भारतीय परम्परा में सिद्धान्त का अर्थ 'परम्परा' या 'दर्शन' (Doctrine) से है। भारतीय दर्शन में किसी सम्प्रदाय के स्थापित एवं स्वीकृत विचार दर्शन कहलाते हैं।

सिद्धान्त, 'सिद्धि का अन्त' है। यह वह धारणा है जिसे सिद्ध करने के लिए, जो कुछ हमें करना था वह हो चुका है, और अब स्थिर मत अपनाने का समय आ गया है। धर्म, विज्ञान, दर्शन, नीति, राजनीति सभी सिद्धांत की अपेक्षा करते हैं।



व्यवसाय अध्ययन के अनुसार सिद्धांत का आशय नियमों से होता है, किसी कार्य को करने के नियम उसके सिद्धांत कहलाते हैं।



धर्म के संबंध में हम समझते हैं कि बुद्धि, अब आगे आ नहीं सकती; शंका का स्थान विश्वास को लेना चाहिए। विज्ञान में समझते हैं कि जो खोज हो चुकी है, वह वर्तमान स्थिति में पर्याप्त है। इसे आगे चलाने की आवश्यकता नहीं। प्रतिष्ठा की अवस्था को हम पीछे छोड़ आए हैं, और सिद्ध नियम के आविष्कार की संभावना दिखाई नहीं देती। दर्शन का काम समस्त अनुभव को गठित करना है; दार्शनिक सिद्धांत समग्र का समाधान है। अनुभव से परे, इसका आधार कोई सत्ता है या नहीं? यदि है, तो वह चेतन के अवचेतन, एक है या अनेक? ऐसे प्रश्न दार्शनिक विवेचन के विषय हैं।

विज्ञान और दर्शन में ज्ञान प्रधान है, इसका प्रयोजन सत्ता के स्वरूप का जानना है। नीति और राजनीति में कर्म प्रधान है। इनका लक्ष्य शुभ या भद्र का उत्पन्न करना है। इन दोनों में सिद्धांत ऐसी मान्यता है जिसे व्यवहार का आधार बनाना चाहिए।

धर्म के संबंध में तीन प्रमुख मान्यताएँ हैं- ईश्वर का अस्तित्व, स्वाधीनता, अमरत्व। कांट के अनुसार बुद्धि का काम प्रकटनों की दुनियाँ में सीमित है, यह इन मान्यताओं को सिद्ध नहीं कर सकती, न ही इनका खंडन कर सकती है। कृत्य बुद्धि इनकी माँग करती है; इन्हें नीति में निहित समझकर स्वीकार करना चाहिए।

विज्ञान का काम 'क्या', 'कैसे', 'क्यों'- इन तीन प्रश्नों का उत्तर देना है। तीसरे प्रश्न का उत्तर तथ्यों का अनुसंधान है और यह बदलता रहता है। दर्शन अनुभव का समाधान है। अनुभव का स्रोत क्या है? अनुभववाद के अनुसार सारा ज्ञान बाहर से प्राप्त होता है, बुद्धिवाद के अनुसार यह अंदर से निकलता है, आलोचनावाद के अनुसार ज्ञान सामग्री प्राप्त होती है, इसकी आकृति मन की देन है।

नीति में प्रमुख प्रश्न 'नि:श्रेयस का स्वरूप' है। नैतिक विवाद बहुत कुछ भोग के संबंध में है। भोगवादी सुख की अनुभूति को जीवन का लक्ष्य समझते हैं; दूसरी ओर कठ उपनिषद् के अनुसार श्रेय और प्रेय दो सर्वथा भिन्न वस्तुएँ हैं।

राजनीति राष्ट्र की सामूहिक नीति है। नीति और राजनीति दोनों का लक्ष्य मानव का कल्याण है; नीति बताती है कि इसके लिए सामूहिक यत्न को क्या रूप धारण करना चाहिए। एक विचार के अनुसार मानव जाति का इतिहास स्वाधीनता संग्राम की कथा है, और राष्ट्र का लक्ष्य यही होना चाहिए कि व्यक्ति को जितनी स्वाधीनता दी जा सके, दी जाए। यह प्रजातंत्र का मत है। इसके विपरीत एक-दूसरे विचार के अनुसार सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी खराबी व्यक्तियों में स्थिति का अंतर है; इस भेद को समाप्त करना राष्ट्र का लक्ष्य है। कठिनाई यह है कि स्वाधीनता और बराबरी दोनों एक साथ नहीं चलतीं। संसार का वर्तमान खिंचाव इन दोनों का संग्राम ही है।

अट्टारह पुराणों की भांति ज्योतिष में १८ सिद्धान्त हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. सूर्य सिद्धान्त
  2. पितामह सिद्धान्त
  3. व्यास सिद्धान्त
  4. वसिष्ठ सिद्धान्त
  5. अत्रि सिद्धान्त
  6. पारासर सिद्धान्त
  7. कश्यप सिद्धान्त
  8. नारद सिद्धान्त
  9. गर्ग सिद्धान्त
  10. मारीचि सिद्धान्त
  11. मनु सिद्धान्त
  12. अंगिरा सिद्धान्त
  13. लोमस सिद्धान्त
  14. पौलिस सिद्धान्त
  15. च्यवन सिद्धान्त
  16. यवन सिद्धान्त
  17. भृगु सिद्धान्त
  18. शौनक सिद्धान्त

इन्हें भी देखें

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