समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध काव्य है। इसके रचयिता राजस्थान के सम्मानित एवं पुरस्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह 'करुण' हैं। वे राष्ट्रकवि दिनकर की काव्यचेतना से अनुप्राणित करुण जी नालन्दा की विचार सभा में दिनकर जी के अक्षरपुत्र की उपाधि से अलंकृत हो चुके हैं। [[चित्र: |300px|समरवीर गोकुला|]] इस ओजस्वी और मनस्वी कवि ने 'समरवीर गोकुला' नामक प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित अध्याय को जीवंत कर दिया है। वर्ण-जाति और स्वर्ग-अपवर्ग की चिंता करने वाला यह देश जब तब अपने को भूल जाता है। कोढ में खाज की तरह वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार स्वातन्कृय संघर्ष के इतिहास के पृष्ठों को हटा देता है। परन्तु प्रगतिशील राष्ट्रीय काव्य धारा ने नयी ऊष्मा एवं नयी ऊर्जा से स्फूर्त होकर अपनी लेखनी थाम ली है। परिणाम है- 'समरवीर गोकुला'। स्मरण रहे कि रीतिकाल के शृंगारिक वातावरण में भी सर्व श्री गुरु गोविन्द सिंह, लालकवि, भूषण, सूदन और चन्द्रशेखर ने वीर काव्य की रचना की थी। उनकी प्रेरणा भूमि राष्ट्रीय भावना ही थी। आधुनिक युग में बलवीर सिंह 'करुण' ने 'विजय केतु' और 'मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ' के बाद इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में 'समर वीर गोकुला' की भव्य प्रस्तुति की है। यह 'विजय केतु' की काव्यकला तथा प्रगतिशील इतिहास दृष्टि के उत्कर्ष का प्रमाण है।

कवि ने भूमिका में लिखा है- महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह, छत्रपति शिवाजी, हसन खाँ मेवाती, गुरु गोविन्द सिंह, महावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर ललकारा हो। वीर गोकुला का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक, अप्रशिक्षित और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह बात विस्तार के लिए न भूलकर राष्ट्र की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे।

इस काव्य की महत्प्रेरणा ऐसी रही कि यह मात्र चालीस दिनों में लिखा गया। इसका महदुद्देश्य ऐसा कि भारतीय इतिहास का एक संघर्षशील अध्याय काव्यरूप धारण कर काव्यजगत् में ध्यान आकृष्ट करने लगा। मध्यकालीन शौर्य एवं शहादत राष्ट्रीय संचेतना से संजीवित होकर प्रबन्धकाव्य में गूँजने लगी। उपेशित जाट किसान का तेजोमय समर्पित व्यक्तित्व अपने तेज से दमक उठा। इतिहास में दमित नरनाहर गोकुल का चरित्र छन्दों में सबके समक्ष आ गया।

आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। कवि ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया है। उच्चकुल के नायकत्व के निकष को गोकुल ने बदल दिया था। अतः किसान-मजदूर-दलित के उत्थान के युग में गोकुल की उपेक्षा कब तक होती! उसने तो किसान जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आमरण संघर्ष किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया।

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