हारीत संहिता, चिकित्साप्रधान आयुर्वेद का एक ग्रन्थ है। इसकी सफल चिकित्सा-विधि, वैद्य एवं रुग्ण दोनों के लिए उपयुक्त है। इसके रचयिता महर्षि हारीत हैं, जो आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य थे। आत्रेय पुनर्वसु के छः शिष्य थे और सभी शिष्यों ने अपने-अपने नाम से अपने-अपने तन्त्रों की रचना की। आचार्य पुनर्वसु ने अपने सभी शिष्यों द्वारा रचित पुस्तकों की शंकाओं का समाधान पूर्णरूपेण किया है, तदुपरान्त उनका अनुमोदन किया। हारीत संहिता आज भी उपलब्ध है, किन्तु यह वही (मूल ग्रन्थ) है या नहीं, यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता।

हारीतसंहिता में चिकित्सा की सभी विधाओं का वर्णन है। इस पुस्तक में आयुर्वेदीय वनस्पतियों द्वारा चिकित्सा की सम्यक् व्यवस्था वर्णित है, जो अति उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में देश, काल, वय का भी वर्णन है तथा यह चिकित्सकीय जड़ी-बूटियों से परिपूर्ण एवं एकल औषधि चिकित्सा के क्षेत्र में उपयोगी है।

मुख्य बातें संपादित करें

  • इसमें आयुर्वेद के ८ अंग बताए गये हैं। अगद एवं विषतन्त्र अलग-अलग अंग बताये हैं।
  • ६ स्थान -
  • प्रथम स्थान – अन्नपानस्थान,
  • द्वितीय स्थान – अरिष्टस्थान,
  • तृतीय स्थान – चिकित्सा स्थान,
  • चतुर्थ स्थान – कल्पस्थान,
  • पंचम स्थान – सूत्रस्थान,
  • षष्ठ स्थान – शारीरस्थान
  • अगद तंत्र – गुदरोग, बस्तिरोग, निरुह बस्ति, अनुवासन बस्ति का वर्णन
  • उपांग चिकित्सा – सद्योव्रण + दग्ध चिकित्सा
  • चिकित्सा के दो भेद – कोप, शमन
  • काल – ३ प्रकार
  • वय – ४ प्रकार
  • बाल – १६ वर्ष तक
  • युवा - ३५ वर्ष तक (काश्यप – ३४ वर्ष तक)
  • मध्यम – ७० वर्ष तक
  • वृद्ध – ७० वर्ष से ऊपर
  • क्षार + कषाय रस = वात कोपक
  • मधुर + अम्ल = वात शामक
  • मधुर + तिक्त = कफ कोपक
  • कटु + कषाय = कफ शामक
  • कटु + अम्ल = पित्त कोपक
  • मधुर + तिक्त = पित्त शामक

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें