स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि)

स्वयंभू, अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे।

स्वयंभू की उपलब्ध रचनाओं से उनके विषय में इतना ही ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम मारुतदेव और माता का पद्मिनी था। स्वयंभू छंदस् में एक दोहा माउरदेवकृत भी उद्धृत है, जो संभवत: कवि के पिता का ही है। उनके अनेक पुत्रों में से सबसे छोटे त्रिभुवन स्वयंभू थे, जिन्होंने कवि के उक्त दोनों काव्यों को उनकी मृत्यु के बाद अपनी रचना द्वारा पूरा किया था। कवि ने अपने रिट्ठीमिचरिउ के आरंभ में भरत, पिंगल, भामह और दण्डी के अतिरिक्त बाण और हर्ष का भी उल्लेख किया है, जिससे उनका काल ई. की सातवीं शती के मध्य के पश्चात् सिद्ध होता है। स्वयंभू का उल्लेख पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में किया है, जो ई. सन् 965 में पूर्ण हुआ था। अतएव स्वयंभू का रचनाकाल इन्ही दो सीमाओं के भीतर सिद्ध होता है।

अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं - पउमचरिउ (पद्मचरित), रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्ट नेमिचरित या हरिवंश पुराण) और स्वयंभू छंदस्। इनमें की प्रथम दो रचनाएँ काव्यात्मक तथा तीसरी प्राकृत-अपभ्रंश छंदशास्त्रविषयक है। ज्ञात अपभ्रंश प्रबंध काव्यों में स्वयंभू की प्रथम दो रचनाएँ ही सर्वप्राचीन, उत्कृष्ट और विशाल पाई जाती हैं और इसीलिए उन्हें अपभ्रंश का आदि महाकवि भी कहा गया है।

स्वयंभू की रचनाओं में महाकाव्य के सभी गुण सुविकसित पाए जाते हैं और उनका पश्चात्कालीन अपभ्रंश कविता पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। पुष्पदंत आदि कवियों ने उनका नाम बड़े आदर से लिया है। स्वयंभू ने स्वयं अपने से पूर्ववर्ती चउमुह (चतुर्मुख) नामक कवि का उल्लेख किया है, जिनके पद्धडिया, छंडनी, दुबई तथा ध्रुवक छंदों को उन्होंने अपनाया है। दुर्भाग्यवश चतुर्मुख की कोई स्वतंत्र रचना अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।

स्वम्भू को अपभ्रंश का वाल्मिकी कहा जाता है | हिन्दी के जैन कवियों में सबसे पहला नाम स्वयंभू देव का आता है। ये अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे। किंतु इन्होंने अपना ग्रंथ 'पउम चरिउ' (पद्म चरित्र - जैन रामायण) में ऐसी अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप इंगित है। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी ज्ञात होता है। इसका कारण यह है कि इन्होंने अपने ग्रंथ 'पउम चरिउ' और 'रिट्ठिनेमि चरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है। इन कवियों में एक 'रविषेणाचार्य' हैं। रविषेण के 'पद्म चरित' का लेखन काल विक्रम सम्वत 734 है। अत: स्वयंभू देव का समय सम्वत 734 के बाद है। सर्वप्रथम स्वयंभू देव का उल्लेख महाकवि 'पुष्पदंत' ने किया है।  महाकवि पुष्पदन्त ने अपने महापुराण का प्रारम्भ सं. 1016 में किया। अत: स्वयंभू देव का समय सं. 734 से 1016 के बीच ठहरता है। लगभग 300 वर्षों की लम्बी अवधि में ठीक सम्वत खोजना कठिन है। श्री नाथूराम 'प्रेमी' इस अवधि में स्वयंभू देव का काल सम्वत 734 से 840 के बीच मानते हैं। राहुल सांकृत्यायन सं. 847 के लगभग अनुमान करते हैं। इस सम्बंध में पर्याप्त ऐतिहासिक साम्रगी प्राप्त नहीं है। अभी हमें इसी से संतोष करना चाहिए कि स्वयंभू देव विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुए। स्वयंभू ने अपनी रचनाओं में अपने प्रदेश या जन्मस्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

। स्वयंभू की रचना 'पउमचरिउ' राम कथा पर केंद्रित हैं । इसमें कुल 5 कांड हैं- (1) विज्जाहर कांड (2) उज्झा कांड (3) सुंदर कांड (4) जुज्झ कांड (5) उत्तर कांड