साँचा:आज का आलेख २३ सितंबर २००९
कुँवर नारायण का वाजश्रवा के बहाने अपने समकालीनों और परवर्तियों के काव्य संग्रहों के बीच एक अलग और विशिष्ट स्वाद देने वाला है जिसे प्रौढ़ विचारशील मन से ही महसूस किया जा सकता है। यह गहरी अंतदृष्टि से किये गये जीवन के उत्सव और हाहाकार का साक्षात्कार है। ऋग्वेद, उपनिषद और गीता की न जाने कितनी दार्शनिक अनुगूंजें हैं इसमें, जो कुछ सुनायी पड़ती हैं, कुछ नहीं सुनायी पड़तीं। अछोर अतीत है पीछे, अनंत अंधकार है आगे। बीच में अथाह जीवन है, जो केवल मानवों का नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि का है, और जो खंड में नहीं बल्कि अखंड काल की निरंतरता में प्रवहमान है। कुंवर नारायण के इस संग्रह में भी मृत्यु का गहरा बोध है। भले ही इसमें जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की कोशिश है। यदि मृत्यु न होती तो जीवन को इस प्रकार देखने की आकांक्षा भी न होती। मृत्यु ही जीवन को अर्थ देती है और निरर्थक में भी अर्थ भरती है' यह कथन असंगत नहीं है। विस्तार से पढ़ें...