सूरदास मदनमोहन
इस को sanjeev bot नामक बॉट द्वारा विकिपीडिया पर पृष्ठों को हटाने की नीति के अंतर्गत शीघ्र हटाने के लिये नामांकित किया गया है। इसका नामांकन निम्न मापदंड के अंतर्गत किया गया है: व2 • परीक्षण पृष्ठ इसमें वे पृष्ठ आते हैं जिन्हें परीक्षण के लिये बनाया गया है, अर्थात यह जानने के लिये कि सचमुच सदस्य वहाँ बदलाव कर सकता है या नहीं। इस मापदंड के अंतर्गत सदस्यों के उपपृष्ठ नहीं आते।यदि यह लेख इस मापदंड के अंतर्गत नहीं आता तो कृपया यह नामांकन टैग हटा दें। स्वयं बनाए पृष्ठों से नामांकन न हटाएँ। यदि यह आपने बनाया है, और आप इसके नामांकन का विरोध करते हैं, तो इसके हटाए जाने पर आपत्ति करने के लिए नीचे दिये बटन पर क्लिक करें। इससे आपको इस नामांकन पर आपत्ति जताने के लिये एक पूर्व-स्वरूपित जगह मिलेगी जहाँ आप इस पृष्ठ को हटाने के विरोध का कारण बता सकते हैं। ध्यान रखें कि नामांकन के पश्चात् यदि यह पृष्ठ किसी वैध मापदंड के अंतर्गत नामांकित है तो इसे कभी भी हटाया जा सकता है। प्रबंधक: जाँचें कड़ियाँ, पृष्ठ इतिहास (पिछला संपादन), और लॉग, उसके बाद ही हटाएँ, चूँकि इसे एक बॉट ने नामांकित किया है। वैकल्पिक रूप से आप चाहें तो सूरदास मदनमोहन के लिये गूगल परिणाम: खोज • पुस्तक • समाचार • विद्वान • जाँच लें।
|
ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे। ये जो कुछ पास में आता प्राय: साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे। कहते हैं कि एक बार संडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रूपये सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सब का सब साधुओं को खिलापिला दिया और शाही खजाने में कंकड़-पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिख कर रख दिए: तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके I सूरदास मदनमोहन आधी रातहिं सटके II और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए। बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे। इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए। इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं। इनका रचनाकाल सन् 1533 ई. और 1543 ई. के बीच अनुमान किया जाता है।