सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धान्त
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सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धांत बड़े ही सरल हैं। पृथ्वी की सतह पर बड़ी सरलता से दो ऐसे बिंदु चुने जा सकते हैं जो एक दूसरे की स्थिति से देखें जा सकें और उनके बीच की दूरी नापी जा सके। इन्हें किसी भी वांछित पैमाने पर कागज पर ऐसे लगाया जा सकता है कि उनके निकटवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण कागज पर समा सके। इसके बाद इन दो बिंदुओं से किसी भी तीसरे बिंदु की दूरी नापकर उसी पैमाने से कागज पर उसकी सापेक्ष स्थिति अंकित कर सकते हैं। इस प्रकार अंकित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे अज्ञात बिंदु की दूरी निकालकर तथा क्रमानुगत अंकित करके, पूरे क्षेत्र का मानचित्र बनाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में, सर्वेक्षण की विधि त्रिभुज की रचना है। ऊपर तो त्रिभुज की एक ही रचना का उल्लेख किया गया है, जिसमें त्रिभुज की तीनों भुजाओं की लंबाइयाँ ज्ञात है। त्रिभुज की अन्य रचना विधियाँ भी सर्वेक्षण में प्रयुक्त होती हैं।
सर्वेक्षण के लिए दो बिंदु ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे तीसरे बिंदु की सापेक्ष स्थिति का पता लगना संभव हो सके। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे सर्वेक्षण में बिंदुओं की सापेक्ष स्थितियाँ सही होने पर, उनकी दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता। जो हो भी सकता है वह केवल चुंबकीय कुतुबनुमा की यथार्थता तक ही सीमित रहेगा। इससे यह कठिनाई होगी कि विस्तृत क्षेत्र में यदि किन्हीं भिन्न-भिन्न दो या अधिक स्थलों से, स्वतंत्र रूप से दो दो बिंदु लेकर सर्वेक्षण आरंभ किए जाएँ, तो उनका उभयनिष्ठ रेखा पर ठीक मिलान होगा अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि ऐसे सर्वेक्षणों के प्रारंभिक आधारों के आलेखों की एकसमान दिशाएँ रखने की कोई निश्चित सुविधा और सिद्धांत नहीं है। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए, सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण विस्तृत प्रदेश में व्यवस्थित और आयोजित रूप से प्रमुख बिंदु चुनकर उनमें एक मूलबिंदु (origin) मान लेते हैं। फिर मूलबिंदु के क्रमश: अन्य बिंदुओं की दूरियाँ और उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेता है और इन अवयवों से सर्वेक्षक उन बिंदुओं के निर्देशांक (co-ordinates) निकाल लेता है।
सर्वेक्षण क्रिया की सफलता के लिए सर्वेक्षक के लिए निम्नलिखित तीन समस्याओं का हल निकालना आवश्यक होता है :
- (1) कोण नापने की,
- (2) दो क्रमानुगत बिंदुओं के बीच दूरी नापने की तथा
- (3) पर्वतीय प्रदेशों और टूटी फूटी भूमि पर दूरी नापने की।
पहली समस्या का हल सर्वेक्षक ने चुंबक की सूई के गुण का, जो सर्वत्र विदित हैं, लाभ उठाकर और थियोडोलाइट का आविष्कार करके कर लिया। दूसरी समस्या का हल फीता, जरीब आदि कई प्रकार के उपकरणों के प्रयोग से किया, जो सर्वसाधारण को विदित हैं। समतल या लगभग चौरस भूमि के प्रदेशों में इन दो समस्याओं के समाधान से एक सर्वेक्षण विधि को जन्म मिला, जिससे चुने हुए बिंदुओं के निर्देशांक निकाले जा सकते हैं।
इस विधि को थियोडोलाइट संक्रमण (Theodolite traversing), या केवल चंक्रमण (Traversing), कहते हैं।
मगर जहाँ भूमि टूटी फूटी या ऊँची नीची हो, जिसपर चुने गए क्रमानुगत बिंदुओं के बीच की सीधी दूरी फीते या जरीब से न नापी जा सके, तो चक्रमण की विधि सफल नहीं होगी। ऐसी दशा में सर्वेक्षक त्रिभुजन (triangulation) की विधि अपनाता है। इस विधि की यह विशेषता है कि सर्वेक्षक गणितीय सूत्रों के प्रयोग से बिंदुओं के बीच की दूरी निकाल सकता है। अत: सर्वेक्षक ऊँचे नीचे पर्वतीय प्रदेश में लंबी-लंबी दूरी तक दृष्टिगोचर प्रमुख बिंदुओं को इस प्रकार चुनता है कि वे त्रिभुजों की सुगठित जाली के शीर्ष बिंदु बन जाएँ। ऐसी त्रिभुजमाला में गठे प्रत्येक त्रिभुज के तीनों कोण थियोडोलाइट से नाप लिए जाते हैं। उनमें से एक त्रिभुज ऐसा बनाया जाता है जिसकी एक भुजा भूमि पर सही सही नाप ली जाती है। उस भुजा का एक सिरे के बिंदु पर दिगंश भी ज्ञात कर लिया जाता है। तदुपरांत उपयुक्त त्रिकोणमितीय सूत्र से अन्य त्रिभुजों की सारी भुजाओं की लंबाइयाँ निकाली जा सकती है इसी प्रकार क्रमानुगत सभी त्रिभुज हल हो जाते हैं, फिर अ या अ के निर्देशांकों के ज्ञात होने से, आगे के बिंदुओं की दूरी और दिगंश से निर्देशांक निकाल लिए जाते हैं।
इस प्रकार का त्रिभुजन संपूर्ण प्रदेश पर बिछ जाता है। भुजाओं की लंबाई 10 से 50 मील तक होती है और निर्देशांकों की गणना पृथ्वी की वक्रता का ध्यान रखकर की जाती है। इस प्रकार का सर्वेक्षण भूगणित सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है।
इसके बाद ऐसे प्रदेश के छोटे-छोटे भूभागों का पट्ट सर्वेक्षण करने के लिए भूगणितीय सर्वेक्षण से स्थापित नियंत्रण बिंदु काम में आते हैं। यदि भूगणितीय सर्वेक्षण से प्राप्त नियंत्रण बिंदु पट्ट सर्वेक्षण के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं, तो सर्वेक्षक स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए भूगणितीय नियंत्रण बिंदुओं पर आधारित एक छोटा सा त्रिभुजन कर लेता है, जिससे पर्याप्त नियंत्रण बिंदु मिल जाते हैं।
ऐसे बिंदु पाकर सर्वेक्षक एक वर्गांकित कागज पर उनका आलेख बनाता है। इस प्रकार नियामकों की सहायता से सारे बिंदु अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठ जाते हैं। इन बिंदुओं से मानचित्र पर दिखाए जानेवाले अन्य बिंदुओं की दिशाओं और दूरियाँ को नापकर सर्वेक्षक उन्हें मानचित्र पर दर्शाता है। इस विवरण से यह एक सही धारणा बनेगी कि इस प्रकार के सर्वेक्षण में, तो बहुत समय नष्ट होगा। इस दुर्बलता पर विजय पाने के लिए सर्वेक्षक पटलवित्रण (plane-tabling) की प्रक्रिया अपनाता है।
पटलचित्रण में वर्गांकित पत्र पर नियंत्रणबिंदुओं के बने आलेख को सर्वेक्षक लकड़ी के एक समतल पटल पर स्थिर रूप से बैठा लेता है। ऐसा पटल एक तिपाई पर पेंच द्वारा ऐसे कस दिया जाता है कि आवश्यकता होने पर पटल पेंच की स्थिति पर घुमाया जा सके और मनचाही अवस्था में कसा जा सके। ऐसे पटल के साथ एक और उपकरण प्रयुक्त होता है, जिसे दंशरेखनी (sight rule) कहते हैं। 60 या 75 सेंटीमीटर लंबी, एक सेंटीमीटर मोटी और पाँच सेंटीमीटर चौड़ी, धातु या लकड़ी की पट्टी की दर्शरेखनी बनी होती हैं। लंबे दोनों किनारे एकदम सीधे और एक ओर को ढालू होते हैं, जिससे सीधी और सही रेखा खींचों जा सके। रेखा खींचने किनारे कागज पर रहते हैं। ऊपरवाले तल पर दो दृश्य वेधिकाएँ (sight vanes) ऊध्र्ववर्ती खड़ी रहती हैं। सर्वेक्षक आलेखमंडित पटल को आलेख पर अंकित किसी एक बिंदु की भौमिक स्थिति (ground position) पर रखता है। तदुपरांत दर्शरेखनी को एक किनारे उपर्युक्त बिंदु और उससे दृष्टिगोचर किसी दूसरे अंकित बिंदु पर स्पर्शरेखीय रखता है। तब वह दर्शरेखनी को बिना हिलाए, दृश्य वेधिकाओं से देखते हुए, पटल को ऐसे घुमाकर स्थिर करता है जिससे दोनों स्पर्शी बिंदुओं को मिलानेवाली भौमिक रेखा पटल पर अंकित उनकी स्थितियों को मिलानेवाली रेखा के समांतर हो जाए। इस दशा में पटल पर, किन्हीं भी दो अंकित बिंदुओं को वर्गाकित कागज पर जोड़नेवाली रेखा संगति भौमिक रेखा के समांतर होगी। दूसरे शब्दों में पटल आलेख सही दिशाओं में स्थिर हो गया। इसके बाद सर्वेक्षक आलेख पर बनी अपनी स्थिति से, मानचित्र पर दर्शांए जानेवाले अन्य बिंदुओं को दृश्यवेधिका से देखकर, क्रमिक रूप से दिशारेखाएँ खींच देता है। तदुपरांत वह आलेख पर ज्ञात किसी दूसरी भौमिक स्थिति पर खड़ा होकर, पटल को पहले की भाँति ही सही दिशाओं में स्थिर करता है। इस प्रक्रिया को पटल का दिक्स्थापन (Orientation of plane table) कहते हैं। पुन: उन्हीं बिंदुओं की दिशारेखाएँ, जिन्हें किरण (ray) कहते हैं, खींची जाती हैं। ये किरणें अपनी पहली संगति किरणों पर छेदन बिंदु देकर, आलेख पर उन बिंदुओं की सही सापेक्ष स्थितियाँ स्थापित कर देती हैं। इसी प्रकार सारे क्षेत्र का सर्वेक्षण हो जाता है। सर्वेक्षक बिंदुओं को प्राप्त कर, उनसे पृथ्वी की सतह पर स्थित प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं को संकेत चिह्रों द्वारा आलेख पर बना देता है। इस क्रिया को पटलचित्रण (Plane tabling) कहते हैं।
पटलचित्रण से प्राप्त मानचित्र की मुद्रण द्वारा कई प्रतियाँ बनाई जा सकती हैं। एक ही आलेख पर कई महीनों तक सर्वेक्षक काम करता है, जिससे सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण क्षेत्र का मानचित्र बन सके। इससे पटलचित्र कुछ गंदा और भद्दा हो जाता है। साफ और सुंदर मानचित्र प्राप्त करने की दृष्टि से सर्वेक्षक अपने पटलचित्र की, नीले रंग में अपेक्षित मानचित्र से, ड्योढ़े पैमाने पर प्रतिलिपि तैयार करता है। उसपर पुन: वस्तुओं का साफ और सुंदर आरेखन (drawing) करता है और फोटोग्राफी से घटाकर सही पैमाने का मानचित्र प्राप्त करता है।
सन् 1914 के महायुद्ध ने सर्वेक्षण की एक नई विधि को जन्म दिया है। इस विधि के अंतर्गत वायुयान से सर्वेक्षण हेतु क्षेत्र के शृंखलाबद्ध फोटो ले लिए जाते हैं। फोटो लेते समय कैमरा का अक्ष (लेंस से फोटो लेने की दिशा) एकदम ऊर्ध्वाधर (vertical) रहता है। इस कारण हम प्रकार लिए फोटो ऊर्ध्वाधर फोटोग्राफ कहलाते हैं। फोटो लेते समय यह ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक क्रमानुगत फोटोग्राफ में उनसे सन्निकट पीछे के फोटोग्राफ का 60ऽ भाग उभयनिष्ठ हो और सन्निकट दाएँ और बाएँ फोटोग्राफों में 25ऽ के लगभग भाग उभयनिष्ठ हो।
चित्रण के समय पृथ्वी की सतह से शंक्वाकार प्रकाश की किरणें कैमरा के लेंस से होकर फोटो प्लेट पर पड़ती हैं, जिससे प्रतिबिंब बनते हैं।
इस पर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा कि
(1) समतल सतह से ऊपर उठे, या नीचे धँसे, बिंदु, मानचित्र पर बननेवाली सही ऊध्र्वाधर प्रक्षेप (vertical projection) स्थितियों से हटे हुए चित्रित होते हैं,
(2) बिंदुओं की जितनी ही अधिक ऊँचाई या गहराई होगी उनका हटाव भी उतना ही अधिक होगा,
(3) यह हटाव फोटो के केंद्रबिंदु से अरीय या अनुत्रिज्य (radial) होता है। अत: पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी दो बिंदुओं द्वारा फोटो केंद्र की भौमिक स्थिति पर बना कोण फोटो के संगति (corresponding) कोण के बराबर होगा,
(4) प्रत्येक फोटो पर आगे और पीछे के फोटो के 60ऽ भाग के अतिव्यापन (overlapping) से उनके केंद्रीय बिंदु भी बीचवाले फोटो पर चित्रित होंगे। इन केंद्रीय बिंदुओं को प्रधान बिंदु या मुख्य आधार बिंदु (Principal point) और फोटो पर उन्हें जोड़नेवाली रेखा को आधार (Base) कहते हैं।
फोटो पर इन ज्यामितीय संबंधों का लाभ उठाकर, सर्वेक्षक उनसे मानचित्र बनाने में सफल होता है। वह पहले उस क्षेत्र में स्थित नियंत्रण बिंदुओं को फोटो पर पहचानकर चिह्नित करता है। फिर फोटो से नियंत्रणबिंदु और प्रधान बिंदुओं के साथ साथ एक ऐसा आलेख पत्र तैयार करता जिसमें सभी बिंदु वाँछित पैमाने पर अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठे होते हैं। ऐसा आलेखपत्र वह पारदर्शी कागज पर बनाता है। फिर वह प्रत्येक फोटो को क्रमश: आलेख पर अंकित उसके प्रधान बिंदु के नीचे इस प्रकार रखता है कि आलेख पर बने सन्निकट आधार, फोटो पर बने संगीत आधारों पर, संपाती हों। इस प्रकार का दिक्स्थापन होने पर, सर्वेक्षक मानचित्र में दर्शाने योग्य, उस अमुक फोटो में चित्रित, बिंदुओं को प्रधान बिंदु से किरणें खींच देता है। यही क्रिया सभी आगे और पीछे के फोटो पर होने से, स-बिंदुगामी किरणों के छेदन पर, बिंदुओं के सही सापेक्ष स्थितियाँ प्राप्त हो जाती हैं जिनकी सहायता से पटलचित्रण की भाँति मानचित्र तैयार हो जाता है। इस क्रिया को हवाई सर्वेक्षण (Airsurvey) कहते हैं।
यदि हवाई फोटोग्राफ, कैमरा के अक्ष को ऊर्ध्वाधर दिशा से झुका हुआ रखकर, लिए जाएँ, तो भी सर्वेक्षक उनसे मानचित्र तैयार कर सकता है। इस प्रकार से लिए चित्र तिर्यक् फोटोग्राफ (Oblique photographs) कहलाते हैं।