हँड़िया को आदिवासियों का वोदका कहा जा सकता है, यह चावल की बनी शराब का नाम है जो आदिवासियों के जीवन का अटूट अंग है। यह झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ और भारत के अन्य आदिवासी इलाकों में काफी लोकप्रिय है। आदिवासी आम तौर शाम घिरने के बाद गीत संगीत के बीच हँडिया पी कर दिन की बातों को भुला कर अगले दिन की तैयारी में जुट जाते हैं यह लोग, यह सोच कर कि शायद नया दिन उनके लिए कुछ नया लेकर आए.

हँड़िया बनाने के लिये चावल को पानी और ख़मीर पैदा करने वाले कुछ तत्वों के साथ लगभग चौबीस घंटे छोड़ दिया जाता है, जिसके बाद यह सेवन करने योग्य हो जाता है। जैसा कि आम तौर पर हर तरह की शराब के साथ बात लागू होती है, हँड़िया का सेवन भी अल्प मात्रा में करने पर स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक माना जाता है। लेकिन अधिक सेवन से नशे के साथ साथ ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थय का नुकसान होता है। आदिवासी समाज में इस बुरी प्रथा को समाप्त करने के लिये सामाजिक मुहिम चलाये गये। उन्नीसवीं सदी में सबसे मज़बूत आंदोलन बिरसा मुंडा द्वारा छेड़ी गयी थी।