प्राचीन भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में, साधारणीकरण रस-निष्पत्ति की वह स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है।

विशेष—यह वही स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य के पात्रों या भावों में विलीन होकर उनके साथ एकात्मता स्थापित कर लेता है।

भट्ट नायक ने सर्वप्रथम ‘साधारणीकरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की, इसीलिए उन्हें साधारणीकरण का प्रवर्तक माना जाता है। उनके अनुसार विभाव, अनुभाव और स्थायीभाव सभी का साधारणीकरण होता है। उनके अनुसार ‘साधारणीकरण’ विभावादि का होता है, जो भावकत्व का परिणाम है अर्थात भावकत्व ही ‘साधारणीकरण’ है। वहीं अभिनव गुप्त के अनुसार व्यञ्जना के विभावन व्यापार के द्वारा ‘साधारणीकरण’ होता है। उनके कथन का सार यह है कि, “साधारणीकरण द्वारा कवि निर्मित पात्र व्यक्ति-विशेष म रहकर सामान्य प्राणिमात्र बन जाते हैं, अर्थात वे किसी देश एवं काल की सीमा में बद्ध न रहकर सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक बन जाते हैं, और उनके इस स्थिति में उपस्थित हो जाने पर सहृदय भी अपने पूर्वग्रहों से विमुक्त हो जाता है।"

पण्डितराज जगन्नाथ ने ‘दोष-दर्शन’ के आधार पर साधारणीकरण की प्रक्रिया का समाधान प्रस्तुत किया।

आचार्यों ने साधारणीकरण को निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है-

भट्ट नायक -- विभावादि का साधारणीकरण होता है।

अभिनव गुप्त -- सहृदय का साधारणीकरण होता है।

विश्वनाथ -- विभावादि का अपने पराये (आश्रय और सहृदय) की भावना से मुक्त होना साधारणीकरण है।

रामचन्द्र शुक्ल -- आलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण होता है।

श्यामसुन्दर दास -- सहृदय के चित्त का साधारणीकरण होता है।

नगेन्द्र -- कवि की अनुभूति का साधारणीकरण होता है।

आधुनिक काल में साधारणीकरण के संदर्भ में सर्वप्रथम चिंतन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया। आधुनिक चिन्तकों में रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, नगेन्द्र, नन्ददुलारे वाजपेयी तथा केशव प्रसाद मिश्र आदि ने भी साधारणीकरण की व्याख्या प्रस्तुत की है।