जैनेंद्र कुमार का पाँचवा उपन्यास 'सुखदा' (1953ई.) है, जो प्रारंभ में धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। इसका कथानक घटनाओं के वैविध्य बोझ से आक्रांत है। जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है इसकी प्रधान पात्री सुखदा है। उसका जीवन उसके लिए भार बन चुका है। वह एक धनी घराने की कन्या और विवाहिता है। वैचारिक असमानताओं के कारण उसके संबंध अपने पति से संतोषप्रद नहीं हैं। उपन्यास की यह परिस्थिति तो स्पष्ट है, परंतु इसको आधार बनाकर कथा का जो ताना-बाना बुना गया है, वह पाठक को विचित्र लगता है। कथा का उद्देश्य अंत तक अप्रकट ही रहता है। सुखदा के लाल की ओर आकर्षित होने पर भी कथानक का तनाव नहीं खत्म होता। अनेक स्वभावविरोधी प्रतिक्रियाओं तथा नाटकीय मोड़ों के बाद सुखदा पति को त्यागकर अस्पताल में भरती हो जाती है। अनेक अनावश्यक, अप्रासंगिक विवरणों तथा चमत्कारिक तत्वों से कथा अशक्त हो गई है।

सुखदा  
चित्र:Sukhda.jpg
सुखदा का मुखपृष्ठ
लेखक जैनेंद्र कुमार
देश भारत
भाषा हिंदी
विषय सामाजिक
प्रकाशक पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन तिथि 1939
पृष्ठ 206