सद्धर्मचिन्तामणिमोक्षरत्नालंकार
सद्धर्मचिन्तामणिमोक्षरत्नालंकार ( तिब्बती: དམ་ཆོས་ཡིད་བཞིན་གྱི་ནོར་བུ་ཐར་པ་རིན་པོ་ཆེའི་རྒྱན; वायली: dam chos yid bzhin nor bu thar pa rin po che'i rgyan तिब्बती बौद्ध धर्म में कग्यु सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ है। इसके लेखक गम्पोपा (1079-1153) थे। [1]
मुख्य बातें
संपादित करेंप्रश्नोत्तर
प्र. संसार में कौन भ्रमित होते हैं?
उ. तीनों धातुओं के समस्त प्राणी भ्रमित होते हैं।
प्र. किस आधार में भ्रमित होते हैं?
उ. शून्यता में भ्रमित होते हैं।
प्र. किस कारण भ्रमित होते हैं?
उ. महा-अविद्या के कारण भ्रमित होते हैं।
प्र. किस प्रकार भ्रमित होते हैं?
उ. छः गतियों के विषयों में आसक्त होकर भ्रमित होते हैं।
प्र. किस दृष्टांत की तरह भ्रमित होते हैं?
उ. निद्राकाल में स्वप्न की तरह भ्रमित होते हैं।
प्र. कब से भ्रमित होते आ रहे हैं?
उ. अनादिकाल से भ्रमित होते आ रहे हैं।
प्र. भ्रमित होने से क्या हानि है?
उ. (प्राणी) केवल दुःखों में ही विचरण करते रहते हैं।
प्र. भ्रान्ति ज्ञान में कब परिवर्तित होगी?
उ. अनुत्तर बोधि की प्राप्ति के अनन्तर होगी।
प्र. क्या भ्रान्ति का ज्ञानरूप में स्वतः प्रबोध संभव है?
उ. नहीं, संसार अनन्तता के लिए प्रसिद्ध है। [2]
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सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ आचार्य गम्पोपा, अनुवादक खेनपो सोनम ग्याछो (2000). सद्धर्मचिन्तामणिमोक्षरत्नालंकार (प्रथम संस्करण). सारनाथ वाराणसी: केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान.
- ↑ सद्धर्मचिन्तामणिमोक्षरत्नालंकार, पन्ना 31