हसन अल बसरी
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (मई 2015) स्रोत खोजें: "हसन अल बसरी" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
अबू सय्यद बिन अबी अल-हसन यासर अल-बासरी, अक्सर हसन बसरी (Arabic: حسن البصري, Ḥasan al-Baṣrī; 642 - 15 October 728)। सूफ़ी इस्लाम में संक्षेप में इमाम हसन अल-बसरी, एक मुस्लिम धर्मगुरु, सूफ़ी। [1] प्राचीन मुस्लिम साधकों में हसन अल बसरी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उन्होंने भारतीय साधुओं की तरह अपने जीवन में संन्यास को ही अधिक महत्व दिया था और दूसरे सूफी संतों की तरह रहस्यवाद को कम।
जीवन परिचय
संपादित करेंउनका जन्म मदीने में सन् 643 ई. में हुआ था और स्वर्गवास 11 अक्टूबर सन् 728 ई. को। उनकी मां हजरत मुहम्मद की पत्नी आयशा की परिचारिका थीं। हसन वास्तव में धनी थे और हीरे-जवाहरात का व्यवसाय करने वाले जौहरी थे। लेकिन उसे छोड़कर उन्होंने अपने लिए एक कष्टमय जीवन की राह चुनी।
दीक्षा
संपादित करेंउन्होंने चौथे खलीफा हजरत अली से संन्यास की दीक्षा ली थी। वह अत्यंत त्यागी और भगवत्प्रेमी थे। लेकिन इसके साथ वह बहुत अच्छे कानून दां और कवि भी थे। उनकी वाणी का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता था।
अत्तार ने उनके बारे में लिखा है कि वह बिल्कुल एकांत में रहते थे और किसी से भी उनकी कोई चाह नहीं थी। किसी ने भी उन्हें कभी हंसते हुए नहीं देखा था। उनके शिष्यों में सूफी भी थे और कट्टर मुसलमान भी। वह परमात्मा को सर्वातीत मानते थे, फिर भी उनका कहना था कि आत्मशुद्धि के द्वारा उसे पाया जा सकता है।
शिक्षा
संपादित करेंउनका कहना था कि सांसारिक बंधनों के मायाजाल को काटने पर ही मनुष्य परमात्मा को पाने की आशा रख सकता है। जिसने सभी इच्छाओं को त्याग दिया है और इस क्षणभंगुर संसार से मुंह मोड़ लिया है, उसे परमात्मा स्वयं ग्रहण करेंगे। बसरी कहते थे कि पाप कर्म में रत रहने वाले को परमात्मा दंड देता है, इसलिए अपने गुनाहों के लिए पश्चाताप करो।
बचपन में उन्होंने कभी कोई एक गलती की थी। उसे वह भूल न जाएं और फिर उस कर्म को दोबारा न कर बैठें, इस बात को बराबर स्मरण रखने के लिए वह जब भी नया वस्त्र धारण करते थे, तो उस समय उसे उस वस्त्र पर लिखकर रखते और लिखने के समय ऐसा क्रन्दन करते कि बेहोश हो जाते।
हसन अल बसरी ने बहुत बार कहा है कि इस संसार के प्रलोभनों में फंसकर उस दूसरे संसार को न बिगाड़ो। उनके मत से बुद्धिमान वही है जो कोई भी ऐसा काम नहीं करता जिससे उस संसार को पाने में बाधा हो। उनका कहना था कि सच्चा वैराग्य वही है, जो परमात्मा के लिए हो। स्वर्ग पाने की आशा से जो वैराग्य किया जाता है, वह वैराग्य नहीं है। अपने साथ रहने वाले एक फकीर सैयद जुबैर से उन्होंने एक बार कहा था कि संसार में तीन चीजों से हमेशा बचना चाहिए - 1. भूलकर भी सुल्तानों से संपर्क न रखें 2. किसी भी स्त्री के साथ एकांत में न रहें 3. किसी की बातों पर कान न दें।
हसन ने बार-बार दुहराया है कि नश्वर जगत की वस्तुओं के मोह को त्यागो, क्योंकि बिना उनसे छुटकारा पाए दूसरे संसार को पाना संभव नहीं हो सकता। वास्तव में उनके बाद के सूफी साधनों में रहस्यवादी प्रवृत्ति की जैसी प्रधानता देखी जाती है, वैसी हसन में नहीं। लेकिन फरीदुद्दीन अत्तार ने हसन बसरी के एक प्रवचन का उद्धरण दिया है जिसमें कहा गया है- जब स्वर्ग में वास करने वाले पहली बार अपनी आंखें खोलते हैं तो सात लाख सालों तक भावाविष्टावस्था में रहते हैं, क्योंकि अपनी परम विभूति के साथ परमात्मा अपने को उनके सामने प्रकट करते हैं। इस प्रकार से परमात्मा तक पहुंचने, उससे साक्षात्कार होने की बात भी हसन के प्रवचनों में पाई जाती है।
हसन बसरी कहते थे कि अनासक्ति का एक बिंदु सहस्त्रों सालों की नमाज़ और रोजा से श्रेष्ठ है। जिसने ईश्वर को पहचाना है उसने उनके प्रति प्रेम की स्थापना की है और जिसने संसार को पहचाना है उसने ईश्वर से शत्रुता की है। मनुष्य की अपेक्षा बकरी जैसा जीव भी सावधान रहता है जो चरवाहे का शब्द सुनकर चरना छोड़कर मैदान से उसकी ओर दौड़ आती है। लेकिन मनुष्य ईश्वर का आह्वान सुनकर भी उनकी ओर नहीं जाता और अपने भोग सुख से विरत नहीं होता।
- ↑ Frye, Richard Nelson (1975-06-26). The Cambridge History of Iran (अंग्रेज़ी में). Cambridge University Press. पृ॰ 449. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780521200936. मूल से 28 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2018.
The founder of the Basra school of Sufism, which is itself the source of all later Sufi schools, is the celebrated Hasan al-Basri, who was born in Medina in 21/642