हरिदास ठाकुर (जन्म 1451 या 1450) महान वैष्णव सन्त थे। उन्होने हरे कृष्ण आन्दोलन के आरम्भिक प्रसार में महती भूमिका अदा की। रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के अतिरिक्त वे चैतन्य महाप्रभु के वे प्रमुख शिष्य थे।

नामाचार्य हरिदास ठाकुर
चित्र:Haridasa Thakura murti at Benapol in Bangladesh.jpg
धर्म हिन्दू धर्म
उपसंप्रदाय गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय
अन्य नाम मामा ठाकुर
यवन हरिदास
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ
जन्म 1450[1]
पूर्वी बंगाल
निधन पुरी, भारत
पद तैनाती
कर्मभूमि मायापुर तथापुरी, भारत
उपदि गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के नामाचार्य
पूर्वाधिकारी अद्वैत आचार्य
उत्तराधिकारी चैतन्य महाप्रभु
धार्मिक जीवनकाल
Ordination वैष्णव सम्प्रदाय-दीक्षा

हरिदास ठाकुर का जन्म खुलना जिले (सम्प्रति बंगलादेश में) के बूढ़न ग्राम में सं0 1507 में एक ब्राह्मण कुल में हुआ। इनके पिता का नाम सुमति तथा माता का गौरी था। ये छह महीने के थे तभी पिता की मृत्यु हुई और माता सती हो गई। मरने के पहले बालक को पिता ने एक कुटुंबी को सौंप दिया था जो कारणवश मुसलमान हो गया था पर उसने सच्चाई से इनकी धर्मरक्षा करते हुए पालन किया और कुछ बड़े होते ही पिता का अंतिम संदेश सुनाकर इन्हें विदा कर दिया। तदनुसार इन्होंने नामजप का व्रत लिया और एकांत सेवन करने लगे। इनकी ख्याति बढ़ी जिससे एक दुष्ट धनी ने एक वेश्या को परीक्षार्थ इनके पास भेजा पर फल उलटा हुआ। वह स्वयं भक्त हो गई। ये यहाँ से अन्यत्र चले गए पर वहाँ के नवाब ने एक यवन को हिंदू धर्मानुसार आचरण करते सुनकर पकड़ मँगवाया और बेंत मारते-मारते प्राण लेने का दंड दिया। पर ये समाधि में रत थे अतः बच गए। इस पर नवाब ने क्षमायाचना की। यहाँ से ये फुलिया जाकर कुछ दिन रहे और फिर बलराम आचार्य के पास चाँदपुर गए। यहीं श्री रघुनाथदास ने इनके सत्संग से लाभ उठाया था। यहाँ से यह श्री अद्वैताचार्य के पास शांतिपुर गए और वहाँ से श्री गौरांग के बुलाने पर नदिया पहुँचे। श्री नित्यानन्द के साथ ये हरि-नाम-प्रचार में लग गए। यहाँ से ये जगदीशपुरी गए। ये तीन लाख नामजप के व्रती थे और उसे अंत तक निबाहा। संवत् 1582 में यहीं इनका शरीर छूटा। समुद्र के किनारे इनका पक्का गोल समाधिमंदिर है, जिसके कुएँ का पानी मीठा है।

बाहरी कड़ियाँ

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  1. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; born नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।