सर्वांगशोथ, या देहशोथ (anasarca) शरीर की एक विशिष्ट सर्वांगीय शोथयुक्त अवस्था है, जिसके अंतर्गत संपूर्ण अधस्त्वचीय ऊतक में शोथ (oedema) के कारण तरल पदार्थ का संचय हो जाता है। इसके कारण शरीर का आकार बहुत बड़ा हो जाता है तथा उसकी एक विशेष प्रकार की आकृति हो जाती है।

सर्वांगशोथ से पीड़ित एक बालक

देहशोथ का मुख्य कारण अत्यधिक शिरागत शिराचाप है, जो मुख्यत: स्थानिक शिरागत अवरोध से होता है, जैसे शिरागत बाह्य कारण से दबाव, अर्बुद, ऑम्बोसिस इत्यादि। कभी-कभी यह हृदयकपाटों के विकारों से उत्पन्न होता है। हृदय के कार्य में शिथिलता से भी यह अवस्था उत्पन्न होती है। हृदयकपाट के इस प्रकार के विकार में धमनीगत रूधिरचाप घट जाता है और रक्तसंचार में शिथिलता आ जाती है। उच्च शिरागत चाप से शिराएँ फूल जाती हैं तथा उनके वाल्व (valve) के कार्य में शिथिलता आ जाती है। शिराओं में संचित रुधिर गुरुत्वाकर्षण से स्थानिक कोशिकाओं पर दबाव डालता है और इसी के फलस्वरूप कोशिकाओं से तरल पदार्थ छानकर अधस्त्वचा में संचित हो जाता है तथा अधस्त्वचीय ऊतक में शोथ उत्पन्न कर देता है। उपतीव्र गुर्दाशोथ (subacute nephritis) में शोथ का कारण शरीर से अत्यधिक मात्रा में ऐल्वूमिन का परित्याग है। मूत्र द्वारा निकला ऐल्बूमिन प्लैज़्मा (plasma) से आता है। इतना ऐल्वूमिन बाहर जाता है कि प्लैज़्मा में उसकी मात्रा केवल 50% रह जाती है। रक्त में दो प्रोटीन रहते हैं : ऐल्बूमिन और ग्लोवूलिन। इसका अनुपात 3:1 रहता है। ऐल्बूमिन के निकल जाने पर ग्लोबूलिन की मात्रा बढ़ जाती है। इससे कोलॉइड परिसरण दबाव कम हो जाने से, जल का संचय बढ़ जाता है और ऐल्बूमिन के मूत्र द्वारा निकल जाने से जल का संचय अधिक होकर शोथ बढ़ जाता है। शरीर के फूले रहने पर भी ऐल्बूमिन की कमी से रोगी में बल की कमी हो जाती है।

शरीर के ऊतकों में जल भर जाने से, विशेष करके महास्रोतीय भाग में जल की मात्रा बढ़ने से तथा वृक्क में इस जल के निकालने की सामर्थ्य न रहने से, वमन और अतिसार प्रारंभ होता है। गुर्दाशोथ में ऐल्बूमिन का अनुपात 1:3 (3:1 के स्थान में) हो जाता है। शोथ और रक्ताल्पता के कारण रोगी के चेहरे तथा शरीर का आकार बहुत बड़ा तथा पांडु हो जाता है। इससे शरीर की एक विशेष आकृति हो जाती है। रक्त में हीमोग्लोबिन की विशेष कमी हो जाती है। मूल की मात्रा में कमी होकर उसका विशिष्ट घनत्व बढ़ जाता है। रोगी को विशेष आलस्य का अनुभव होता है तथा पाचन क्रिया में विकार उत्पन्न हो जाता है, परंतु इसके कारण रक्तचाप में कोई वृद्धि नहीं होती।

जीर्ण सतत मलेरिया में देहशोथ कमजोर, कृश रोगियों में दिखाई देता है। 1934 ई. में लंका में मलेरिया के संक्रमण काल में यह दिखाई दिया था। विक्रमासुरिया (Wickramasuriya) ने 357 रोगियों में से 40 प्रतिशत में देहशोथ देखा था, जो मुख्य रूप में प्रसूता स्त्रियों में अधिक दिखाई दिया था। इस प्रकार के मलेरिया में उपद्रव स्वरूप देहशोथ के होने का कारण मुख्यत: प्लैज़्मा प्रोटीन की न्यूनता है। उचित उपचार से ऐसा शोथ लुप्त भी हो जाता है।

कभी कभी क्लोनॉर्कियासिस (Clonorchisasis) नामक कृमिजन्य रोग में भी लक्षण स्वरूप देहशोथ देखा जाता है। अकुंश कृमि जन्य लक्षणों के अंतर्गत रक्ताल्पता, शारीरिक कृशता के साथ शोथ तथा सामान्य देहशोथ का होना बहुत ही स्वाभाविक है। इस रोग में चेहरे और पैर में, अन्य स्थानों की अपेक्षा, अधिक सूजन दिखाई देती है।

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