हितहरिवंश

राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं भक्त कवि (?-1552)

आचार्य हितहरिवंश राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं भक्त कवि थे।[1]

गोस्वामी हितहरिवंश का जन्म मथुरा मण्डल के अन्तर्गत बाद ग्राम में वि ० सं ० १५५९ में वैशाख मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को प्रातः काल हुआ।[1] इनके पिता नाम व्यास मिश्र और माता का नाम तारारानी था। जन्म के अवसर पर इनके पिता बादशाह के साथ दिल्ली से आगरा जा रहे थे। मार्ग में ही बाद ग्राम में हितहरिवंश जी का जन्म हुआ। इनके जन्म के बाद व्यास मिश्र देवबन में रहने लगे[1] कहते हैं कि हितहरिवंश स्वप्न में राधिकाजी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया। अत: हित सम्प्रदाय को माध्व संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं। गोस्वामी जी ने सन् 1525 ई. में श्री राधावल्लभ जी की मूर्ती वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे।

 
Harivansh Mahaprabhu ji 010

गोस्वामी हितहरिवंश का पैतृक घर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देववन (वर्तमान देवबंद) नामक नगर में था। देवबंद में ही इनका प्रारंभिक जीवन व्यतीत हुआ। सोलह वर्ष की उम्र में रुक्मिणी देवी के साथ इनका विवाह हुआ, जिससे इनके एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए। तीस वर्ष की उम्र होने पर हरिवंश जी के मन में किसी अभ्यंतर प्रेरणा से ब्रजयात्रा करने की बलवती इच्छा पैदा हुई। बच्चों के छोटे होने के कारण इनकी पत्नी इस यात्रा में साथ न जा सकीं।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए हरिवंश जी ने अनुभव कर लिया था कि संसार का तिरस्कार कर वैराग्य धारण करना ही ईश्वरप्राप्ति का एकमात्र साधन नहीं है, गृहस्थाश्रम में रहते हुए ईश्वराराधन हो सकता है और दांपत्य प्रेम को उन्मयन की स्थिति तक पहुँचाकर भवबंधन कट सकते हैं। ब्रजयात्रा करने के लिए जब वे जा रहे थे तब मार्ग में चिरथावल गाँव में एक धर्मपरायण ब्राह्मण आत्मदेव ने अपनी दो युवती कन्याओं का विवाह हरिवंश जी से करने का आग्रह किया। इस आग्रह का प्रेरक एक दिव्य स्वप्न था जो हरिवंश जी तथा आत्मदेव को उसी रात में हुआ था। फलत: दिव्य प्रेरणा मानकर हरिवंश जी ने यह विवाह स्वीकार कर लिया और वृंदावन की ओर चल पड़े। वृंदावन पहुँचने पर मदनैंटेर नामक स्थान पर उन्होंने डेरा डाला। उनकी मधुर वाणी और दिव्य वपु पर मुग्ध हो दर्शकमंडली एकत्र होने लगी और तुरंत वृंदावन में उनके शुभामन का समाचार सर्वत्र फैल गया। वृंदावन में स्थायी रूप से बस जाने पर उन्होंने मानसरोवर, वंशीवट, सेवाकुंज और रासमंडल नामक चार सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य किया।

राधावल्लभीय उपासनापद्धति को प्रचलित करने के लिए हरिवंश जी ने सेवाकुंज में अपने उपास्यदेव का विग्रह संवत्‌ 1591 वि. (सन्‌ 1534 ई.) में स्थापित किया। इस संप्रदाय की उपासनापद्धति अन्य वैष्णव भक्ति संप्रदायों से भिन्न तथा अनेक रूपों में नूतन है। माधुर्योपासना को नया देने में सबसे अधिक योग इन्हीं का माना जाता है। हरिवंश के मतानुसार प्रेम या 'हिततत्व' ही समस्त चराचर में व्याप्त है। यह प्रेम या हित ही जीवात्मा को आराध्य के प्रति उन्मुख करता है। राधाकृष्ण की भक्ति से तत्सुखीभाव की स्थापना कर उसे सांसारिक स्वार्थ या आत्मसुख कामना से हरिवंश जी ने सर्वथा पृथक्‌ कर दिया है। इस संप्रदाय की उपासना रसोपासना कही जाती है जिसमें इष्ट देवी राधा की ही प्रधानता है।

हितहरिवंश का निधन विक्रम सं. 1609 (सन्‌ 1552 ई.) में वृंदावन में हुआ। अपने निधन से पूर्व इन्होंने ब्रज में माधुर्यभक्ति का पुनरुत्थान कर एक नूतन पद्धति को प्रतिष्ठित कर दिया था। इनकी शिष्यपरंपरा में भक्त कवि हरिराम व्यास, सेवक जी, ध्रुवदास जी आदि बहुत प्रसिद्ध हिंदी कवि हैं।

  • राधासुधानिधि :संस्कृत भाषा में राधाप्रशस्ति
  • स्फुट पदावली ;ब्रजभाषा में
  • हित चौरासी :ब्रजभाषा में [1]

स्फुट पदावली में सिद्धान्त के कुछ दोहों के अतिरिक्त राधा- कृष्ण की ब्रज-लीला का वर्णन है। और हित चौरासी में मधुर -लीला -परक चौरासी स्फुट पदों का संग्रह है। हित चौरासी राधावल्लभ सम्प्रदाय का मेरुदण्ड है जिसमें राधा -कृष्ण का अनन्य प्रेम,नित्य विहार ,रासलीला ,भक्ति-भावना ,प्रेम में मान आदि की स्थिति ,राधावल्लभ का यथार्थ स्वरुप आदि वर्णन किया गया है।

माधुर्य भक्ति का वर्णन

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गोस्वामी हितहरिवंश की आराध्या श्री राधा हैं किन्तु राधा-वल्लभ होने के श्रीकृष्ण का भी बहुत महत्त्व है। अपने सिद्धांत के छार दोहों में इन्होंने कृष्ण के ध्यान तथा नाम-जप का भी निर्देश दिया है:

श्रीराधा-वल्लभ नाम को ,ह्रदय ध्यान मुख नाम।

इस प्रकार सिद्धांततः आनन्द-स्वरूपा राधा ही आराध्या हैं। किन्तु उपासना में राधा और उनके वल्लभ श्रीकृष्ण दोनों ही ध्येय हैं। गोस्वामी हितहरिवंश के अनुसार आनन्दनिधि श्यामा ने श्रीकृष्ण के लिए ही बृषभानु गोप के यहां जन्म लिया है। वे श्रीकृष्ण के प्रेम में पूर्ण रूपेण रंगी हुई हैं। प्रेममयी होने के साथ-साथ श्रीराधा रूपवती भी हैं। इनकी सुन्दरता का वर्णन दृष्टव्य :

आवत श्री बृषभानु दुलारी।
रूप राशि अति चतुर शिरोमणि अंग-अंग सुकुमारी।।
प्रथम उबटि ,मज्जन करि , सज्जित नील बरन तन सारी।
गुंथित अलक , तिलक कृत सुन्दर ,सुन्दर मांग सँवारी।।
मृगज समान नैन अंजन जुत , रुचिर रेख अनुसारी।
जटित लवंग ललित नाशा पर ,दसनावली कृतकारी।।
श्रीफल उरज कुसंभी कंचुकी कसि ऊपर हार छवि न्यारी।
कृश कटि ,उदर गंभीर नाभि पुट ,जघन नितम्बनि भारी।।
मानों मृनाल भूषन भूषित भुज श्याम अंश पर डारी।।
जै श्री हितहरिवंश जुगल करनी गज विहरत वन पिय प्यारी।।[1]

राधावल्लभ भी सौन्दर्य की सीमा हैं। उनके वदनारविन्द की शोभा कहते नहीं बनती। उनका यह रूप-माधुर्य सहज है ,उसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं। उनके इस रूप का पान कर सभी सखियाँ अपने नयनों को तृप्त करती हैं।

लाल की रूप माधुरी नैननि निरखि नेकु सखि।
मनसिज मन हरन हास ,सामरौ सुकुमार राशि,
नख सिख अंग अंगनि उमंगी ,सौभग सीँव नखी।।
रंगमगी सिर सुरंग पाग , लटक रही वाम भाग,
चंपकली कुटिल अलक बीच बीच रखी।
आयत दृग अरुण लोल ,कुंडल मंडित कपोल,
अधर दसन दीपति की छवि क्योंहू न जात लखी।।
अभयद भुज दंड मूल ,पीन अंश सानुकूल,
कनक निकष लसि दुकूल ,दामिनी धरखी।
उर पर मंदार हार ,मुक्ता लर वर सुढार,
मत्त दुरद गति ,तियन की देह दशा करखी।[1]

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बाहरी कड़ियाँ

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