साँचा:आज का आलेख १५ अप्रैल २००९
यह महाकवि कालिदास द्वारा विरचित विख्यात दूतकाव्य है। इसमें कुबेर के द्वारा रामगिरि पर्वत पर निर्वासित यक्ष, कामार्त होकर, निर्णय लेता है कि शाप के कारण तत्काल अल्कापुरी लौटना तो उसके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए। कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया उसके विरह में प्राण दे दे। इस प्रकार आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर उमड़ते मेघों ने कालिदास की कल्पना के साथ मिलकर एक अनन्य कृति की रचना कर दी। "मेघदूत" की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। जहाँ एक ओर प्रसिद्ध टीकाकारों ने इसपर टीकाएँ लिखी हैं, वहाँ अनेक संस्कृत कवियों ने इससे प्रेरित होकर अथवा इसको आधार बनाकर कई दूतकाव्य लिखे। भावना और कल्पना का जो उदात्त प्रसार मेघदूत में उपलब्ध है, वह भारतीय साहित्य में अन्यत्र विरल है। नागार्जुन ने मेघदूत के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में इसे हिन्दी वांग्मय का अनुपम अंश बताया है। विस्तार से पढ़ें