स्वामी कल्याणदेव
स्वामी कल्याणदेव (1876 - 14 जुलाई, 2004) भारत के एक संन्यासी थे। अपने संयासी जीवन मे स्वामी जी ने 300 शिक्षण संस्थाओं का निर्माण कराया। साथ ही कृषि केन्द्रों, वृ़द्ध आश्रमों, चिकित्सालय, आदि का निर्माण कराकर समाज मे अपनी उत्कृष्ट छाप छोडी। उन्हें सन २००० में भारत सरकार ने समाज सेवा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था।[1]
स्वामी कल्याण देव महाराज का जन्म वर्ष 1876 मे जिला बागपत के गांव कोताना मे उनकी ननिहाल मे हुआ था। उनका पैतृक गांव कस्बा सिसौली के पास मुंडभर है। उनके पिता का नाम फेरु दत्त तथा माता का भोई देवी था। परिवार में संत-महात्मा आते थे, सत्संग और यज्ञ होता था। तीन भाइयों राजा राम, रिसाल सिंह में कालूराम सबसे छोटे थे। बचपन में रामायण सुनकर वैराग्य हो गया। दस-बारह बरस की उम्र में साधु मंडली के साथ अयोध्या, काशी, प्रयाग घूमे।
वर्ष 1900 में मुनि की रेती, ऋषिकेश में स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा ली। गुरु ने कालूराम को स्वामी कल्याणदेव नाम दिया। घर त्यागने के बाद वे कभी अपने गांव नहीं गए और न जीवन में माता-पिता से मिले।
स्वामी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे किसी गरीब की आंखों मे आंसू नही देख पाते और जितना उनसे बनता उसकी मदद करते। गरीबों की बदहाली, पीड़ा व पूंजीपतियों द्वारा उनका शोषण स्वामी जी को बडा ही कष्ट देता था। इन सब पीडा से गरीबों को निजात दिलाने का स्वामी जी ने बीडा उठाया। और उन्होंने कहा कि एक मात्र शिक्षा ही गरीबों की पीड़ा हर सकती है। यह इसका स्थाई समाधान है। इसलिए स्वामी जी ने अपने जीवन का आधार बिन्दु व अपने जीवन का उद्देश्य शिक्षा को बना लिया और पूरी तत्परता से स्कूल, कॉलेजों की स्थापना के लिए अपनी कमर कस ली। स्वामी जी कहा करते थे कि यदि गरीब शिक्षित होगा, जागरूक होगा और अपने पैरो पर खड़ा होगा तो उसे कभी किसी के पास मदद मांगने नहीं जाना पड़ेगा, उसका कोई शोषण नही कर पायेगा।
स्वामी जी अपने जीवन काल में सदा गरीब व जरूरतमंदों की मदद किया करते थे। वे कहा करते थे कि अपनी जरूरत कम करों और जरूरतमंदों की हर संभव मदद करो। परोपकार व मानव सेवा को ही वे परमात्मा की सच्ची ईबादत मानते थे। वे अपने सारे जीवन काल में कभी रिक्शा में नहीं बैठे शहर से बाहर जाने पर वे सदा पैदल ही सफर किया करते थे। वे कहते थे कि रिक्शा के माध्यम से आदमी आदमी को खींचता है। यह पाप है। वे पांच घरों में रोटी की भिक्षा लेते उसमे से एक रोटी गाय को, एक रोटी कुत्ते को और एक रोटी छत पर परिंदों के लिए डालते इस बीच यदि कोई भूखा आ जाता तो वे उसे अपनी हिस्से की राटी भी दे देते और जल पीकर हरि नाम का रसपान कर सो जातेे। स्वामी जी की इसी त्यागी प्रवृति का परिणाम था कि बडे-बडे गददी पर बैठे खादी के नेता और खाकी के अफसरान सदा उनके चरणों मे नतमस्तक रहते।
उनका उद्देश्य बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी प्रदान करना था। इस लिए स्वामी जी ने शिक्षा के साथ-साथ बच्चों के संस्कार पर भी बडा बल दिया। वे कहा करते थे कि बिना संस्कार के शिक्षा कभी सार्थक नही हो सकती। जब तक बच्चा अपने अध्यापकों का सम्मान नहीं करेगा, अपने गुरू के प्रति समर्पण नहीं करेगा, उसकी शिक्षा कभी सार्थक नहीं हो सकती। पढाने वाले गुरू के प्रति आदर सत्कार कर बच्चा एकलव्य की भाति अपने क्षेत्र में निपुणता हासिल कर लेता है। 20 मार्च 1982 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने स्वामी जी को सम्मानार्थ पद्मश्री से सम्मानित किया। स्वामी जी को समाज कल्याण का जो उददेश्य रहा उसमें कभी किसी से प्रतिष्ठा प्राप्त करना नहीं रहा, उन्हें जो पदमश्री से सम्मानित किया गया उसकी भी स्वामी जी को कभी कोई लालसा नही रही।
अपने संयम, परोपकार, आध्यात्मिक साधन व शिक्षा दान के आधार के कारण स्वामी जी सामान्य जीवन की 100 वर्ष की अवधि को पार कर आगे निकल गये। स्वामी जी की एक खास बात यह भी थी, कि वे एक बार जिस से मिल लेते उसे जल्दी से भूलते नहीं। स्वामी जी की एक खूबी यह भी थी कि कोई उनके द्वार से कभी खाली हाथ निराश नहीं लौटा जो भी मदद उन से बन पाती वे करते। वे सच्चाई के परम पुजारी थे। वे कहा करते थे कि सब में रब बसता है। लोक कल्याण ही परमात्मा की सच्ची उपासना है। वे कहा करते थे राम नाम भजना तब सार्थक होता है जब राम के गुणों को अपने अन्दर धारण कर राम की भॉति लोक कल्याण में अपना जीवन अर्पित किया जाये।
स्वामी जी का व्यक्तित्व बहुमुखी व बहुआयामी रहा। स्वामी जी ख्याति, प्रशंसा, कीर्ति और पद की महत्वकांक्षा से यथा सम्भव दूर रहकर व्यक्तिगत सुख-सुविधा को तिलांजलि देकर लोभ, मोह और स्वार्थ के सहज आकर्षण को त्याग कर अति सरल और अत्यन्त सात्विक जीवन व्यतीत करते। भौतिक सुख-समृ़िद्ध के इस युग में उनकी वेश-भूषा और सादगी उनकी अंतिम सांस तक गांधीवादी ही रही। वे समाज से जो भी लेते उसे कभी अपने लिए नहीं रखते वे उसे गरीब व असहायों को बांट दिया करते। सादा जीवन उच्च विचार का भाव रखते हुए सदा लोक कल्याण की भावना करते रहना ही उनकी महत्ता व लोकप्रियता का परम गोपनीय रहस्य है।
प्रो० रामपाल सिंह (भूतपूर्व प्राचार्य गांधी पॉलीटैक्निक कालेज) ने बताया कि स्वामी जी के जब तक हाथ-पाव सही काम करते रहे उन्होंने कभी किसी से अपना काम नहीं कराया, वे गांधी जी की भांति अपना कार्य स्वंय ही करते थे। वे कहा करते थे कि इस शरीर को आरामतलबी का आदि मत बनाओ, अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरों को कष्ट मत दो। शीत काल में वे जल्दी उठते और अपनी कुटिया के आगे झाडू लगाते जो भी सूखी लकडी, सूखे पत्ते मिलते उनका ढेर बनाकर उसमें आग लगाकर अपना पानी गरम करते, जबिक स्वामी जी के कई भगत उनकी सेवा करने के लिए हर समय तत्पर रहते थे। वे भ्रष्टाचार के काफी खिलाफ थे। समाज में फैले भ्रष्ट तंत्र पर स्वामी जी को बहुत पीडा होती थी।
स्वामी जी ने अपने जीवन काल में सुखदेव मंदिर में साधु-संतों व आम जन के लिए एक अन्न क्षेत्र की स्थापना कराई, भागवत कथा के लिए सुचारू बडे हवादार कक्षों का निर्माण कराया, ताकि लोग भगवत रस पान कर सके।
समाज की अतुलनीय एवं विशिष्ट सेवाओं के लिए स्वामी कल्याणदेव को वर्ष 1982 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने पद्मश्री से अलंकृत किया। तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायण ने वर्ष 2000 में पद्मभूषण की उपाधि दी। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के मेरठ दीक्षांत समारोह में तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने डी-लिट की उपाधि प्रदान की थी।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Padma Vibhushan, Padma Bhushan, Padma Shri awardees" [पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री पुरस्कार विजेता] (अंग्रेज़ी में). द हिन्दू. २७ जनवरी २००१. मूल से 14 नवंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ८ दिसम्बर २०१३.