सामाजीकरण
सामाजीकरण (Socialization) वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मनुष्य समाज के विभिन्न व्यवहार, रीति-रिवाज़, गतिविधियाँ इत्यादि सीखता है। जैविक अस्तित्व से सामाजिक अस्तित्व में मनुष्य का रूपांतरण भी सामाजीकरण के माध्यम से ही होता है। सामाजीकरण के माध्यम से ही वह संस्कृति को आत्मसात् करता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया मनुष्य का संस्कृति के भौतिक व अ-भौतिक रूपों से परिचय कराती है। सीखने की यह प्रक्रिया समाज के नियमों के अधीन चलती है। समाजशास्त्र की भाषा में कहें तो समाज में अपनी परिस्थिति या दर्जे के बोध और उसके अनुरूप भूमिका निभाने की विधि को हम सामाजीकरण के ज़रिये ही आत्मसात् करते हैं। सामाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक रूप से क्रियाशील बनाता है। इसी के माध्यम से संस्कृति के अनुरूप आचरण करने का विवेक विकसित होता है। इसके लिए व्यक्ति द्वारा सांस्कृतिक मूल्यों का जो अभ्यंतरीकरण किया जाता है वह सामाजीकरण का ही रूप है।
पर सामाजीकरण के विश्लेषण और अध्ययन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सीखने की प्रक्रिया में सामाजिक मानदण्डों व संस्कृति की सबसे ज़्यादा अहमियत होती है। इन्हें अस्वीकार कर जो कुछ सीखा जाता है, जैसे हत्या, चोरी या अन्य आपराधिक वारदातें करना, उन्हें सामाजीकरण में नहीं गिना जाता बल्कि इनकी गिनती विपथगामी व्यवहार में होती है। इन्हें सीखने वाला व्यक्ति समाज की मुख्यधारा के विपरीत माना जाता है। वह समाज में सकारात्मक योगदान देने की अवस्था में भी नहीं रहता है। इन नकारात्मक क्रियाओं और आचरणों को प्रायः विफल सामाजीकरण के उदाहरण की तरह देखा जाता है। इस प्रकार सामाजीकरण व्यक्ति को समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बना कर समाज की क्रियाओं में भाग लेने में समर्थ बनाता है। सामाजीकरण की एक सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह जीवन-पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति की परिस्थिति व सामाजिक भूमिकाएँ बदलती रहती हैं और उनके अनुरूप व्यवहार के लिए उसे आचरण तथा व्यवहार के नये प्रतिमान सीखने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए बचपन में जहाँ बच्चा सामाजीकरण के माध्यम से माता-पिता, संबंधियों व बुज़ुर्गों से व्यवहार करना सीखता है, वहीं युवावस्था में उसे नये सिरे से दफ्तर में अपने सहयोगियों, वरिष्ठों, पड़ोसियों आदि से व्यवहार के तौर-तरीकों को सीखना पड़ता है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था में भी व्यक्ति नयी भूमिकागत अपेक्षाओं के अनुसार संबंधित सामाजिक व्यवहार ग्रहण करता है। इस प्रकार सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक लगातार चलती रहती है।
परिचय
संपादित करेंसामाजीकरण में सीखे गये सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य देश-काल सापेक्ष होते हैं। इसलिए सामाजीकरण की प्रक्रिया भी देश-काल सापेक्ष होती है। जैसे कि कुछ कबायली जातियों में बच्चों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण देने पर और शहरी समाजों में बच्चों को औपचारिक शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया जाता है। समाजीकरण समय के साथ परिवर्तन होता है। आधुनिक भारत में जाति-भेद आधारित समाज में जातिगत पेशों तथा कर्मकाण्डीय स्थिति के अनुसार भी सामाजीकरण होता रहा है। जैसे कि निम्न जाति के बच्चों को कृषि, दस्तकारी व शारीरिक श्रम के लिए तैयार किये जाने का चलन था, जबकि ब्राह्मण बालकों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। विश्व के अलग-अलग भागों की संस्कृतियों में काफ़ी भिन्नता है, इसलिए सामाजीकरण स्थान सापेक्ष है। यह काल-सापेक्ष इस प्रकार है कि गुज़रे ज़माने में भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए पर्दा करना, शर्माना और धीमे स्वर में बोलना आदर्श व्यवहार था। जबकि आज स्त्री-पुरुष बराबरी के युग में स्त्रियों से इस तरह के सामाजिक व्यवहार की अधिक अपेक्षा नहीं की जाती। पहले बच्चों को चरण-स्पर्श की शिक्षा दी जाती थी, जबकि आज वे बॉय-बॉय करते हैं। यानी मूल्यों व विकास के पैटर्न में बदलाव ने सामाजीकरण की विधि को भी बदल दिया है। समाजशास्त्रियों ने सामाजीकरण की पूरी प्रक्रिया को दो हिस्सों में विभक्त किया है : प्राथमिक सामाजीकरण और द्वितीयक सामाजीकरण। यह विभाजन समाज के प्राथमिक व द्वितीयक संस्थाओं के विभाजन पर आधारित है। प्राथमिक सामाजीकरण परिवार, पड़ोस एवं नातेदारी, मित्र-समूह व आरम्भिक स्कूली शिक्षा के माध्यम से होता है जिसमें बच्चा समाज का सहभागी सदस्य बनने के बारे में बहुत कुछ सीखता है। परिवार को सार्वभौम मान कर सामाजीकरण में इसे आधारभूत संस्था के रूप में देखा जाता है। इसके तहत सहयोग, सहानुभूति, सहायता तथा आदान-प्रदान के गुणों का विकास होता है। भाई-बहनों का प्रेम, बड़ों के प्यार तथा नियंत्रण की व्यक्ति के सामाजीकरण में ख़ास भूमिका होती है। द्वितीयक सामाजीकरण किशोरावस्था से आरम्भ होता है जिसमें व्यक्ति अधिक औपचारिक वातावरण की आवश्यकताओं के अनुसार आचरण करना सीखता है। इस अवस्था में कॉलेज-विश्वविद्यालय, राजनीतिक संस्थाएँ, बाज़ार व दुकान जैसी आर्थिक संस्थाएँ, सांस्कृतिक संस्थाएँ, दफ्तर व फ़ैक्ट्री जैसे व्यवसाय-समूह आदि को समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बनने में मदद करते हैं।
सामाजीकरण सामाजिक नियंत्रण की समस्या का भी सही समाधान प्रदान करता है। सामाजिक नियंत्रण में मुश्किल तब आती है जब लोग सामाजिक मानदण्डों के अनुसार व्यवहार नहीं करते। सामाजीकरण से समाज के सभी सदस्य एक सी सामाजिक स्थिति में एक सा व्यवहार करते हैं और समाज में संतुलन, शांति तथा सामंजस्य बरकरार रहता है। सामाजीकरण के अंतर्गत वि-सामाजीकरण जैसे प्रत्यय का प्रयोग भी किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि नकारात्मक सामाजीकरण के प्रभाव में समाज विरोधी आचरण करना सीख चुके लोगों को इस प्रकार का आचरण करने के लिए हतोत्साहित किया जाए। उदाहरण के लिए किसी आपराधिक चरित्र के व्यक्ति को दण्ड देकर या समझा- बुझाकर अपराधों से मुक्त करा दिया जाए तो वह उसके लिए एक प्रकार से वि-सामाजीकरण होगा। वि-सामाजीकरण इस रूप में भी दिखता है कि व्यक्ति पहले की शिक्षाओं को जैसे बुज़ुर्गों के चरण स्पर्श करने, हवन-पूजा करने तथा मांसाहार न करने जैसे व्यवहार को बड़े होने पर भूल जाए। इसे सीखे हुए व्यवहार की वि-सामाजीकरण कहा जा सकता है। पुनर्सामाजीकरण भी इसी से जुड़ी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति की जीवन-शैली व विचारों में परिवर्तन घटित होता है। फ़ौज की सेवा में व्यक्ति को पूरी तरह से जीवन की नयी शैली का प्रशिक्षण मिलना, किसी अपराधी को सकारात्मक विचारों की ओर आकृष्ट करना, विवाहोपरांत स्त्री का भिन्न जीवन-शैली वाले घर के अनुसार स्वयं को ढालना इसी पुनर्सामाजीकरण के उदाहरण हैं। सामाजीकरण को विभिन्न विचारकों और समाजशास्त्रियों ने सिद्धांतों के आधार पर समझाने का प्रयास किया है जिनमें जी.एच. मीड, चार्ल्स कूले, एमील दुर्ख़ाइम प्रमुख हैं। मीड ने मुख्य रूप से सामान्यीकृत अन्य की धारणा को आधार बनाया है। इसमें दूसरों के अपने संबंध में विचारों व अपेक्षाओं को कोई बच्चा एवं वयस्क आंतरिकीकृत करता है। बाल्यजीवन में कोई बच्चा दूसरों के कामों की कल्पना करके उसके ज़रिये स्वयं को देखता है। इस प्रकार वह सामाजिक दृष्टि से अपनी इयत्ता का निर्धारण करता है। चार्ल्स कूले ने अपने सिद्धांत की व्याख्या दर्पण में आत्मदर्शन के आधार पर की है। कूले के मुताबिक बच्चे की इयत्ता का निर्धारण तीन अवस्थाओं से होता है। पहला, वह जानना चाहता है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। दूसरा, वह दूसरों की राय के संदर्भ में अपने बारे में पैदा सोच को समझने की चेष्टा करता है। तीसरा, वह अपने बारे में सोचते हुए अपने को अच्छा या बुरा, श्रेष्ठ या हीन समझने लगता है। कूले की मुख्य प्रस्थापना यह है कि व्यक्ति एक लम्बी प्रक्रिया में अपने बारे में धारणा बनाता है और यह धारणा दूसरों की सहायता से ही निर्मित होती है। दुर्ख़ाइम ने सामाजीकरण को सामाजिक तथ्य और सामूहिक प्रतिनिधान के माध्यम से समझाने की कोशिश की है। उनके मुताबिक समाज की परम्पराएँ, मूल्य, मानदण्ड, सामूहिक विश्वास आदि सामाजिक तथ्य व्यक्ति से ऊपर होते हैं। व्यक्ति को जन्म से इनकी विरासत मिलती है। इनकी रचना व्यक्ति की अकेली
इकाई के हाथों न होकर समूह द्वारा बनाये होती है। ये व्यक्ति से बाहर हैं और उसके ऊपर बाध्यता भी आरोपित करते हैं।
सन्दर्भ
संपादित करें1. जी.एच.मीड (1934), माइंड, सेल्फ़ ऐंड सोसाइटी, शिकागो युनिवर्सिटी प्रेस, शिकागो.
2. एच.एम. जानसन (1963), सोसियोलॅजी : अ सिस्टमेटिक इंट्रोडक्शन, रॉटलेज ऐंड कीगन पाल, लंदन.
3. के. डेविस (1960), ह्यूमन सोसाइटी, मैकमिलन, न्यूयॉर्क.
4. पार्संस ऐंड बेल्स (1960), फैमिली सोशलाइजेशन ऐंड इंटरेक्शन प्रासेसेज़, द फ़्री प्रेस, ग्लेनको इलीनॉय.
5. सी.एच. कूले (1922), ह्यूमन नेचर ऐंड द सोशल आर्डर, स्क्रिबनर, न्यूयॉर्क.
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