स्याद्वाद
स्याद्वाद (स्यात् + वाद) जैन दर्शन के अंतर्गत किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धान्त है।
दर्शन
संपादित करेंजैन मतानुसार किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही जैन दर्शन में नय कहलाता है। नय किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति ही संभव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वह अपने विचारों को नितान्त सत्य मानने लगते हैं और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही जैन दर्शन ने स्यादवाद या सप्तभंगी नय का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।[1]
सापेक्षिक ज्ञान और 'स्यात्'
संपादित करेंसापेक्षिक ज्ञान का बोध कराने के लिए जैन दर्शन में प्रत्येक नय के आरंभ में स्यात् शव्द के प्रयोग का निर्देश किया गया है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' नहीं है।[2] जैनियों ने इसका उदाहरण एक हाथी और छः नेत्रहीन व्यक्तियों के माध्यम से दिया है।[3] सभी नेत्रहीन ज्ञान की उपलब्धता और उस तक पहुँच की सीमा का बोध कराते हैं। यदि कोई हाथी को सीमित अनुभव के आधार पर कहे कि हाथी खम्भे, रस्सी, दीवार, अजगर या पंखे जैसा बताये तो वह उसके आंशिक ज्ञान और सापेक्ष सत्य को ही व्यक्त करता है। यदि इसी अनुभव में 'स्यात्' शब्द जोड़ दिया जाय तो मत दोषरहित माना जाता है। अर्थात, यदि कहा जाय कि- 'स्यात् हाथी खम्भे या रस्सी के समान है' तो मत तार्किक रूप से सही माना जायगा।
सप्तभंगी नय
संपादित करेंसापेक्षिक ज्ञान की तार्किकता के आधार पर जैन दर्शन में निर्णय या मत के सात प्रकार माने गये हैं। जैन दर्शन द्वारा आनुभविक निर्णय या मत के इस वर्गीकरण को ही सप्तभंगी नय कहा जाता है।
स्यात्-अस्ति
संपादित करेंयह पहला मत है। उदाहरण के तौर पर यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे जैसा है' तो उसका अर्थ होगा कि किसी विशेष देश, काल और परिस्थिति में हाथी खम्भे जैसा है। यह मत भावात्मक है।
स्यात्-नास्ति
संपादित करेंयह एक अभावात्मक मत है। इस परिप्रेक्ष्य में हाथी के संबंध में मत इस प्रकार होना चाहिए कि- स्यात् हाथी इस कमरे के भीतर नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कमरे में कोई हाथी नहीं है। स्यात् शब्द इस तथ्य का बोध कराता है कि विशेष रूप, रंग, आकार और प्रकार का हाथी इस कमरे के भीतर नहीं है। जिसके बोध में हाथी दीवार या रस्सी की तरह है उसके लिए अभावात्मक मत के रूप में इस नय का प्रयोग किया जाता है। स्यात् शब्द से उस हाथी का बोध होता है जो मत दिये जाने के समय कमरे में उपस्थित नहीं है।
स्यात् अस्ति च नास्ति च
संपादित करेंइस मत का अर्थ है कि वस्तु की सत्ता किसी विशेष दृष्टिकोण से हो भी सकती है और नहीं भी। हाथी के उदाहरण को ध्यान में रखें तो वह खम्भे के समान हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में 'स्यात् है और स्यात् नहीं है' का ही प्रयोग हो सकता है।
स्यात् अवक्तव्यम्
संपादित करेंयदि किसी मत में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उस विषय में स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। हाथी के संबंध में कभी ऐसा भी हो सकता है कि निश्चित रूप से नहीं कहा जा सके कि वह खम्भे जैसा है या रस्सी जैसा। ऐसी स्थिति में ही स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं जिनके संबंध में मौन रहना, या यह कहना कि इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, उचित होता है। जैन दर्शन का यह चौथा परामर्श इस बात का प्रमाण है कि वे विरोध को एक दोष के रूप में स्वीकार करते हैं।
स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च
संपादित करेंकोई वस्तु या घटना एक ही समय में हो सकती है और फिर भी संभव है कि उसके विषय में कुछ कहा न जा सके। किसी विशेष दृष्टिकोण से हाथी को रस्सी जैसा कहा जा सकता है। परन्तु दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो हाथी के स्वरूप का वर्णन असंभव हो जाता है। अतः हाथी रस्सी जैसी और अवर्णनीय है। जैनों का यह परामर्श पहले और चौथे नय को जोड़ने से प्राप्त होता है।
स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च
संपादित करेंकिसी विशेष दृष्टिकोण से संभव है कि किसी भी वस्तु या घटना के संबंध में 'नहीं है' कह सकते हैं, किंतु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अतः हाथी रस्सी जैसी नहीं है और अवर्णनीय भी है। यह परामर्श दूसरे और चौथे नय को मिला देने से प्राप्त हो जाता है।
स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च
संपादित करेंइस मत के अनुसार एक दृष्टि से हाथी रस्सी जैसी है, दूसरी दृष्टि से नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अवर्णनीय भी है। यह परामर्श तीसरे और चौथे नय को मिलाकर बनाया गया है।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ भारतीय दर्शन की रूप-रेखा, प्रो॰ हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, २0१0, पृष्ठ-१४८-१५२, ISBN:978 81 208 2143 9, ISBN:978 81 208 2144 6
- ↑ P.C. Mahalanobis. "The Indian-Jaina Dialectic of Syadvad in Relation to Probability (I)". Archived from the original on 23 नवंबर 2005. Retrieved ३१ जुलाई २0१२.
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(help) - ↑ "ELEPHANT AND THE BLIND MEN". Jain Stories. JainWorld.com. Archived from the original on 23 जनवरी 2009. Retrieved ३१ जुलाई २0१२.
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