गणित में 1 - 2 + 4 - 8 + · · · एक अनन्त श्रेणी है जिसके व्यंजक उत्तरोतर दो की घात के रूप में हैं। एक गुणोत्तर श्रेणी के रूप में इसका प्रथम पद 1, है और सार्वानुपात -2 है।

एक वास्तविक संख्याओं की श्रेणी के रूप में यह अनन्त पर अपसरण करती है, अतः वास्तविक परिदृश्य में इसका संकलन महत्व हीन है। विस्तृत रूप से देखने पर श्रेणी का व्यापक संकलन ⅓ है।

ऐतिहासिक तर्क संपादित करें

आधुनिक विधियाँ संपादित करें

गुणोत्तर श्रेणी संपादित करें

 

यहाँ पर a= 1 और r = - 2 है अतः संकलन का मान ⅓ होगा।

आयलर संकलन संपादित करें

लियोनार्ड ऑयलर ने अभिसारी श्रेणी ½ − ¼ + ⅛ − 1/16 + ... से 1 - 2 + 3 - 4 + · · · के रूपांतरण का अध्ययन किया जिसे अब ऑयलर रूपांतर के रूप में जाना जाता है। ऑयलर ने निष्कर्ष निकाला कि 1 − 2 + 4 − 8 + ... = ⅓[1]। उनके अनन्त श्रेणी के संकलन से सम्बंधित विचार आधुनिक पहुँच से मेल नहीं खाते, आज ऑयलर संकलन के अनुसार 1 − 2 + 4 − 8 + ... ऑयलर संकलनीय है और इसका ऑयलर संकलन ⅓ है।[2]

 
Excerpt from the Institutiones

ऑयलर रूपांतर धनात्मक पदों के अनुक्रम से आरम्भ होता है:

a0 = 1,
a1 = 2,
a2 = 4,
a3 = 8, ... .

अतः अग्र अन्तर का अनुक्रम निम्न प्रकार होगा

Δa0 = a1a0 = 2 − 1 = 1,
Δa1 = a2a1 = 4 − 2 = 2,
Δa2 = a3a2 = 8 − 4 = 4,
Δa3 = a4a3 = 16 − 8 = 8, ...,

जो अभिन्न अनुक्रम हैं अतः प्रत्येक n के लिए सभी पुनरावृत्‍त अग्र अन्तर Δna0 = 1 से आरम्भ होते हैं। ऑयलर रूपांतर निम्न श्रेणी है

 

यह एक अभिसारी गुणोत्तर श्रेणी है जिसका सामान्य सूत्र से मान ⅓ प्राप्त होता है।

बोरल संकलन संपादित करें

श्रेणी 1 - 2 + 4 - 8 + . . . का बोरल संकलन भी ⅓ है; जब एमिल बोरेल ने 1896 में बोरेल संकलन का सीमान्त सूत्र प्रतिपादित किया तब श्रेणी 1 − 1 + 1 − 1 + ... के बाद यह उसके उदाहरणार्थ प्रथम परिणामों में से एक था।[3]

टिप्पणी संपादित करें

  1. Euler p.234
  2. See Korevaar p.325
  3. Smail p. 7.

सन्दर्भ संपादित करें

  • आयलर, लियोनार्ड (1755). Institutiones calculi differentialis cum eius usu in analysi finitorum ac doctrina serierum. मूल से 25 फ़रवरी 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 मई 2013.
  • फेररो, गोल्विनि और मार्को पांज़ा (2003). "Developing into series and returning from series: A note on the foundations of eighteenth-century analysis". Historia Mathematica. 30 (1): 17–46. डीओआइ:10.1016/S0315-0860(02)00017-4. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  • Gerhardt, C.I. (1860). Briefwechsel zwischen Leibniz und Christian Wolf aus den handschriften der Koeniglichen Bibliothek zu Hannover. Halle: H.W. Schmidt.
  • Knobloch, Eberhard (2006). "Beyond Cartesian limits: Leibniz's passage from algebraic to "transcendental" mathematics". Historia Mathematica. 33: 113–131. डीओआइ:10.1016/j.hm.2004.02.001.
  • Korevaar, Jacob (2004). Tauberian Theory: A Century of Developments. Springer. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 3-540-21058-X.
  • Leibniz, Gottfried (2003). S. Probst, E. Knobloch, N. Gädeke (संपा॰). Sämtliche Schriften und Briefe, Reihe 7, Band 3: 1672–1676: Differenzen, Folgen, Reihen. Akademie Verlag. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 3-05-004003-3. मूल से 17 अक्तूबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 मई 2013.सीएस1 रखरखाव: editors प्राचल का प्रयोग (link)
  • Moore, Charles (1938). Summable Series and Convergence Factors. AMS. साँचा:LCC.
  • Smail, Lloyd (1925). History and Synopsis of the Theory of Summable Infinite Processes. University of Oregon Press. साँचा:LCC.