Sitamau State
British India
1701 – 1948
Flag राज्य-चिह्न
Flag Coat of arms
इतिहास
 - स्थापना 1701
 - Accession to the Indian Union 1948
क्षेत्रफल
 - 1901 523 किमी² (202 वर्ग मील)
जनसंख्या
 - 1901 23,863 
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सीतामऊ 230 48” और 240 14” उत्तरी अक्षांश और 750 17” और 750 36” पूर्वी देशान्तर के मध्य मालवा के दक्षिणी पश्चिमी पठार पर स्थित है। इसकी समुद्र सतह से ऊँचाई 1700 फीट है। सीतामऊ राज्य का क्षेत्रफल 350 वर्गमील था । इसकी सीमाएँ उत्तर में भूतपूर्व इन्दौर और ग्वालियर राज्यों से, पूर्व में झालावाड़ राज्य और पश्चिम में ग्वालियर राज्य तथा दक्षिण पश्चिम में देवास राज्य से लगी हुई थी।

सीतामऊ राज्य की स्थापना

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सीतामऊ राज्य की स्थापना के समय इसका क्षेत्रफल रतलाम राज्य के क्षेत्रफल के लगभग ही था। इस राज्य (सीतामऊ) में नाहरगढ़ और तीतरोद के परगने भी सम्मिलित थे। कुछ समय पश्चात् मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने केशवदास को आलोट का परगना भी जागीर में दे दिया था। किन्तु केशवदास के बाद उसके उत्तराधिकारी शासक गजसिंह के शासनकाल में आलोट का परगना और राजा फतेहसिंह के शासनकाल में नाहरगढ़ के परगने पर क्रमशः देवास के पंवारों और सिंधिया द्वारा अधिकार कर लिये जाने से अपेक्षाकृत इसकी सीमाएँ संकुचित हो गई। सीतामऊ राज्य की यदि पूर्व की सीमा को देखें तो यह राज्य पाँच अन्य राज्यों की सीमाओं को छूता था। इस राज्य के उत्तर में जावरा राज्य का वह भाग जो अब मल्हारगढ़ तहसील कहलाता है, उत्तर-पूर्व में होलकर राज्य का गरोठ जिला जो अब गरोठ तहसील कहलाता है। इसके दक्षिण में जावरा और देवास सीनियर राज्य थे । पूर्व में राजपूताना का झालावाड़ राज्य जबकि पश्चिम में ग्वालियर राज्य का मन्दसौर जिला है ।

वर्तमान में इसके उत्तर में गरोठ तथा मल्हारगढ़ तहसीले हैं । दक्षिण में रतलाम जिला है । पूर्व में सुवासरा तहसील तथा झालावाड़ जिला (राजस्थान) है, तथा पश्चिम में मन्दसौर तहसील है।

15वीं सदी के उत्तरार्द्ध में साता नामक भील राजा ने पहाड़ी पर एक बस्ती को आबाद किया जो भील सरदार साता के नाम से ही सीतामऊ नाम से प्रसिद्ध हुई । यहाँ लगभग एक सदी तक भीलो का ही आधिपत्य रहा ।

कुछ समय पश्चात ईडर राज्य के लौतरा से गजमालोत राठौड़ों का एक दल जुझारसिंह के नेतृत्व में मालवा की ओर आया और सीतामऊ के निकट खेड़ा में बस गया । जुझारसिंह के पश्चात धाऊजी, उदयकरण और नगजी इस दल के सरदार हुए। नगजी ने सन् 1549 ई0 में सीतामऊ के सरदार लाला तोरा और खाना को मारकर सीतामऊ ग्राम पर अधिकार कर लिया।

मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में प्रशासनिक सुधारों के तहत सूबों का निमार्ण किया गया। तब मालवा सूबे के तहत सीतामऊ को मन्दसौर सरकार के तीतरोद महाल के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया ।

‘मोटा राजा’ उदयसिंह (जोधपुर) के चौथे पुत्र दलपत का बेटा महेशदास मुगल बादशाह शाहजहाँ का मनसबदार था । शाहजहाँ द्वारा महेशदास को सन् 1642 ई0 में जालौर का परगना जागीर के रूप में दिया गया था । महेशदास का उत्तराधिकारी रतनसिंह हुआ । जालौर परगने की आय कम होने के कारण शाहजहाँ ने रतनसिंह को सन् 1656 ई0 में जालौर के स्थान पर रतलाम का परगना जागीर के रूप में दिया । रतनसिंह का उत्तराधिकारी रामसिंह तथा रामसिंह का उत्तराधिकारी शिवसिंह हुआ । शिवसिंह के निःसंतान मरने के कारण रतलाम का शासक उसका सौतेला भाई केशवदास बना ।

औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति के फलस्वरूप की गयी ज्यादतियों के कारण सन् 1694 ई0 में केशवदास के अधिकारियों द्वारा मुगल अधिकारी अमीन-इ-जजीया नासिरूद्दीन मारा गया। फलस्वरुप औरंगजेब द्वारा रतलाम का परगना जब्त कर लिया गया । तदनन्तर अगस्त 18, 1694 ई0 को केशवदास के परिजनों ने रतलाम को त्याग दिया । 1695 ई0 का वर्ष किसी प्रकार कठिनाइयों में यत्र-तत्र बिताया और अन्त में उन्होंने सीतामऊ में रहने का निश्चय कर 14 जनवरी 1696 ई0 को सीतामऊ में मुकाम किया। केशवदास उस समय दक्षिण में था । वह उसी तरह स्वामीभक्ति से शाही सेवा करता रहा।

सन् 1696 ई0 में पुनः केशवदास का भाग्य पलटा । तथा उसका मनसब पुनः बढ़ा कर पाँच सदी जात दो सौ सवारों का कर दिया । उस समय उसे मनसब के अनुरूप धार परगने में कुछ गांव तथा नाहरगढ़ का परगना जागीर में मिला था । नाहरगढ़ प्राप्त होने पर भी केशवदास ने अपने परिवार को सीतामऊ में ही रखा । सितम्बर 3, 1696 ई0 को मानसिंह राठौड़ की सिफारिश पर केशवदास के मनसब में दो सौ सवार और बढ़ा दिये, परन्तु इसके साथ दिये गये गांवों का निर्णय नहीं हो पाया था। क्योंकि उस समय शाही कार्यों में शिथिलता आ गयी थी । जनवरी 1699 ई0 में जाकर उसे सीतामऊ के आसपास के गांव जागीर में प्राप्त हुए ।

1699 ई0 में ही उसके मनसब में 1 सदी जात और 1 सौ सवारों की वृद्धि भी की गयी। महाराजकुमार डा. रघुबीरसिंह ने लिखा है कि - "पिछले पचास वर्षों में सीतामऊ का सापेक्षिक महत्व बढ़ गया था ।" किन्तु अब भी इस परगने का केन्द्र तीतरोद परगने के नाम से ही जाना जाता था । तब केशवदास तीतरोद परगने की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हुआ । 31 अक्टूबर 1701 ई0 को वह अपने प्रयासों में सफल रहा और औरंगजेब द्वारा उसे तीतरोद परगने की सनद दी गयी। केशवदास ने अपनी जागीर का केन्द्र तीतरोद के स्थान पर सीतामऊ को बनाया । और इस प्रकार मालवा में सीतामऊ नामक नवीन राठौड़ राज्य की स्थापना हुई ।

केशवदास की मृत्यु शाही सेवा में रहते हुए ही दिल्ली में हो गयी । केशवदास का ज्येष्ठ पुत्र बखतसिंह अपने पिता के जीवनकाल में ही निःसंतान मर गया था । तब केशवदास का छोटा पुत्र गजसिंह सीतामऊ का शासक बना । गजसिंह ने लगभग 18 वर्ष तक शासन किया । 1752 ई0 में उसकी मृत्यु हो गयी तब उसका पुत्र फतहसिंह सीतामऊ का शासक बना । फतहसिंह के शासनकाल में सीतामऊ राज्य पर मराठों का आतंक बढ़ गया था । तब फतहसिंह ने सीतामऊ से 3 कि.मी. दक्षिण में स्थित लदूना को अपनी आपातकालीन राजधानी बनाया । फतेहसिंह ने 1787 ई0 में अपने नाम का सिक्का ढलवाया। यह सिक्का सीतामऊ में लगभग 100 वर्ष तक प्रचलित रहा। फतेहसिंह का निधन लदूना गढ़ में ही 1802 ई0 को हुआ । फतहसिंह की मृत्युपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र राजसिंह सीतामऊ का शासक बना। राजसिंह के शानकाल के प्रारम्भिक वर्षों में मराठों का आतंक और अधिक बढ़ गया था । तब नवम्बर 1820 ई0 में सर जान मालकम की मध्यस्थता से ब्रिटिश प्रतिभूति के अन्तर्गत 60000/- रुपये वार्षिक कर सिंधिया को देना तय किया गया । तदन्तर सीतामऊ राज्य पर राजसिंह के आधिपत्य की अंतिम रूप से पुष्टि की गई । तब सीतामऊ में पुनः शांति स्थापित हो गयी और राजसिंह अपनी राजधानी लदूना से पुनः सीतामऊ ले आया । सन् 1867 ई0 में राजा राजसिंह का निधन हो गया । राजसिंह के दो पुत्र थे रतनसिंह एवं अभयसिंह। अभयसिंह 20 वर्ष की उम्र में ही मर गया था । महाराजकुमार रतनसिंह का जन्म 11 अप्रेल 1808 ई0 को हुआ था । वह बहुमुखी प्रतिभा वाला राजकुमार था। विद्या अध्ययन के साथ ही वह आखेट प्रिय भी था । उसे उर्दू, हिन्दी, ब्रज, संस्कृत और डिंगल आदि भाषाओं का ज्ञान था । अपने पिता राजा राजसिंह एवं गुरु स्वरूपदास से प्रेरणा प्राप्त कर वह "नटनागर" उप नाम से अनेक भाषाओं में कविता करने लगा था । उसने 'नटनागर विनोद' तथा 'दीवाने उश्शाक' नामक ग्रंथ की रचना की उसने कई काव्य ग्रंथों को संग्रहीत भी किया था। वह संगीत एवं वाद्य कला का भी शौकीन था । उसे घुड़सवारी का भी शौक था। घोड़ो के लक्षणों व गुणों पर उसने ‘अश्व विचार’ की रचना की थी ।

राजा राजसिंह के शासन काल में सीतामऊ राज्य में कई उतार-चढ़ाव आये । परन्तु शान्ति स्थापित होने के पश्चात् उसने सीतामऊ एवं लदूना गढ़ में अनेक निर्माण कार्य करवाए । उसके साथ ही उसके परिजनों एवं सीतामऊ की प्रजा ने भी अनेक निर्माण कार्य करवाए ।

सम्पूर्ण मालवा में फैले इस विद्रोह की अग्नि से सीतामऊ राज्य भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। प्रसिद्ध इतिहासकार डा0 रघुबीरसिंह का मत था कि सीतामऊ राज्य किसी भी मुख्य राजमार्ग अथवा प्रान्तीय मार्ग पर नहीं पड़ता था, तथा यहाँ की प्रजा भी अपने वयोवृद्ध जन प्रिय शासक राजा राजसिंह (1802-1867) और उनके सुयोग्य प्रौढ़ कवि उत्तराधिकारी राजकुमार रतनसिंह ‘नटनागर’ से पूर्णतया सन्तुष्ट थी, अतः यहाँ पूर्ण शान्ति बनी रही । इससे स्पष्ट है कि सीतामऊ राज्य की आन्तरिक स्थिति पर इस विद्रोह का कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ा । तथापि (शुक्रवार, जून 12, 1857 ई0) को महिदपुर के सवार रीसाले वाले सीतामऊ में आये । बीदत करने लगे । जद रईयत बोहोतसी घबराई बा रीसाले वाले लोगों को सरकार सीतामऊ वाले सीपाहियों ने घुरकाये- धमकाये लेकिन वो लोग बरसरे फसाद थे । आखरस सेहर के कीवाड़ दरवाजे सेहरपंना के बंद कर लिये । जब उन लोगों ने सेहर के बाहर जीदर कहीं घांस लकड़ी वा रसद पाई लूट ली" । राजा राजसिंह इस समय इन विद्रोही सैनिकों का बलपूर्वक प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं था । अतः अपनी प्रजा को बचाने के लिए उसने इन विद्रोही सिपाहियों को सीतामऊ राज्य की सीमा से शान्तिपूर्वक चले जाने के लिए 28000 /- रुपये दिये । इस प्रकार राजा राजसिंह ने अपने राज्य को लूटमार से तो अवश्य बचा लिया, किन्तु इस घटना की जानकारी किन्ही साधनों से अंग्रेज अधिकारियों को मिल गई, जिसकी संभावित नाराजगी और शंका वजीरबेग के पत्र में मिलती है -‘साहेब ममदू बड़े झुंजलाये और खफा होकर दांत पीसकर बोले के उन बदमासों का मुकाबला क्यों नहीं करा । नवाब साहेब के जरा से गाम में वो बदमास लोग गये थे, एक थाने के सीपाहियों ने दो आदमी सवार मार लिये । तुम लोग सब तरे देते हो।’

राजा राजसिंह की इस नीति के कारण सीतामऊ राज्य विद्रोहियों की लूटमार से तो बच गया किन्तु मन्दसौर और नीमच की घटनाओं और अंग्रेज अधिकारियों की यात्राओं के कारण यहाँ का वातावरण उत्तेजित बना रहा । तथा नगर व क्षेत्र की आबादी में मुसलमानों का प्रधान्य था। वहाँ के राजकीय सुरक्षा दल के पठान, अरब, अफगान, रूहेला, विलायती और मकरानी सिपाहियों का भी जिहाद के नाम पर उत्तेजित होकर उनका विद्रोही बनना अवश्यम्भावी था । सीतामऊ राज्य इस समय सैनिक और आर्थिक दृष्टि से पूर्णरूप से सक्षम नहीं था । ऐसी स्थिति में विद्रोही सैनिकों और अंग्रेजी सरकार के परस्पर विरोधी धाराओं के मध्य फंसकर राजा राजसिंह दुविधाजनक स्थिति में पड़ गया । इस समय सीतामऊ राज्य की स्थिति ‘दो नाहर में अपन एक बकरी’ के समान हो गई थी । एक तरफ विद्रोही सैनिक मदद के लिए राजसिंह पर दबाव डाल रहे थे, तो दूसरी ओर विद्रोहियों को दबाने, उनको राज्य की सीमा से खदेड़ने के लिए अंग्रेज अधिकारियों के निर्देश निरन्तर पहुँच रहे थे । राजसिंह की इस दुविधापूर्ण स्थिति का सही चित्रण मिर्जा वजीरबेग ने अपने पत्रों में बार-बार किया है - ‘हमारे पास ऐसी जमयत नहीं के हंम उनका मुकाबला करते ओर अवली हंम तो टांके के जुलम से तबा हो रहे हैं । अगरचे कम जमयत से हंम मुकाबला करते वो बदमाश लोग सेहर को तबा कर देते तो मुसकील थी ।’ इसी तरह एक दूसरे पत्र में वजीरबेग लिखता है - ‘अब बड़ी मुसकील है । दो नाहर में अपन अनेक बकरी हैं। मन्दसौर की ताबेदारी करे तो अंगरेजों से मारे जाते हैं और अंगरेजों की फरमेबदारी नहीं करते है तो जो ज्यांने क्या गजब करेंगे ।’

विशेषतया सीतामऊ राज्य की स्थिति तब और विकट हो गई जब मक्का से हज कर मुगल शाहजादा फिरोजशाह जुलाई 1857 ई0 के अन्त तक मालवा में आ पहुँचा था । शाहजादा फिरोज शाहआलम द्वितीय (1759-1806) के पौत्र, निजामबख्त और आलमगीर द्वितीय (1754-1759) की प्रपौत्री, आबादी बेगम का पुत्र था । जब वह मालवा में आया था तब वह साधनहीन था, परन्तु वह मुसलमानों की दृष्टि में विशेष आदरास्पद हो गया था । वह सर्वप्रथम खाचरोद पहुँचा और जब उसने वहाँ जिहाद की घोषणा की तब वहाँ के कमाविसदार वाकर हुसेन ने मार भगाया तब उसने वहाँ से कोई 8 कि.मी. दूर स्थित फरनाजी मन्दिर के पास शरण ली । यहाँ उसके साथ आस-पास के सैकड़ों मुसलमान एकत्र हो गये, और उनकी संख्या निरन्तर बढ़ती ही गई । तब इस दल बल के साथ वह मन्दसौर जा पहुंचा। इसके आगमन के साथ ही मन्दसौर में सर्वव्यापी विद्रोह हो गया, तथा वहाँ की राजकीय सेवा (सिंधिया के अन्तर्गत) में रत मकरानी, विलायती, अरब आदि सब ही सिपाही शाहजादा के साथ जा मिले । तब उत्साही कट्टर मुसलमानों ने मंगलवार, भाद्रपद वदि 6, 1914 वि0 (अगस्त 11, 1857 ई0) को हुमायूँशाह के नाम से शाहजादा फिरोज को गद्दी पर बैठा दिया । अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए उसने आस-पास के राज्यों यथा प्रतापगढ़, सैलाना, रतलाम, जावरा व सीतामऊ आदि के शासकों को फरमान भेजकर उसकी सत्ता को मान्य कर शस्त्रादि व धन से उसकी सहायता करने का आग्रह किया। जब यह खबर चारों तरफ फैली तब उसकी घोषणाओं से प्रभावित होकर हजारों मेवाती, विलायती, मकरानी हर तरफ से नौकरी छोड़कर आने लगे और शाहजादा की सेना में सम्मिलित हो गये और यों सितम्बर, 1857 ई0 में उसकी सेना में कुल मिलाकर लगभग 18000 सैनिक हो गये थे ।

इस प्रकार शाहजादा फिरोज के गद्दी पर बैठते ही उसने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध खुला विद्रोह कर दिया । उस समय सीतामऊ राज्य के भी कई एक मुसलमान मन्दसौर में इन विद्रोहियों से जा मिले थे । जिसका विवरण वजीरबेग के पत्रों में कुछ इस तरह लिखा है - ‘बाजे-बाजे मुसलमान साकीन खास सीतामऊ से बदलकर मन्दसौर में फसादी लोगों में जा मिले थे, सो केतेई मरे होंगे केतेई जीते भागे होंगे।’

ऐसी विकट स्थिति में राजसिंह की दुविधा और भी बढ़ गई । तब मिर्जा वजीरबेग ने भी राजसिंह को सलाह दी कि इस समय सोच समझकर कदम उठाना चाहिए । जैसा कि पत्र में लिखा है - ‘जमाना खराब है । और फेर हजरते मंनदसौर हैं, सो जो कांम करो सो समजकर करोगे ओर कीसी का भरोसा ऐतबार न रखोगे । रतलाम, जावरा, सलाना, मनदसौर की ताबेदारी करे तो आप बी करना और सारों से अवल आपको घबरावें तो जवाब साफ लिखना के रतलाम, सलांना, जावरा हाजर होगा तो हम बी हाजर हें । ओरों के भले आदमी आवें तो अपने ईयांहां से बी कीसी को भेज दो ।’

ऐसे अवसर पर राजा राजसिंह स्थिति पर नजर जमाये राजनैतिक उलट-फेरों का गहन अध्ययन कर रहा था । शाहजादा फिरोज द्वारा आस-पास के राज्यों को हाजिर होकर आज्ञा मानने का आदेश तो पहले ही दे दिया गया था । जब यह समाचार अंग्रेजों को ज्ञात हुआ तो उनके कान खड़े हो गये । महिदपुर से भागा मेजर टिमिन्स अपनी टोली के साथ जावरा, सीतामऊ में शरण ढूंढता धूम रहा था । शनिवार, जुलाई 11, 1857 ई0 को मेजर टिमिन्स सीतामऊ पहुंचा । तब राजा राजसिंह ने मेजर टिमिन्स को सीतामऊ राज्य की संकटकालीन पुरानी राजधानी लदूना में ससम्मान ठहराया तथा पूर्ण सुरक्षा के साथ भगोर के ठा0 रतनसिंह को 15 सवार देकर टिमिन्स को नीमच पहुंचाया । किन्तु वहाँ पर स्थिति अनुकुल न देखकर वापिस सीतामऊ लाकर अपने सवार व हाथी देकर पुनः महिदपुर भिजवा दिया ।

गुप्तचरों का जाल व जगह-जगह अपने वफादार व्यक्ति शाहजादे ने नियुक्त कर रखे थे। तभी तो उसे मेजर टिमिन्स की गतिविधियों की जानकारी शाहजादे फिरोज को तत्काल उपलब्ध हो गयी । तब शाहजादे ने अपने विद्रोही सैनिकों से कहा कि - ‘जो परवाने आस-पास के रईसों को भेजे गये हैं, उनका उद्देश्य दहशत फैलाना नहीं है, हमारे शत्रु तो अंग्रेज हैं जिन्हें यहाँ से भगाना है। इसके लिए रसद और रकम की जरूरत होगी, आस-पास के रईस (राजा लोग) अगर वतन परस्त होंगे तो हमारी मदद करेंगे। जावरा से तो विद्रोह कर अब्दुलसत्तार रसद के साथ पहले ही आ चुका है । अतः शेष भी हमारी मदद करें।’ इस उद्देश्य पूर्ति के लिए शाहजादा ने केदारराव और रहीमबख्श के नेतृत्व में दो हजार सैनिकों की एक फौज व चार तोपों के साथ सीतामऊ से पैसे वसूल करने को भेजा। राजसिंह को परवाना पहले ही भेजा जा चुका था जिसमें कहा गया था कि सवा लाख रुपया, दस घोड़े, एक हाथी और सेना की मदद भेजो और लगान की हर किश्त दाखिल करो । वरना फौज आकर तुम्हारी बरबादी करेगी ।’

केदारराव और रहीमबख्श के नेतृत्व में इस सेना ने मौजा बिलांत्री, सीतामऊ से दो कोस के फासले पर आकर डेरा डाल दिया। सीमा पर आयी विद्रोही सेना ने सीतामऊ में हलचल मचा दी । विकट परिस्थितियाँ देख राजसिंह ने जावरा नवाब को पत्र लिखा कि - ‘मन्दसौर की फौज युद्ध के लिए सीतामऊ से दो कोस की दूरी पर मौजा बिलांत्री में रुकी है व विद्रोह करना चाहते हैं । उन्हीं दिनों में सीतामऊ राजकुमार रतनसिंह ‘नटनागर’ जावरा में मौजूद थे, उन्होंने ऐसे अवसर पर हिदायत दी कि ऐसे नाजुक वक्त में सभी को एक हो जाना चाहिए व विद्रोहियों के फसाद का सामना करना चाहिए । मदद के तौर पर जावरा नवाब से कहा कि एक पेटी बारूद जरूर भेज दें व हमेशा हमारी तरफ ध्यान रखे।

जावरा नवाब ने इस पत्र के मिलते ही बैरीसाल को अपनी सिपाही पलटनों को बारूद, तोप देकर सीतामऊ तुरन्त भेज दिया और पत्र के जवाब में लिखा कि - ‘हम दिल व जान से आपके साथ हैं, आप किसी तरह की फिक्र न करें अगर विद्रोहियों का ज्यादा डर हो तो आप जावरा या नीमच चले जायें ।’

इसी पत्र के दूसरे दिन एक अर्जी सीतामऊ राज्य के कामदार हुलासराय की भी जावरा नवाब के पास पहुँची जिसमें लिखा था कि - ‘मन्दसौर की दो-तीन हजार फौज चार तोपों के साथ सीतामऊ से एक-डेढ़ कोस के फासले पर पड़ी है । हुजूर राजा साहब बहादुर को बहुत फिक्र हुई, हमारे पास जो फौज है वह लड़ने लायक नहीं है और हमारे सारे गाँव मन्दसौर के गांवों से मिले हुए हैं । इन कारणों से लड़ना मुनासिब नहीं समझा। इस समय पाँच रुपये देने से फिर भी व्यवस्था की सूरत नजर आये तो बेहतर है। भोपालसिंह को शाहजादा की फौज के साथ मन्दसौर भेजा है। मन्दसौर में जो बात ठहरेगी उससे हुजूर को खबर दूंगा । लेकिन सिंधिया सरकार जब टांका मांगेगी इसकी क्या व्यवस्था की जाये, जैसी हुजूर सलाह दें वैसा ही अमल करें। वर्षा की अधिकता के कारण परगना खराब हो गया है । विद्रोहियों ने तरह-तरह की तकलीफ दे रखी है । खजाना में रुपया नहीं और कोई साहुकार ऐसा नहीं कि कर्जा दे। ये सब बातें हुजूर से छिपी हुई नहीं हैं । बाबा आप्टे को कई बार लिखा कि हमारी मदद के वास्ते फौज भेजो, लेकिन उस तरफ से कुछ व्यवस्था की सूरत नजर नहीं आती । हुजूर ने जो फौज भेजी है उसे वापिस बुला लें, जरूरत पड़ेगी तो फिर देखा जावेगा । गोला-बारूद रख लिया है और मन्नुखां गोल अन्दाज को काम सिखाने के लिए रोक लिया है । हमारे यहाँ गल्ला (अनाज) की बहुत तकलीफ है, ताल पर आदेश हो जाये कि जरूरत के हिसाब से लाने दें । फुरसत मिली तो हुजूर की कदमबोसी के लिए हाजिर होउंगा। जावरा नवाब ने अनाज भिजवाने का आदेश दे दिया व सीतामऊ की हर सम्भव मदद करने का यकीन दिलाया ।

इधर जब भोपालसिंह फौज के साथ मन्दसौर पहुँचा तो शाहजादे फिरोज ने उसे कैद कर लिया तब भोपालसिंह ने आठ हजार हुण्डी नजराने के तौर पर दी । जबकि वजीरबेग के पत्र में कुछ इस तरह से लिखा है - ‘राजे साहेब ने बदमासों को रुपया दिया सो हमे याद है ।’ बादशाह गिरहा के अनुसार भी 28 हजार रुपये के साथ भोपालसिंह के नेतृत्व में राजपूत योद्धाओं की एक टुकड़ी शाहजादा की सेवा में भेजी थी ।

राजा राजसिंह को मिर्जा वजीरबेग के पत्रों से निरन्तर अंग्रेज अधिकारियों और विद्रोही सैनिकों की गतिविधियों का पता चलता रहता था । विद्रोही सैनिकों की आर्थिक मदद कर राज्य को उनकी लूटमार से बचा लिया । बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी देखते हुए उनकी मदद करने का फैसला कर राज्य को अंग्रेजों के कोप से भी बचाया ।

उसके शासन काल में साहित्य के क्षेत्र में भी विकास हुआ । वह कवियों और साहित्यकारों का आश्रयदाता भी था और उन्हें जागीर देने का उल्लेख भी मिलता है । महाराजकुमार रतनसिंह का दुर्भाग्यवश घोड़े से गिर जाने के बाद अस्वस्थता के कारण 26 जनवरी 1864 ई0 को निधन हो गया । तब राजसिंह की मृत्युपरान्त रतनसिंह का पुत्र भवानीसिंह जून 19, 1867 ई0 को सीतामऊ का शासक बना। भवानीसिंह के शासनकाल में ब्रिटिश सरकार ने 26 जून, 1867 को सीतामऊ को एक स्वतंत्र राज्य स्वीकार करते हुए यहाँ के शासक को हिज हायनेस की पदवी तथा 11 तोपों की सलामी का सम्मान प्रदान किया । मई 28, 1885 ई0 को भवानीसिंह का निधन हो गया । वह पुत्र विहीन मरा था। अतः उसके निकट संबंधी चीकला महाराज तखतसिंह के ज्येष्ठ पुत्र बहादुरसिंह को गोद लेकर सीतामऊ का शासक बनाया गया । वह भी पुत्र विहीन मरा तब उसके छोटे भाई शार्दुलसिंह को सीतामऊ का शासक बनाया गया । शार्दुलसिंह के शासनकाल में सीतामऊ में अकाल तथा महामारी फैली । उसी महामारी में 10 मई 1900 ई0 को राजा शादूर्लसिंह का निधन हो गया ।

राजा शार्दुलसिंह भी निसंतान मरा था । अतः एक बार फिर उत्तराधिकार की समस्या सामने आई। तब उस परिस्थिति में उस समस्या का समाधान अंग्रेज सरकार द्वारा किया । और धरमाट के युद्ध में काम आने वाले रतनसिंह के दूसरे पुत्र रायसिंह के वंशज काछी बड़ौदा के महाराज दलेलसिंह के द्वितीय पुत्र रामसिंह को सीतामऊ का शासक बनाया गया ।

शिक्षा में सुधार

राजा रामसिंह के शासनकाल में सीतामऊ राज्य का चहुमुखी विकास हुआ । वह समय सीतामऊ का स्वर्ण युग था । उसने सिंहासनारोहण के पश्चात ही प्रशासन में अनेक सुधार किये।

राजा रामसिंह प्रारम्भ से ही शिक्षा के महत्व को जानता था अतः उसने शिक्षा के विकास हेतु अनेक प्रयास किये । उस समय सीतामऊ में एक माध्यमिक विद्यालय चलता था । 1907 ई0 में इस विद्यालय की एक शाखा लदूना नगर में भी खोली गयी । 1920 ई0 में सीतामऊ नगर में ‘श्री राम हाईस्कूल’ स्थापित किया गया । विद्यालय का संचालन राजा द्वारा गठित बोर्ड द्वारा किया जाता था । बोर्ड के अन्दर तीन स्टेट के एवं तीन गैर सरकारी सदस्य होते थे । राज्य का दीवान बोर्ड का अध्यक्ष होता था । सन् 1935-36 ई0 में ‘संस्कृत विद्यालय’ की भी स्थापना की गयी थी । बालिकाओं की शिक्षा के लिये ‘सरसकुंवर’ कन्या विद्यालय की भी स्थापना की गयी थी । सीतामऊ नगर के साथ ही ग्रामीण शिक्षा पर भी तत्कालीन समय में पूर्व ध्यान दिया गया। 1939-40 ई0 में अनेक गांवों में विद्यालय खोले गये । ग्राम शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण हेतु कमेटी का गठन किया गया । कमेटी का अध्यक्ष महाराजकुमार रघुबीरसिंह को बनाया गया । कमेटी द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम को 1940 ई0 में लागू किया गया । लदूना, दीपाखेड़ा, दलावदा, खेजड़िया, तीतरोद, ऐरा, चीकला, मानपुरा, साखतली और खजूरी आदि गांवों में विद्यालय खोले गये थे । इसके साथ ही रियासत के राजपूत छात्रों के अध्ययन के दौरान निवास की सुविधा हेतु महाराजकुमार रघुबीरसिंह के नाम से 1933 ई0 में रघुबीर राजपूत बोर्डिंग हाऊस का निर्माण किया गया ।

यों शिक्षा के क्षेत्र में चहुमुखी विकास के लिये राजा रामसिंह द्वारा अनेक कार्य किये गये।

कृषि संबंधी सुधार

राजा रामसिंह द्वारा कृषि की उन्नति एवं कृषकों के उत्पादन के भी अनेक प्रयास किये गये। वह जानता था की राज्य की कमजोर अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये भू-राजस्व को सुधारना आवश्यक था । अच्छा भू-राजस्व उन्नत कृषि पर ही निर्भर हो सकता है । अतः राजा रामसिंह ने कृषि लायक भूमि जो पड़त पड़ी थी उसे आबाद करने के लिये उस भूमि के पट्टे किसानों को दिये । उस जमीन पर सिचांई सुविधा हेतु कुंए खुदाने के लिये किसानों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की गयी। फलरूवरूप 44 नये कुंए खोदे गये और 250 बीघा अतिरिक्त जमीन में सिंचाई होने लगी ।

साथ ही राजा रामसिंह ने इस बात की समुचित व्यवस्था की थी कि कोई भी राजकीय कर्मचारी लगान या ऋण वसूल करते समय किसानों पर किसी प्रकार का अत्याचार या दुर्व्यवहार न करे । वह इस बात का पूरा ध्यान रखता था कि किसानों पर किसी प्रकार का अन्याय न हो। उसने पशुओं के स्वास्थ्य के लिये पशु चिकित्सालय बनवाया तथा आधुनिक तकनीक से कृषि करने के लिये प्रशिक्षण हेतु कृषि फार्म की स्थापना की जिसमें समय-समय पर बाहर से कृषि विशेषज्ञों को आंमत्रित कर किसानों को नवीन प्रशिक्षण दिलवाये ।

वन विभाग की स्थापना

सीतामऊ राज्य की सीमा में रक्षित जंगल था जिसे राड़ी कहा जाता था यह जमीन घास एवं राज परिवार के शिकार हेतु सुरक्षित रखी गयी थी । आस पास के लोग उस जंगल से लकड़ी की अवैध कटाई करते थे, अतः राजा रामसिंह ने वन सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिये 1909 ई0 में ‘वन विभाग’ की स्थापना की । इस वन विभाग में एक अधिकारी एक उसका सहायक एक लिपिक तथा पाँच जवानों की नियुक्ति वन संरक्षण के लिये की गयी थी । इन कर्मचारियों को सख्त निर्देश दिये गये थे कि ये लोग वन की सुरक्षा कर पूरा ध्यान रखे ।

नगर पालिका की कार्य प्रणाली में सुधार

यों तो सीतामऊ रियासत में 1895 ई0 से ही नगरपालिका कार्यरत थी । स्थापना के समय से ही इसमें राजा द्वारा नियुक्त व्यक्तियों को ही सम्मिलित किया गया था । राजा रामसिंह के काल तक यही व्यवस्था अस्तित्व में थी उस समय राज्य का दीवान उस कमेटी का प्रमुख होता था। प्रजा का इसमें सीधा दखल नहीं होने से प्रायः सामान्य जनता की कठिनाईयों का निवारण यहाँ नहीं हो पाता था । तब राजा रामसिंह ने 1931 ई0 में नगरपालिका में प्रजा को प्रतिनिधित्व देने के लिये नगरपालिका के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 21 कर दी । इसमें आठ सदस्य रियासत द्वारा नियुक्त राजकीय अधिकारी व कर्मचारी होते थे शेष तेरह सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते थे। नगरपालिका में इन सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष होता था । यों राजा रामसिंह ने जनता के प्रतिनिधियों को सीधा नगरपालिका में प्रवेश देकर जनता की समस्याओं के समाधान एवं नगर के विकास की विशेष व्यवस्था की ।

व्यापारिक सुधार

राजा रामसिंह ने अन्य सुधारों के साथ ही व्यापारिक सुधारों की ओर भी ध्यान दिया । राज्य के व्यापारियों को तत्कालीन समय में तुलाई, गाड़ी व दलाली आदि की ठेका प्रणाली के कारण अलग-अलग लागें देना पड़ी थी । राजा रामसिंह में करों में एकरूपता लाने के प्रयास किये जिसके तहत विभिन्न प्रकार की लागों को समाप्त कर कई वस्तुओं पर अतिरिक्त मेहसूल लागू किया । इस कार्य का जिम्मा सायर विभाग को सौंपा गया । 1917 ई0 में दस्तुरुल अमल कस्टम रियासत सीतामऊ पारित कर मेहसूल की दरों में एक रूपता लायी गयी । राज्य में ढलने वाले नकली सिक्कों पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया । सन् 1926 ई0 में एक व्यापारिक बैठक की स्थापना भी की गयी जिसकी लागत 13800/- रुपये आयी थी । रियासत में रेजगारी की कमी को देखते हुए 1943 ई0 में एक आने से लेकर चार आने तक के कागज के सिक्कों का प्रचलन किया ।

न्याय एवं पुलिस व्यवस्था में सुधार

राजा रामसिंह एक प्रजावत्सल एवं न्यायप्रिय शासक था । उसकी न्याय प्रियता के किस्से आज भी बुजुर्ग लोगों के मुह से सुने जा सकते है । राजा रामसिंह को अपने सिंहासनारोहण के प्रारम्भिक चार वर्षों में न्याय संबंधी पूर्ण अधिकार ब्रिटिश सरकार से प्राप्त नहीं हुए थे । राज्य के फौजदारी के मामलों में मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास अथवा राज्य निर्वासन जैसी सजाओं के लिये उसे ए.जी.जी. से अनुशंसा लेनी पड़ती थी । इस कमी को पूर्ण करने के लिये उसने प्रयास किये और अन्ततः वह सफल रहा । अप्रेल 1921 ई0 को अंग्रेज सरकार ने राजा रामसिंह पर लगे न्यायिक प्रतिबंध को हटा कर उसे पूर्ण न्यायिक अधिकार दे दिये । राजा रामसिंह ने अपने अधिकारों को पाकर राज्य में न्याय व्यवस्था का पुनः गठन भी किया । उसने सत्र न्यायाधीश के अधिकार दीवान को प्रदान किये ।

इस कार्य हेतु वकीलों के लिये भी कोई नियम राज्य की ओर से निश्चित नहीं थे । वकालात करने के पूर्व उन्हें सनद लेने की भी आवश्यकता नही थी । राजा रामसिंह ने वकीलों के लिये सनद प्राप्त करना आवश्यक कर दिया । वकीलों की भी दो श्रेणियाँ निर्धारित कर दी गयी थी । प्रथम श्रेणी का वकील राज्य की सभी अदालतों में जाकर न्यायिकवाद की पैरवी कर सकता था, जबकि द्वितीय श्रेणी का वकील पेशी खास व महकमा खास में उपस्थित नहीं हो सकता था ।

इसी तरह पुलिस व्यवस्था में सुधार करते हुए राजा रामसिंह ने सीतामऊ शहर के अन्दर पुलिस चैकियाँ स्थापित की इसके साथ ही गांव लदूना में भी पुलिस चौकी स्थापित की । सन् 1912 ई0 में राज्य में घुड़सवार पुलिस की भी व्यवस्था कर दी गयी, इनको राज्य के रसालदार के अधीन कर दिया गया । इनमें आठ घुड़सवार हर समय तैनात रहते थे और चार सवार अन्यत्र कार्य करते थे ।

राजा रामसिंह प्रारम्भ से ही प्रजा हितेषी विचारों का था । अतः उसने अपने राज्य की प्रजा को स्थानीय शासन प्रबंध में भागीदार बनाने के लिये एक नया शासन विधान बनाया । उस शासन विधान को दिसम्बर 1938 ई0 में ”सीतामऊ राज्य शासन विधान“ नाम से रियासत में 1 जुलाई 1939 ई0 को लागू किया गया ।

रियासत के सामान्यजन को शासन के कार्यों में भागीदार बनाने हेतु इस शासन विधान के तहत राजा रामसिंह ने एक ”राज्य परिषद“ के नाम से राज्य की विधायिका का गठन किया। राज्य परिषद में एक अध्यक्ष तथा 21 सदस्य होते थे । सदस्यों में से 15 सदस्य प्रजाजन में से तथा 6 सदस्य शासन समिति के होते थे । उन 15 सदस्यों में से चार सदस्य सीतामऊ शहर में से एक सदस्य लदूना गांव से पांच सदस्य खालसा गांव के तथा तीन सदस्यों को रियासत के जागीरदारों द्वारा निर्वाचित किया जाता था । तथा शेष दो सदस्यों को राजा मनोनित करता था जो कि गैर सरकारी ही होते थे । नवीन शासन विधान के प्रथम अध्यक्ष के रूप में तत्कालीन युवराज डा. रघुबीरसिंह को नियुक्त किया गया था। राज्य परिषद के निर्वाचित सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष का होता था, लेकिन विशेष परिस्थिति में राजा इस कार्यकाल को घटा-बढ़ा सकता था । साथ ही गैर सरकारी सदस्यों के निर्वाचन के लिये फरवरी 1939 ई0 में चुनाव संबंधी नियम बनाकर प्रकाशित करवाये । इसी श्रृंखला में प्रशासनिक कार्यों में राजा के सहयोग हेतु कार्यपालिका की स्थापना की गयी जिसका नाम ‘शासन समिति’ रखा गया । शासन समिति में भी अध्यक्ष के अतिरिक्त छः सदस्य राजा द्वारा नियुक्त किये जाते थे । इस शासन समिति के अध्यक्ष भी युवराज डा. रघुबीरसिंह को ही बनाया गया था, दीवान मोतीलाल अवासिया को उपाध्यक्ष जसवन्तसिंह बांठिया को नायब दीवान, लालसिंह नवलखां को वित्त विभाग (फायनेंस मेम्बर) सम्भालने के लिये सदस्य तथा राजस्व व्यवस्था हेतु शिवरामकृष्ण गोड बोले (रेवेन्यु मेम्बर) तथा नन्दकिशोर व्यास, को सदस्य एवं कोमलसिंह मेहता को सचिव नियुक्त किया गया । शासन समिति की बैठक सप्ताह में दो बार होती थी । इस प्रकार समय की मांग को देखते हुए अपने विचारों को उदार बनाकर प्रजाहित में राजा रामसिंह ने अनेक कार्य किये ।

राजा रामसिंह ने शासन व्यवस्था में सुधार के साथ ही सीतामऊ नगर एवं आसपास अनेक निर्माण कार्य भी करवाए । जिसके तहत सीतामऊ नगर के अन्दर बने गढ़ में उसने किशन महल बनाया तथा गढ़ के परिसर में ही लक्ष्मी-नारायण मन्दिर बनवाया । वर्तमान में जहाँ राज परिवार के सदस्य निवास करते है वे भवन भी राजा रामसिंह द्वारा ही बनवाये गये थे । कोटेश्वर तथा भगोर में भी कोठियों का निर्माण राजा रामसिंह द्वारा ही करवाया गया था । राजा रामसिंह सीतामऊ के भारतीय संघ में विलीनीकरण तक सीतामऊ का शासक रहा। राजा रामसिंह का निधन 25 मई 1967 ई0 को हुआ ।