सदस्य:Vijaikumarlunia/प्रयोगपृष्ठ
कवि केशवदास
संपादित करेंजन्म एवम् मृत्यु:-
संपादित करेंमहाकवि केशवदास के जन्म और मृत्यु दोनों के ही के बारे में निश्चतता नही है। साहित्य के विभिन्न मनीषियों ने आपकी रचनाओ के कालानुसार ही दोनों तिथियों का निरूपण किया है यथा
संवत द्वाद्वश षट सुभग सोरह से मधुमास । तब कवि केशनव को जनम नगर ओर छे वास ।।
उपर्युक्त दोहे के अनुसार आपका जन्म सं १६१८ (१५६१ ई) के चैत्रमास में सिद्ध होता है । यह रामनवमी का दिन भी है। विद्वानों के मतानुसार अन्य साक्ष्य न होने के कारण इस तिथि को मान लेना अनुचित नही होगा। मृत्यु के विषय में निश्चित तिथि प्राप्त न होने पर अधिकांश विद्वानों जहांगीर जसचन्द्रिका जो कि आपकी अंतिम रचना थी उसके अनुसार आपका देहवासन सं १६६९ (१६१२ ई) माना गया है। जैसे कुछ विद्वानों ने, जैसे मिश्र बंधुओ से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक तिथि सं १६७४ (१६१७ ई) मानते है। जन्म और मृत्यु दोनों तिथियाँ ही संदिग्ध है जिन्हें मान्यता दी गई है वे आपकी रचनाओ के आधार पर ही अनुमानित हैं।
वंशपरम्परा:-
संपादित करेंआप कृषणदन्त मिश्र के पौत्र थे और काशीपंथ मिश्र के पुत्र थे। आपके बड़े भाई बलभद्र मिश्र भी कवि थे। छोटे भाई का नाम कल्याणदास था। आपका जन्म सनाढय कुल में हुआ तथा वेदव्यास से आपकी वंशपरम्परा सुनिश्चित कि गई है। केशवदास जी के वंशज अपने पांडित्य के कारण अनेक राजा महाराजा के आश्रित रहे। आपके परिवार का वातावरण संस्कृत भाषा में वेक्षित रहा। यहाँ तक कि इनके सेवक भी संस्कृत भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा नहीं जानते थे। केशव ने स्वयं लिखा है :-
भाषा बोलीन जानीं है जिनके कुल के दास । भाषा कवि भी मन्दर्मत तेहि कुल केशवदास ।।
केशवदास जी के दाम्पत्य जीवन के बारे में विशेष सूचनाये उपलब्ध नही है फिर भी इतना निश्चित था कि आप विवाहित थे। अरिक्षा नरेश ने इन्हें छिनी हुई उपाधि प्रदान कि, वृन्ती निश्चित की ओर प्रयाग में रहने कि समस्त सुविधायें प्रदान की। ओरछे में आपने तीस वर्ष व्यतीत किये इसके पश्चात आप प्रयाग चले गये और मृत्यु पर्यंत आप वहीं रहे। आरम्भिक काल में केशव को आश्रयदाता कि खोज में भटकना नही पड़ा। ओरछा राज्य में इनके पूर्वज राजगुरु कि पदवी से विभूषित थे अतः इन्हें राज्याश्रय वंशानुक्रम से स्वतः ही प्राप्त हो गया।
साहित्य शिरोमणी केशवदास:-
संपादित करेंमहाकवि का हिंदी साहित्य में आविर्भाव भक्तिकाल और रीतिकाल के संधिकाल में हुआ। अपने वंश में आप पहले व्यक्ति हुए जिन्होंने भाषा (हिंदी) में लिखने का बीड़ा उठाया। वंश परम्परा में संस्कृत का ही अधिक प्रभाव था अतः आप पर भी संस्कृत का प्रभाव बना रहना स्वाभाविक था। आपके हिंदी साहित्य रचनाओ में संस्कृत शब्दों छन्दों अलंकारों का भारीपन परिलक्षित होता है। भाषा में कि गई रचना में सरस तो हैं किन्तु क्लिष्ट भी है परन्तु समालोचको ने आपको कठिन काव्य का प्रेत कि उपाधि से भी विभूषित किया है। बिना शब्दकोश कि सहायता के केशव को समझना कठिन है। आपकी रचनाओं में कविप्रिया, रसिकप्रिया और जहांगीर जसचन्द्रिका का विशेष उल्लेख है। कविप्रिया में आपने अपने आश्रयदाता इन्द्रजीत का मुक्त कंठ से यशगान किया है। कहते है कि इन्द्रजीत महाराज कि कृपादृष्टि के कारण आप औरछा में राजा कि तरह जीवन यापन करते थे। आपने ही लिखा है :-
भूतल को इन्द्र इन्द्रजीत राजै जुग जुग केसोदास जाके राज, राज सो करत है ।
उपर्युक्त उल्लखित तीन प्रधान रचनाओं के अतिरिक्त भी महाकवि ने बहुत कुछ लिखा हैं । भाषा साहित्य का ऐसा कौनसा अंग है जिस पर केशवदास ने लेखनी न उठाई हो ।
केशव की रचनओं पर एक दृष्टि :-
संपादित करें- राम चन्द्रिका
- कविप्रिया
- रसिकप्रिया
- विज्ञान गीता
- रतन बावनी
- वीर सिंह देव चरित्र
- जहाँगीर जस चन्द्रिका
इन सात पुस्तकों के अतिरिक्त लाला भगवन दीन ने उनकी तीन अन्य पुस्तको के विषय में लिखा है-
- छंद शास्त्र का कोई ग्रन्थ (छन्दमाला का नाम नही दिया)
- राम अलंकृत मंजरी
- नख शिख
आदि ग्रन्थों ने साहित्य जगत को छन्द, रस, अलंकार आदि कि प्रचुर सामग्री प्रदान कि है। सन् १९५७ में प्रकाशित आचार्य कवि केशवदास नामक पुस्तक में डा. कृष्ण चन्द्र वर्मा ने लिखा था कि खोज अनुसार केशव ने एक दर्ज़न से ऊपर ग्रन्थ लिखे थे, परन्तु ८ ग्रन्थ ही प्रमाणिक ठहराये गए है, जो रचना क्रम से निम्न प्रकार है :-
- रसिक प्रिया स. १६४८
- राम चन्द्रिका स. १६५८
- नख शिख स. १६५८
- कवि प्रिय स. १६५८
- रतना बावनी स. १६६०
- वीर सिंह देव चरित्र स. १६६६
- विज्ञान गीता स. १६६७
- जहाँगीर जस चन्द्रिका स. १६६९
डा. राम कुमार वर्मा ने केशवदास के नाम से अप्रमाणिक निम्न ग्रंथो का उल्लेख किया है :-
- जैमुनि की कथा
- हनुमान जन्म लीला
- बलि चरित्र
- आनन्द लहरी
- रस ललित
- कृष्ण लीला
- अमी घूँट
- राम अलंकृत मंजरी
उपरोक्त रचनओं के फलस्वरूप केशवदास को भारतीय साहित्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है । उन्होंने १६००वी (ई.) सदी में जब मुग़ल शासन काल में उर्दू साहित्य का बोलबाला था, तब हिंदी साहित्य को सुरक्षित रखा । रसिकप्रिया आपके रचनाकाल की प्रथम रचना है । रसिक शब्द ही रस का परिचायक है अतः आपके इस काव्यग्रंथ में रसों का पूर्ण परिपाक किया है रसों का राजा श्रंगार रस और नवों रसों से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का इसमें चमत्कारिक वर्णन किया गया है । भाषा क्लिष्ट होते हुए भी रस कि निष्पत्ति यूँ लगती है मानो काले धन में मेघ खंडो से शीतल जलधारा निपातित हो रही हो ।
रसिकप्रिया में कामशास्त्र, भक्तिशास्त्र और काव्यशास्त्र इन तीनो का संतुलित एवम् रसमय वर्णन पाठको को आनन्द विभोर करता है । नायिका भेद का का यह ग्रन्थ एक उत्कृष्ट भण्डार है । इस ग्रन्थ में अलंकारो का भी उह्रदयग्राही प्रयोग हुआ है ।
पांडित्य प्रखरता के कारण केशवदास ने आठ अन्य रसों का भी रसिकप्रिया में वर्णन किया है जो कि कवियों के लिए वर्जित है । किन्तु अनुकूल के साथ प्रतिकूल का भी रसमय वर्णन केशव जैसे सिध्हस्त आचार्य ही से सम्भव है । आपके ऐसे प्रयोग भी साहित्य में गौरवान्वित हुए है ।
दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ कविप्रिया कवि कि प्रेयसी रायप्रवीण से प्रभावित है । इस ग्रन्थ में नख से शिख और शिख से नख तक के समस्त आभूषणों एवम् अंग सौन्दर्यो का वर्णन अनेक अलंकारो के माध्यम से किया गया है ।
इस ग्रन्थ को निःसंकोच कवि कि प्रतिनिधि रचना कह सकते है । जिस आत्मीयता और तन्मयता से आपने नखशिख और शिखनख वर्णन कर नायिका को उकेरा है ऐसा प्रभाव आपकी ही रचना रामचन्द्रिका के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नही मिलता ।
रामचन्द्रिका केशव कि रचनाओं में प्रसिद्ध रचना है किन्तु भाषा कि क्लिष्टता और राम के क्रमबद्ध जीवन कथा के अभाव में यह रामचरितमानस के अहुसार लोकप्रिय नही हो पाया यद्यपि कई स्थलों में राम के प्रति कवि कि भक्ति काव्य तन्मयता में परिलक्षित होती है - आलोचकों ने इसे अलंकारो से बोझिल रचना कहा है । यह प्रबंधकाव्य कि तरह दिखती है किन्तु प्रबंधकाव्य की नियमावली से अपूर्ण है-कारण राम के जीवनवृन्त कि क्रमबद्धता का इसमें पूर्णतया अभाव है ।
रामचन्द्रिका में छन्दों कि भरमार है - ८४ छन्दों का प्रयोग इस रचना में किया गया है। रामचंद्रिका की रचना महाकवि ने वाल्मीकि रामायण से प्रेरित होकर ही की है ।
इसी प्रकार छन्दमाला रचना में छन्दों का विशद वर्णन किया गया है । जहाँगीर जसचन्द्रिका में बीरबल की मित्रता से प्रेरित हो कवि ने जहाँगीर के यश का वर्णन कई स्थानों पर तो अतिश्योक्तिपूर्ण भी किया है । बारहमासा ग्रन्थ में ऋतुओ का मनोरम वर्णन है ।
राय प्रवीण और केशव:-
संपादित करेंविद्वतजन रायप्रवीण का महाकवि के साथ साहित्यिक एवम् भावनात्मक सम्बन्ध जोड़ते है । वस्तुतः कविप्रिया कि रचना का आधार ही राय प्रवीण को मानते है । क्योंकि केशव रायप्रवीण अथवा प्रवीण राय के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे ऐसा उनके स्वयं के लेखन से भी परिलक्षित होता है । रायप्रवीण केशव के आश्रयदाता ने अपने दरबार में छः अद्वितीय सुन्दर एवम् कला प्रवीण नर्तकियो का अखाड़ा इन्द्रसभा के समान बना रखा था । इनमे रायप्रवीण प्रमुख नर्तकी थी । बुध्दिमती, कलामर्मज्ञ और कला पारंगत रायप्रवीण के लिए केशव ने प्रशंसा के भाव से लिखा है-
सत्या रायप्रवीण जुत, सुरतरु सुरतरु गेह । इन्द्रजीत तासों बंधे, केशवदास ही देह ।।
इन्द्रजीत राजा को महाकवि ने भूतल के इंद्र कि उपमा से विभूषित किया है । इन्द्रजीत स्वयं रायप्रवीण के व्यक्तित्व, काव्य रसिकता से इतने प्रभावित थे की उनका सम्बन्ध दाम्पत्य बंधन तक पहुँच गया था । सभी रानियों में रायप्रवीण का अतिशय सम्मान था । राजा ने ही रायप्रवीण को केशव को शिष्या के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया जो उन्होंने स्वीकार कर लिया । क्योंकि वे मानते थे
नाचती नाचती पढ़ती सब, सबै बजावति बीन । तिन में करति कविन्त इक, रायप्रवीण प्रवीन ।।
प्रवीण राय के निमित्त ही उन्होंने कविप्रिया की रचना की । केशवदास ने कविप्रिया कि रचना का प्रेरणा स्त्रोत राय प्रवीण को खुले हृदय से सबके समक्ष साहस करके माना है । केशवदास कविप्रिया को शिष्या तो मानते ही थे किन्तु उसकी विलक्षण काव्य प्रतिमा के कारण सरस्वती का रूप भी मानते थे । राय प्रवीण कि काव्य चातुरी एवम् काव्य गाम्भीर्य ने भरे दरबार में अकबर से अपने डोले कि वापसी और राजा इन्द्रजीत पर किये गए एक करोड़ के जुर्माने को माफ़ करवा दिया :-
बिनती राय प्रवीन की सुनिये साह सुजान । जूठी पातल भखत है, बारी बायस स्वाम ।।
प्रवीणराय के प्राप्त पद्यो में अलंकार चमत्कार, शब्द सौन्दर्य, साथ भाव गरिमा प्रायः सर्वत्र मिल जाती है । औरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह ने औरछा में आनन्दमहल विशाल एवम् कलाकृतियों से पूर्ण महल का निर्माण रायप्रवीण के लिए ही करवाया था । कहने का तात्पर्य है कि महाकवि केशवदास और औरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह दोनों ही पर रायप्रवीण का समान प्रभाव था । यह प्रभाव विलाख भाव का न होकर भाव प्रधान, कलाप्रधान और उच्चतम आदर्शो पर आधारित था । इसका दृष्टान्त अकबर के राजदरबार में कहे गये स्वनिर्मित और सारगर्भित सवैये ही से परिलक्षित हो जाऐगा :-
आई हौं बुझन मंत्र तुम्हे निज साँस में सिगरी मति खोई । देहत जौं कि तजौ कुलकानि, हियै नल जौं, लजिहै सब कोई ।। स्वास्थ्य औ परमारय को पथ, चिंत विचार कहौं तुम सोई । जामै रहे प्रभु कि प्रभुता, अरु ओर प्रतिव्रत भंग न होई ।।
ऐसे ही केशव की रामचन्द्रिका में रायप्रवीण द्वारा रचित सत्पछन्दमय गारी का समावेश महाकवि ने उदार भाव से किया है - यह निर्विवाद सत्य है कि रायप्रवीण और केशव का सम्बन्ध गुरु शिष्य जैसा रूखान होके भावप्रधान अधिक रहा है।
बीरबल और केशव:-
संपादित करेंकविवर केशवदास और अकबर के दरबारी नौरत्नो में से एक रत्न बीरबल से प्रगाढ़ मित्रता थी । दोनों ही साहित्य प्रेमी थे । इस प्रगाढ़ मैत्री के ही पीछे केशवदास थे अपने आश्रयदाता इन्द्रजीत का अकबर द्वारा किया गया एक करोड़ का जुर्माना माफ करवा दिया । जुर्माना माफ होने पर इन्द्रजीत इतने प्रभावित हुए कि कवि को उस समय के छः लाख सिक्के पुरस्कार स्वरूप दे दिये । पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसिद्धी प्राप्त दानदाताओ कि सूक्ति मं केशव ने पहला नाम अपने आश्रयदाता इन्द्रजीत सिंह का दिया है तो दूसरा नाम बीरबल का दिया है । टोडरमल को केशवदास ने कृपण एवम् संवेदनहीन व्यक्ति कहा है । उन्होंने कहा कि :-
टोडरमल तुव मित्र मरे सख ही सुख सोयो । मेरे हित बिरबल बिना ठुकू दीननि रोयो ।।
इस प्रकार केशवदास ने अपने काव्य में भाव प्रवणता, शब्दविन्यास, छंद विन्यास, अलंकार प्रधानता, छंदबद्ध काव्य का सृजन कर माँ भारती के कोष को भरा है । शब्दकठिन्य केशव के काव्य का दोष है किन्तु नये-नये छंदों, अलंकारों, रसों कि जो छटा केशवदास ने बखेरी है वह अन्य साहित्यकारों के सृजन में मिलना मुश्किल है । रामचन्द्रिका तो विभिन्न नवीन छंदों अरु अलंकारो का पिटारा है । इसीलिए आपको उस युग के आचार्य पद से विभूषित किया गया है । कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचन्द्रिका, जहाँगीर जसचंद्रिका, वीरसिंह देव चरित्र, बारहमासा आदि रचनाओ में कवि ने संस्कृत कि साहित्यिक विद्या का ही प्रयोग किया है प्रत्युत रीतिकाल कि प्रवृत्तियों को भी समग्र रूप से प्रतिविक्षित किया है ।