1935 में जैनेंद्र कुमार के दूसरे उपन्यास 'सुनीता' का प्रकाशन हुआ। आरंभ में इसका दो तिहाई अंश चित्रपट में प्रकाशित हुआ था। गुजराती की एक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप से अनूदित भी हुआ। 'सुनीता' और जैनेंद्र की पूर्वप्रकाशित औपन्यासिक कृति 'परख' के कथानक में दृष्टिकोणगत बहुत कुछ समानता है। इस उपन्यास की कमियाँ भी स्पष्ट है। इसके पात्र-पात्रियों के व्यवहार और प्रतिक्रियाएँ निरुद्देश्य एवं अप्रत्याशित लगती हैं। अप्रत्याशित व्यवहार प्रदर्शन की भावना के कारण ही उपन्यास में क्षीण स्थल आए हैं। उपन्यासकार का पहेली बुझाने का आग्रह कृति में हलकापन ला देता है, परंतु कहीं-कहीं उपन्यास के चरित्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अतिशय उच्चता का परिचय देते हैं। जैनेंद्र का अटपटी कथा शैली इस उपन्यास में सहजता, स्वाभाविकता से युक्त प्रतीत होती है।

सुनीता  
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लेखक जैनेंद्र कुमार
देश भारत
भाषा हिंदी
विषय सामाजिक
प्रकाशक पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन तिथि 1935
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 817037109

इस दृष्टि से 'सुनीता' को जैनेंद्र की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है। उपन्यास के प्रभावशाली वातावरण और सप्राण चरित्रों के बीच पात्र चकित-सा रह जाता है। जैनेंद्र की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि और सशक्त वातावरण का चित्रण पाठक पर अमिट प्रभाव डालता है। 'सुनीता' के कथा-चक्र की सबसे भारी घटना निर्जन वन में अर्धरात्रि के समय उपन्यास की प्रधान पात्री सुनीता का हरि प्रसन्न के सामने निर्वसना हो जाना है। परंतु 'सुनीता' के चरित्रों की मानसिक अस्थिरता को देखते हुए इस घटना को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। इसके आधार पर जैनेंद्र पर नग्नवादिता के आरोप अनौचित्यपूर्ण हैं।

पात्र संपादित करें

  • सुनीता[1]
  • श्रीकान्त-सुनीता का पति
  • हरिप्रसन्न-श्रीकान्त का मित्र
  • सत्या-सुनीता की छोटी बहन
  • माधवी-सत्या की बड़ी बहन


संदर्भ संपादित करें

  1. जैनेन्द्र, कुमार (2018). सुनीता. नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. पृ॰ 10. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-263-5205-5.