होली सुभद्रा कुमारी चौहान की हिंदी कहानी है। यह उनके कहानी संग्रह बिखरे मोती में संकलित है।

कहानी का आरंभ नरेश और करुणा के मध्य होली के बारे में हो रही बातचीत से होता है, जिसमें नरेश करुणा को होली के त्यौहार पर होली खेलने को कहता है। किंतु दुःखी जीवन जी रही करुणा के लिए होली जैसा पर्व भी महत्व नहीं रखता है। करुणा गरीबी में भी स्वाभिमान के साथ जीने वाली स्त्री है। पति जगतप्रसाद दो दिन के बाद जुए में जीते हुए रुपयों के साथ अपने घर आते हैं, किंतु दरिद्रता की हालत में भी करुणा उन रुपयों को नहीं छूती है। उन रुपयों के प्रति करुणा की विरक्ति को देखकर जगत प्रसाद रुपयों को उठाकर घर से निकल जाता है। पत्नी के रोकने पर वह उसे लातों से दरकिनार करते हुए चला जाता है। जगत प्रसाद गानेवाली नर्तकी पर आसक्त होकर उसपर अपना सारा धन लुटा देता है। घर पर पत्नी पति द्वारा ठेले जाने के कारण लहूलुहान रोती रहती है। करुणा के साथ रंग की पिचकारी सहित होली खेलने आया नरेश दरवाजा खोलने को कहता है किंतु दरवाजा खुलने पर वह उसकी अवस्था पर पूछ बैठता है कि-

"भाभी, यह क्या?"[1]

"यही तो मेरी होली है, भैया।" इसी पंक्ति के साथ कहानी का अंत होता है।[2]

  1. करुणा
  2. नरेश
  3. जगत प्रसाद- करुणा का पति, शराबी, जुआरी
  4. बाबू भगवती प्रसाद- कहानी में इनके नाम मात्र का उल्लेख है। उनकी कहानी में कोई भूमिका नहीं दिखाई गई है।
  1. सुभद्रा कुमारी, चौहान (1932). बिखरे मोती. जबलपुर: उद्योग मंदिर. पृ॰ 32.
  2. सुभद्रा कुमारी, चौहान (1932). बिखरे मोती. जबलपुर: उद्योग मंदिर. पृ॰ 32.