भारतीय न्यायदर्शन (तर्कशास्त्र) में हेत्वाभास उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वास्तविक हेतु का अभाव होने पर या किसी अवास्तविक असद् हेतु के वर्तमान रहने पर भी वास्तविक हेतु का आभास मिलता या अस्तित्व दिखाई देता है और उसके फल-स्वरूप भ्रम होता या हो सकता हो। न्याय दर्शन में किसी बात को सिद्ध करने के लिये उपस्थित किया हुआ वह कारण जो 'कारण सा' प्रतीत होता हुआ भी ठीक कारण न हो ।

'हेत्वाभास' दो शब्दों 'हेतु' और 'आभास' की सन्धि से बना है। 'आभास' का मतलब है 'जो नहीं है वह दीखना' या 'जो नहीं है वैसा दीखना'। हेतु का आभास तब होता है जब हेतु के पाँचों लक्षणों (पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, अवाधितत्व और असत् प्रतिपक्षत्व) का अभाव हो। सद्-हेतु पाँच रूपों से युक्त होना चाहिये-

पक्षवृत्तित्वम् – पक्ष में आवश्यक रूप से रहना ।

सपक्षवृत्तित्वम् – सपक्ष में भी आवश्यक रूप से रहना ।

विपक्षावृत्तित्वम् - विपक्ष में न रहना ।

अबाधितत्वम् – अन्य किसी प्रमाण से हेतु का खण्डन न हो ।

असत्प्रतिपक्षितत्वम् – ऐसा कोई समान बल वाला या बलतर तर्क या हेतु न हो जो साध्य का अभाव पक्ष में सिद्ध करता हो ।

भारतीय नैयायिकों ने इसके पाँच प्रकारों की चर्चा की है। गौतम ने हेत्वाभास के निम्नलिखित पाँच भेद बताए हैं-

  1. सव्यभिचार
  2. विरुद्ध
  3. प्रकरणसम,
  4. साध्यसम, और
  5. कालातीत ।

उपरोक्त पाँच हेत्वाभासों में

जो हेतु और दूसरी बात भी उसी प्रकार सिद्ध करे अर्थात् ऐकान्तिक न हो, वह सव्यभिचार कहलाता है । जैसे,— "शब्द नित्य है क्योंकि वह अमूर्त है; जैसे परमाणु" । यहाँ अमूर्त होना जो भेद दिया गया है, वह बुद्धि का उदाहरण लेने से शब्द को अनित्य भी सिद्ध करता है ।

जो हेतु प्रतिज्ञा के ही विरुद्ध पड़े वह विरुद्ध कहलाता है । जैसे,— "घट उत्पत्ति धर्मवाला है, क्योंकि वह नित्य है ।"

जिस हेतु में जिज्ञास्य विषय (प्रश्न) ज्यों का त्यों बना रहता है, वह प्रकरणसम कहलाता है । जैसे,—"शब्द अनित्य है; उसमें नित्यता नहीं है।"

जिस हेतु को साध्य के समान ही सिद्ध करने की आवश्यकता हो, उसे साध्यसम कहते हैं । जैसे,—"छाया द्रव्य है क्योंकि उसमें गति है।" यहाँ छाया में स्वतः गति है, इसे साबित करने की आवश्यकता है ।

यदि हेतु ऐसा दिया जाय जो कालक्रम के विचार से साध्य पर न घटे, तो वह कालातीत कहलाता है । जैसे,—"शब्द नित्य है, क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति संयोग से होती है, जैसे घट के रूप की ।" यहाँ घट का रूप दीपक के संयोग के पहले भी था, पर ढोल का शब्द लकड़ी के संयोग के पहले नहीं था ।

इन्हें भी देखें

संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ

संपादित करें