संन्यास
सनातन धर्म में जीवन के चार भाग (आश्रम) किए गए हैं- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। संन्यास आश्रम का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है। सन्यास का अर्थ सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर निष्काम भाव से प्रभु का निरन्तर स्मरण करते रहना। शास्त्रों में संन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहा गया है।
संन्यास का व्रत धारण करने वाला संन्यासी कहलाता है। संन्यासी इस संसार में रहते हुए निर्लिप्त बने रहते हैं, अर्थात् ब्रह्मचिन्तन में लीन रहते हुए भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उदासीन रहते हैं। संन्यासियों के लिये शास्त्रों में अनेक प्रकार के विधान हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं—संन्यासी को सब प्रकार की तृष्णाओं का परित्याग करके घर बार छोड़कर जंगल में रहना चाहिए; सदा एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करना चाहिए; कहीं एक जगह जमकर न रहना चाहिए; गैरिक कौपीन पहनना चाहिए; दंड और कमंडलु अपने पास रखना चाहिए; सिर मुड़ाए रहना चाहिए; शिखा और सूत्र का परित्याग कर देना चाहिए; भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करना चाहिए; एकान्त स्थान में निवास करना चाहिए; सब पदार्थों और सब कार्यों में समदर्शी होना चाहिए; और सदुपदेश आदि के द्वारा लोगों का कल्याण करना चाहिए ।
आजकल संन्यासियों के गिरि, पुरी, भारती आदि अनेक भेद पाए जाते हैं । एक प्रकार के कौल या वाममार्गी संन्यासी भी होते हैं जो मद्य मांस आदि का भी सेवन करते हैं । इनके अतिरिक्त नागे, दंगली, अघोरी, आकाशमुखी, मौनी आदि भी संन्यासियों के ही अंर्तगत माने जाते हैं ।
संन्यास उपनिषद
संपादित करेंमुक्तिका उपनिषद् में वर्णित १०८ उपनिषदों में से सबसे अधिक संख्या संन्यास या योग से सम्बन्धित उपनिषदों की है। संन्यास और योग दोनों के लगभग २०-२० उपनिषद हैं। कुछ उपनिषद संन्यास और योग दोनों के हैं। संन्यास से सम्बन्धित उपनिषदों को 'संन्यास उपनिषद' कहते हैं। [1] ये निम्नांकित हैं-
वेद | संन्यास |
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ऋग्वेद | निर्वाण उपनिषद |
सामवेद | आरुणेय उपनिषद, मैत्रेय उपनिषद, संन्यास, कुण्डिका उपनिषद |
कृष्ण यजुर्वेद | ब्रह्म उपनिषद, अवधूत उपनिषद,[2] कठश्रुति उपनिषद देखें। |
शुक्ल यजुर्वेद | जाबाल उपनिषद, परमहंस उपनिषद, अद्वयतारक उपनिषद, भिक्षुक उपनिषद, तुरीयातीत उपनिषद, याज्ञवल्क्य उपनिषद, शात्यायनी उपनिषद |
अथर्ववेद | आश्रम,[3] नारदपरिव्राजक उपनिषद (परिव्रात), परमहंस परिव्राजक उपनिषद, परब्रह्म उपनिषद |
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Patrick Olivelle (1998), Upaniṣhads. Oxford University Press, ISBN 978-0199540259
- ↑ टिप्पणी: इसकी दो पाण्डुलिपियाँ हैं, बृहत और लघु। Olivelle, Patrick (1992). The Samnyasa Upanisads. Oxford University Press. पपृ॰ x–xi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0195070453.
- ↑ Paul Deussen (Translator), Sixty Upanisads of the Veda, Vol 2, Motilal Banarsidass, ISBN 978-8120814684, pages 568, 763-767
इन्हें भी देखें
संपादित करेंविकिसूक्ति पर संन्यास से सम्बन्धित उद्धरण हैं। |