सरमद काशानी
सरमद काशानी (1590–1661 ई०) एक फारसी-भाषी आर्मीनियाई रहस्यवादी कवि और यात्री थे जिन्होंने १७वीं भारतीय उपमहाद्वीप को अपना स्थायी निवास बना लिया था। वे मूलतः यहूदी थे किन्तु ऐसा लगता है कि उन्होंने यहूदी धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर लिया था। किन्तु वे बहुत जल्दी ही इस्लाम में भी वे बुराई देखने लगे और बाद में उन्होंने यहूदियों को इस्लाम धर्म स्वीकारने से मना करने लगे। अपनी कविता में वे कहते हैं कि वे न तो यहूदी हैं, न मुसलमान और न हिन्दू।
सरमद काशानी शाहजहां के आख़िरी काल में दिल्ली आए थे। उन्होंने जामा मस्जिद के पूर्वी दरवाज़े की सीढ़ियों के पास अपना निवास बनाया था। वह अपने समय के बहुत लोकप्रिय सूफ़ी थे. अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव में वह निर्वस्त्र रहने लगे थे और कलिमा का केवल 'ला इलाहा' (यानी कोई ख़ुदा नहीं है), वाला भाग ही पढ़ते थे। मुग़ल साम्राट के क़ाज़ी की शिकायत पर पूरा कलिमा न पढ़ने के जुर्म में औरंगज़ेब ने उन्हें क़त्ल करने का आदेश दिया था। उस समय की किताबों से पता चलता है कि बादशाह आलमगीर औरंगज़ेब के आदेश पर जामा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे चबूतरे पर 1660 में उनका सिर क़लम कर दिया गया था। यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें मुग़ल साम्राज्य के ताज की लड़ाई में दारा शिकोह का समर्थन करने के कारण क़त्ल किया गया या उनके सूफ़ियाना विचार उस समय के बादशाह को पसंद नहीं आए।
सूफ़ी सरमद का मज़ार उसी स्थान पर बना हुआ है, जहाँ उनका सिर क़लम किया गया था।