[1][2]कसूती


कसूती (कन्नड़ा: ಕಸೂತಿ) लोक कढ़ाई का एक पारम्परिक रूप है जो भारत के कर्नाटक राज्य में प्रचलित है। कसूती का काम बहुत बारीक होता है और कभी-कबार ५००० तक के टाँके हाथ से लगाए जाते हैं - 'इल्कल साड़ी', 'रविके'/'कुप्पसा' और 'अंगी' जैसे पोशाकों पर। कर्नाटक हस्तशिल्प विकास निगम (के एच डी सी) के अंतर्गत कसूती कढ़ाई के लिए एक भौगोलिक संकेतक (जी आई) संरक्षण है जो के एच डी सी को कसूती के बौद्धिक सम्पदा अधिकार प्रदान करती है।

इतिहास

कसूती का इतिहास चालुक्य काल से शुरू होता है। 'कसूती' शब्द का जन्म कन्नड़ा के दो शब्द 'कई' (अर्थात हाथ) तथा 'सुति/सुत्तु' (अर्थात लपेटना) के मिलन से बना है, जो एक ऐसी क्रिया को दर्शाता है जहाँ हाथों से रुई को लपेटा या बुना जाता है। १७ वीं शताब्दी के मैसूर साम्राज्य के महिलाओं से ये अपेक्षा थी की वे ६४ कलाओं में निपुण हों, और कसूती भी उन कलाओं में से एक थी। कसूती कढ़ाई में कर्नाटक के रंगोलियों से प्रभावित लोक रचनाएँ देखने को मिलती हैं। कर्नाटक में कसूती साड़ियां वधु श्रृंगार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माने जाते हैं, जिनमे से एक 'चन्द्रकला' नाम की काले रेशम की एक साड़ी सबसे प्रमुख है।


कसूती कढ़ाई

इस कढ़ाई में ‘गोपुरा’, रथ, पालकी, दियें और शंख जैसे कई बारीक प्रतिरूप होते हैं। कसूती के लिए उन्ही सामग्रियों को उपयोग किया जाता है जो स्थानीय रूप से उपलब्ध हों। यह काम बहुत श्रमसाध्य है क्योंकि इस कढ़ाई में कपड़े के प्रत्येक धागे की गिनती की जाती है। ‘पैटर्न’ गाठों का भी इस्तमाल किया जाता है, यह सुनिश्चित करने के लिए की कपड़े के दोनों किनारों एक समान दिख रहे हों। इच्छित प्रतिरूप को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के टांकों का उपयोग किया जाता है, जिनके नाम हैं 'गवंती', 'मुर्गी', 'नेगी' और 'मेंथी'। 'गवंती' एक 'डबल रनिंग' टांका है जिसे ऊर्ध्वाधर, क्षैतिज और विकर्ण रेखाओं को बनाने हेतु इस्तमाल किया जाता है; 'मुर्गी' एक 'ज़िग-ज़ैग' टांका है, 'नेगी' एक 'रनिंग' टांका है और 'मेंथी' एक 'क्रॉस' टांका है जो मेथी के बीज जैसा दिखता है।


वर्त्तमान परिदृश्य

कसूती कढ़ाई केवल कला ही नहीं, एक आमदनी का भी ज़रिया है। कर्नाटक के २०वीं सदी में, लगभग सारी औरतों ने इस कला को सीखा था, ताकि घर से निकले बिना, वे इसके द्वारा कमाए आय से गृहस्ती का समर्थन कर सकें। आज के युग में, एक पूर्णकालिक कुशल कारीगर, महीने में कम से कम ₹१०,००० से ₹१५,००० कमा लेता है।

कसुती अपनी पारंपरिक सीमाओं को पार कर, मैसूर रेशम साड़ी जैसी अन्य पोशाकों में भी उपयोग किया जाने लगा है। कसुती संस्कृति को प्रोत्साहित करने, और ग्रामीण महिलाओं को अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए एक अवसर प्रदान करने के लिए कर्नाटक सरकार के समाज कल्याण विभाग द्वारा, हुबली शहर में एक 'कसुती केंद्र' स्थापित किया गया था। परन्तु, अक्षम संरक्षण के पीड़ित कसूती की कला को आज कल लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं; जिसका एक प्रमाण है धारवाड़ शहर के 'जे एस एस' महाविद्यालय द्वारा प्रस्तुत 'कर्नाटक कसूती' कक्षाओं की समाप्ति।

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Kasuti
  2. https://lifestyle.livemint.com/news/big-story/karnatakas-kasuti-a-stitch-across-time-111628180179897.html