सल्लेखना

जैन धर्म की एक प्रथा

सल्लेखना (समाधि या सथारां) मृत्यु को निकट जानकर अपनाये जाने वाली एक जैन प्रथा है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि वह मौत के करीब है तो वह खुद खाना-पीना त्याग देता है। दिगम्बर जैन शास्त्र अनुसार समाधि या सल्लेखना कहा जाता है, इसे ही श्वेतांबर साधना पध्दती में संथारा कहा जाता है। सल्लेखना दो शब्दों से मिलकर बना है सत्+लेखना। इस का अर्थ है - सम्यक् प्रकार से काया और कषायों को कमज़ोर करना। यह श्रावक और मुनि दोनो के लिए बतायी गयी है।[1] इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है, जिसके आधार पर व्यक्ति मृत्यु को पास देखकर सबकुछ त्याग देता है। जैन ग्रंथ, तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के २२वें श्लोक में लिखा है: "व्रतधारी श्रावक मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रतिपूर्वक सेवन करे"।[2]

जैन ग्रंथो में सल्लेखना के पाँच अतिचार बताये गए हैं:[3][4]-

  • जीवितांशसा- सल्लेखना लेने के बाद जीने की इच्छा करना
  • मरणांशसा- वेदना से व्याकुल होकर शीघ्र मरने की इच्छा करना
  • मित्रानुराग- अनुराग के द्वारा मित्रों का स्मरण करना
  • सुखानुबंध- पहले भोगे हुये सुखों का स्मरण करना
  • निदांन- आगामी विषय-भोगों की वांछा करना

प्रक्रिया संपादित करें

ऐसा नहीं है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का भोजन जबरन बंद करा दिया जाता हो। संथारा में व्यक्ति स्वयं धीरे-धीरे अपना भोजन कम कर देता है। जैन-ग्रंथों के अनुसार, इसमें व्यक्ति को नियम के अनुसार भोजन दिया जाता है। जो अन्न बंद करने की बात कही जाती है, वह मात्र उसी स्थिति के लिए होती है, जब अन्न का पाचन असंभव हो जाए।

इसके पक्ष में कुछ लोग तर्क देते हैं कि आजकल अंतिम समय में वेंटिलेटर पर शरीर का त्याग करते हैं। ऐसे में ये लोग न अपनों से मिल पाते हैं, न ही भगवान का नाम ले पाते हैं। यूं मौत का इंतजार करने से बेहतर है, संथारा प्रथा। धैर्य पूर्वक अंतिम समय तक जीवन को सम्मान के साथ जीने की कला।

उदाहरण संपादित करें

 
चंद्रगुप्त बसडी, श्रवणबेलगोला (जैन तीर्थ स्थल) जहाँ चंद्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना ली थी[5]
 
दोद्दहूँदी निषिद्ध शिलालेख जो पश्चिम गंगा डायनस्टी के राजा नीतिमार्गा१ के सल्लेखना लेने के उपलक्ष्य में बनवाया गया था। राजा जैन धर्म में आस्था रखते थे।

चंद्रगुप्त मौर्य (मौर्य साम्राज्य के संस्थापक) ने श्रवणबेलगोला में चंद्रगिरी पहाड़ी पर सल्लेखना ली थी[6]

संथारा एक धार्मिक प्रक्रिया है, न कि आत्महत्या संपादित करें

जैन धर्म एक प्राचीन धर्म हैं इस धर्म मैं भगवान महावीर ने जियो और जीने दो का सन्देश दिया हैं जैन धर्म मैं एक छोटे से जीव की हत्या भी पाप मानी गयी हैं , तो आत्महत्या जैसा कृत्य तो महा पाप कहलाता हैं। सभी धर्मों में आत्महत्या करना पाप मान गया हैं। आम जैन श्रावक संथारा तभी लेता हैं जब डॉक्टर परिजनों को बोल देता है कि अब सब उपरवाले के हाथ मैं हैं तभी यह धार्मिक प्रक्रिया अपनाई जाती हैं इस प्रक्रिया मैं परिजनों की सहमती और जो संथारा लेता ह उसकी सहमती हो तभी यह विधि ली जाती हैं। यह विधि छोटा बालक या स्वस्थ व्यक्ति नहीं ले सकता हैं इस विधि मैं क्रोध और आत्महत्या के भाव नहीं पनपते हैं। यह जैन धर्म की भावना हैं इस विधि द्वारा आत्मा का कल्याण होता हैं। तो फिर यह आत्महत्या कैसे हुई।

मुख्य बिंदु संपादित करें

( 1) समाधि और आत्म हत्या में अति सूक्ष्म भावनिक बड़ा अन्तर है !

(2) समाधि में समता पूर्वक देह आदि संपूर्ण अनात्म पर प्रति उदासीन रहना होता है !

(3) आत्म हत्या अर्थात इच्छा मृत्यु में मन संताप (संक्लेश)चिन्ता, प्रति शोध ,नैराश , हताश, ,परापेक्षाभाव ,आग्रह आसक्ति जैसी दुर्भावना होती है।

(4) जैन साधु व साध्वी असाध्य रोग होने पर ओषध उपचार करने पर भी शरीर काल क्रमश: अशक्त होने पर निस्पृह भाव पूर्वक आत्म स्थित होते है।

(5) ऐसी स्थिति में आरोग्य व अहिंसक आचरण के अनुकूल आहार पानी व उपचार स्विकार करते है।

(६) भोजन व पानी छोड़ कर मृत्यु का इंतजार नहीं किया जाता है, अपितु शरीर इसे अस्वीकार करता है तब इसे जबरन भोजन पानी बंद करते है , अथवा बंद हो जाता है।

(7) जैन दर्शन अध्यात्म कर्म सिध्दांत का अध्ययन किए बिना जैन आचार संहिता पर आक्षेप करना वैचारिक अपरिपक्वता का सूचक है।

(८) आत्मोपलब्धि के आराधक सत्कार्य के लिए आहार पानी ग्रहण करते है।

(९) भारतीय संस्कृति में आत्मा को अमर अर्थात नित्य सनातन माना गया है।

(१०) जैन साधुओ से परामर्श व जैन आचार संहिता का ष किए बिना अपने विचार दूसरो पर लादना यह भी कानून बाह्य हरकत है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Tukol 1976, पृ॰ 8.
  2. जैन २०११, पृ॰ १०२.
  3. Tukol 1976, पृ॰ 10.
  4. जैन २०११, पृ॰ 111.
  5. Rice 1889, पृ॰ 17-18.
  6. Tukol 1976, पृ॰ 19-20.

सन्दर्भ स्रोत ग्रन्थ संपादित करें

  • जैन, विजय कुमार (२०११), आचार्य उमास्वामी तत्तवार्थसूत्र, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-903639-2-1
  • Tukol, Justice T. K. (1976), Sallekhanā is Not Suicide, Ahmedabad: L.D. Institute of Indology, मूल से 4 अप्रैल 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 21 सितंबर 2015
  • Rice, B. Lewis (1889). Inscriptions at Sravana Belgola: a chief seat of the Jains, (Archaeological Survey of Mysore). Bangalore : Mysore Govt. Central Press. मूल से 23 सितंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 सितंबर 2015.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें