजनेतिक मत के अनुसार जाति प्रथा उच्च के ब्राहणो की चाल थी । व्यावसायिक मत के अनसार यह पारिवारीक व्यवसाय से उत्त्पन हुई है । साम्प्रादायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्म्प्रदाय सनगठित होकर अपनी अलग जाती का निर्माण करते है, तो इसे जाति प्रथा की उत्पत्ति कह्ते है। परम्परागत मत के अनुसार यह प्रथा भगवान द्वारा विभिन्न कार्यो की दृष्टि से निर्मेत की गए है।

कुछ लोग यह सोचते है कि मनु ने "मनु स्मृति" मे मानव समाज को चार श्रेणियो मे विभाजित किया है, ब्राहमण , क्षत्रिय , वेश्य और शुद्र । विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लन्बे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे कुछ दोष भी आते गए । इसका सबसे बङा छुआछुत की भावना है । परन्तु शिक्षा केन् प्रसार से यह सामाजिक बुराई दूर होती है जा रही है ।

जाति प्रथा की कुछ विशेषताऍ भी है । श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य मे निपुण होता गया क्योकि श्रम विभाजन का यह कम पीढियो तक चलता रहा था । इससे भविष्य - चुनाव की समस्या और बेरोज्गारी की समस्या भी दूर हो गए ।


तथापति जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है । इसके कारण सन्कीर्णता की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक , राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जोकी राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है । बङे पेमाने के उद्योग श्रमिको के अभाव मे लाभ प्राप्त नही कर सकते ।

जाति प्रथा मे बेटा पति के व्यवसाय को अपनाता है , इस व्य्वस्था मे पेशे के परिवर्तन की सन्भावना बहुत कम हो जाती है । जाति प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यो मे शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है । विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति कर्य धीमी गति से होता है ।

यहन् खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जङे अब ढीली होती जा रही है । वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति के लोगो के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है । सन्विधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है । उन्हे सरकारी पदो और शेक्षणिक सनस्थानो मे प्रवेश प्राप्ति मे प्राथमिकता और छुट दी जाती है ।

आज की पीढी का प्रमुख कर्तव्य जाति - व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता , एकाधिकार , विद्वेष आदी दोष उत्पन्न हो जाते है । वर्गहीन एमव गतिहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए । इससे भारत की उन्नति होगी और विवाह होने चाहिए । इससे भारत की उन्नति होगी और भारत ही समतावादी राष्ट्र के रुप मे उभर सकेगा ।

http://agniveer.com/the-reality-of-caste-system-hi/

http://khabar.ndtv.com/topic/caste-system

३ blogs.transparent.com/hindi/caste-system-of-india/

४ www.essaysinhindi.com/india/caste-system/.../4552

५ www.uscwm.info/op1040/pdfs/2.pdf