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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 18:06, 6 जून 2015 (UTC)उत्तर दें

सर सैयद अहमद खान संपादित करें

सर सैयद अहमद ख़ान (उर्दू: سید احمد خان بہا در‎‎, 17 अक्टूबर 1817 - 27 मार्च 1898) हिन्दुस्तानी शिक्षक और नेता थे जिन्होंने भारत के मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की। उन्होने मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएण्टल कालेज की स्थापना की जो बाद में विकसित होकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। उनके प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने का काम किया और पाकिस्तान की नींव डाली। सय्यद अहमद खान ईस्ट इण्डिया कम्पनी में काम करते हुए काफ़ी प्रसिद्ध हुए। सय्यद अहमद १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार बने रहे और उन्होने बहुत से यूरोपियों की जान बचायी। बाद में उस संग्राम के विषय में उन्होने एक किताब लिखी: असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, जिसमें उन्होने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की। ये अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता थे। उनका विचार था कि भारत के मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार रहना चाहिये। उन्होने उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया।

क्या सर सैयद अहमद खान घोर जातिवादी थे? संपादित करें

  सर सैयद अहमद खान शैक्षिक मिशन रुपी नाव के मल्लाह थे परन्तु साथ ही साथ वो अंग्रेज़ी सरकार के बहुत बड़े वफ़ादार भी थे जिसे उन्होंने कई बार स्वीकार किया है और अशराफ़ (सवर्ण) मुसलमानों को भी अंग्रेज़ी सरकार का निष्ठावान बनने की प्रेरणा देते रहे. उन्होंने पूरे मुस्लिम समाज की भलाई के लिए कभी नहीं सोचा बल्कि वो केवल ‘शरीफ़ क़ौम’ के लाभ के लिए कार्य करते रहे. वह उंच-नीच को बनाए रखना और ‘नीची जाति’ को हर प्रकार से दबा कर रखना चाहते थे व उन्हें गाली-गलौच से संबोधित किया करते थे. 1857 में मुसलमानों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंका, उसमें मुसलमानों को नाकामी का मुंह देखना पड़ा और जान-माल की बहुत हानि हुई. सर सय्यद ने अंग्रेजों को समझाने की कोशिश की कि इस विद्रोह में बड़ी बिरादरियों (ऊंची जाति) के मुसलमानों का हाथ नहीं है, ये तो आपके निष्ठावान हैं.

वो सवर्ण मुसलमानों को समझाते रहे कि तुम सरकार के साथ स्वामिभक्ति के साथ पेश आओ और उनकी दृष्टि में स्वयं को संदेहास्पद मत बनाओ. 28 दिसम्बर, 1887 में लखनऊ के अन्दर ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ की दूसरी सभा में उन्होंने कहा: ‘जो निचली जाति के लोग हैं वो देश या सरकार के लिए लाभदायक नहीं हैं जबकि ऊंचे परिवार के लोग रईसों का सम्मान करते हैं साथ ही साथ अंग्रेज़ी समाज का सम्मान तथा अंग्रेज़ी सरकार के न्याय की छाप लोगों के दिलों पर जमाते हैं, वह देश और सरकार के लिए लाभदायक हैं. क्या तुमने देखा नहीं कि ग़दर (विद्रोह) में कैसी परिस्थितियां थीं? बहुत कठिन समय था. उनकी सेना बिगड़ गयी थी. कुछ बदमाश साथ हो गए थे और अंग्रेज़ भ्रम में थे, उन्होंने समझ लिया था कि जनता विद्रोही है…ऐ भाइयों! मेरे जिगर के टुकड़ों! ये हाल सरकार का और तुम्हारा है. तुम को सीधे ढंग से रहना चाहिए न इस प्रकार के कोलाहल से कि जैसे कौवे एकत्र हो गए हों! ऐ भाइयों! मैंने सरकार को ऐसे कड़े शब्दों में आरोप लगाया है किन्तु कभी समय आयेगा कि हमारे भाई पठान, सादात, हाशमी और क़ुरैशी जिनके रक्त में इब्राहीम (अब्राहम) के रक्त की गंध आती है, वो कभी न कभी चमकीली वर्दियां पहने हुए कर्नल और मेजर बने हुए सेना में होंगे किन्तु उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए. सरकार अवश्य संज्ञान लेगी शर्त ये है कि तुम उस को संदेह मत होने दो….. न्याय करो कि अंग्रेजों को शासन करते हुए कितने दिन हुए हैं? ग़दर के कितने दिन हुए? और वो दुःख जो अंग्रेजों को पहुंचा यद्यपि गंवारों से था, अमीरों से न था. इस को बतलाइए कि कितने दिन हुए?…मैं सत्य कहता हूं कि जो कार्य तुम को ऊंचे स्तर पर पहुंचाने वाला है, वह ऊंची शिक्षा है. जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जन्म न लेंगे तब तक हमारा अनादर होता रहेगा, हम दूसरों से पिछड़े रहेंगे और उस सम्मान को नहीं पहुंचेंगे जहां हमारा दिल पहुंचना चाहता है. ये कुछ कड़वी नसीहतें हैं जो मैंने तुम को की हैं. मुझे इसकी चिंता नहीं कि कोई मुझे पागल कहे या कुछ और!

The Loyal Mohammedans of India अर्थात ‘रिसाला-ए-खैर ख्वाहान-ए-मुस्लिम’ नामक साप्ताहिक पत्रिका जो उर्दू एवं अंग्रेज़ी में प्रकाशित होती थी, इस में सर सैयद ने इस बात कि वकालत की कि ‘ऊंची बिरादरियों’ में जन्म लेने वाले मुसलमानों को अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाली मुहिम में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। 1860 में छपी उस पत्रिका में उन्होंने लिखा:

उस मनहूस दिन (ग़दर) अगर किसी जमात (समूह) ने अंग्रेजों का साथ दिया वो थे मुसलमान, जिन मुसलमानों ने विद्रोहियों का साथ दिया उन का समर्थन हम किसी प्रकार भी नहीं कर सकते. यही नहीं बल्कि उनके व्यवहार ऐसे रहे जिस से घृणा हुए बिना नहीं रहती. जिस लिए उन्होंने बर्बरतापूर्वक इस नरसंहार में भाग लिया उस के लिए वो क्षमा योग्य नहीं.’ यहां पर सर सैयद साहब ने ‘मुसलमान’ शब्द का प्रयोग किया है और उन के एक लेख से पता चलता है कि उनके निकट मुसलमान केवल अशराफ़ (सवर्ण) हैं जिस का विस्तार आगे आ रहा है. एक स्थान पर वो लिखते हैं:

‘क़यामत (प्रलय) के दिन जब ख़ुदा मुसलमान तेली, जुलाहों, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मुसलमानों को दंड देने लगेगा तो प्रार्थी सामने हो कर याचना करेगा कि ख़ुदा तआला न्याय कीजिए’ यहां उन्होंने पहले ही मान लिया कि ख़ुदा केवल मुसलमान तेली, जुलाहों और अनपढ़ लोगों को दंड देगा. 1857 के विद्रोह के बारे में सर सैयद साहब ने ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द’ लिखी. उस में एक जगह उन्होंने ज़मींदारों के विद्रोह के कारणों को वर्णित करते हुए ये भी लिख दिया,

जुलाहों का तार तो बिलकुल टूट गया था जो बदज़ात सब से ज्यादा इस हंगामे में गर्मजोश थे.’

सर सैयद साहब की पुस्तक ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिंद’ के बारे में राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी अपनी पुस्तक ‘मसावात की जंग,(अर्थात समानता की लड़ाई) पस-ए-मंज़र बिहार के पसमांदा मुसलमान’ में लिखते हैं:

‘ध्यान देने योग्य बात ये है कि इस पुस्तक का अंग्रेज़ी में अनुवाद ‘सर ऑकलैंड कोल्बिन’ एवं जी.एफ़.आई. ग्राहम’ ने किया. ये पुस्तक ‘The Cause of Indian Revolt’ के नाम से 1873 में इसलिए प्रकाशित की गयी कि अंग्रेज़ अधिकारी सवर्ण मुसलमानों कि स्वामीभक्ति और मोमिनों (जुलाहों) की गद्दारी एवं विद्रोह से परिचित हो सकें…सर सैयद अहमद खां अंग्रेजों को ये समझाने में सफल हो गए कि भारत में बड़ी जातियों के मुसलमान अंग्रेज़ी सरकार के निष्ठावान हैं. स्ट्रीच ने सरकारी तौर से कहा है 1894 तक उत्तरी भारत की बड़ी बिरादरियों के मुसलमान अंग्रेज़ी सरकार की शक्ति के वाहक थे.’ 28 दिसम्बर, 1887 को मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस की दूसरी सभा में भाषण देते हुए सर सैयद साहब ने लेजिस्लेटिव कौंसिल में चुने हुए सदस्यों को भेजने का विरोध इस लिए किया कि आम जनता के मध्य से भी सदस्य चुन कर आएंगे जो वाइसरॉय से बात-चीत करने या ऊंची जाति के साथ एक टेबल पर बैठने के योग्य नहीं होंगे. उनका मानना था कि ऊंचे परिवार में जन्म लिया हुआ व्यक्ति ही वाइसरॉय की कौंसिल में बैठने के योग्य एवं सक्षम है. कौंसिल में सदस्यों का चुनाव जाति आधारित होना चाहिए न कि क्षमता एवं योग्यता के आधार पर? उन्होंने कहा:

‘सरकार भारतीय अमीरों में से जिन को वह इस कुर्सी पर बैठने योग्य, सम्मानित एवं भरोसेमंद समझती है उन को ही बुलाती है. संभवतः इस बात पर लोगों को संदेह होगा कि सम्मानित व्यक्ति को क्यों बुलाती है? योग्य व्यक्ति को क्यों नहीं?

इस कारण बताते हुए वो स्वयं लिखते हैं :

‘वाइसराय के साथ कौंसिल में बैठने के लिए अनिवार्य शर्त है कि एक सम्मानित व्यक्ति देश के सम्मानित लोगों में से हो. क्या हमारे देश के सेठ इस बात को पसंद करेंगे कि एक तुच्छ व्यक्ति, यद्यपि उसने बी.ए. की डिग्री ली हो या एम.ए. की, यहां तक कि वो योग्य भी हो, उन पर बैठ कर शासन करे? उनके धन, दौलत तथा मान-सम्मान का शासक हो? कभी नहीं! कोई एक भी पसंद नहीं करेगा. गवर्नमेंट कौंसिल कि कुर्सी बहुत ही सम्मान के योग्य है. सरकार मजबूर है कि वो सम्मानित व्यक्ति के अतिरिक्त किसी को नहीं बिठा सकती और न ही वाइसराय उस को My Colleague या My Honorable Colleague अर्थात भाई अथवा श्रीमान कह सकता है. न ही शाही डिनर में और न शाही सभा में, जहां ड्यूक एवं बड़े बड़े सम्मानित व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, बुलाया जा सकता है. बात ये है कि सरकार पर ये आरोप किसी प्रकार नहीं लगाया जा सकता कि वो अमीरों को क्यों चुनती है!’

सर सय्यद साहब ने इंग्लैंड एवं भारत में सिविल सर्विस की एक सामान परीक्षाओं का विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि यदि भारत में भी यह परीक्षा होने लगे तो ‘रज़ील’ (निचली जाति) लोग भी परीक्षा पास कर के कलेक्टर तथा कमिश्नर बन जायेंगे. सर सैयद साहब ने इंग्लैंड एवं भारत में सिविल सर्विस की एक सामान परीक्षाओं का विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि यदि भारत में भी यह परीक्षा होने लगे तो ‘रज़ील’ (निचली जाति) लोग भी परीक्षा पास कर के कलेक्टर तथा कमिश्नर बन जाएंगे. इंग्लैंड में प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो ड्यूक का बेटा हो दर्ज़ी का, परीक्षा पास कर के पद प्राप्त कर सकता है परन्तु वो कहते हैं कि इंग्लैंड एवं भारत की परिस्थितियों में भिन्नताएं हैं. उनके अनुसार भारत में स्वयंघोषित ‘ऊंची जाति’ के लोग ही अंग्रेज़ी शासन के निष्ठावान हैं, ‘निचली जाति’ के लोग न तो देश के लिए लाभदायक हैं और न ही सरकार के लिए. ऊंची जाति के लोग ये कभी सहन नहीं करेंगे कि उन पर नीची जाति का व्यक्ति शासन करे. वह आगे लिखते हैं:

‘ये बात खुल स्पष्ट है कि विदेश में प्रत्येक व्यक्ति छोटा-बड़ा, ड्यूक या लार्ड, ऊंचे परिवार का या दर्ज़ी का पुत्र एक साथ परीक्षा दे सकते हैं. आप लोग विश्वास करते होंगे और अवश्य करते होंगे कि जो नीची जाति के लोग हैं वो देश या शासन के लिए लाभदायक नहीं होंगे और ऊंचे परिवार वाले अमीरों का ही सम्मान करते हैं तथा अच्छा व्यवहार करते हैं एवं अंग्रेज़ी समाज का सम्मान तथा ब्रिटिश शासन के न्याय की छाप लोगों के ह्रदय पर जमाते हैं परन्तु जो ब्रिटेन से आते हैं वो हमारी आंखों से इतनी दूर हैं कि हम नहीं जानते कि वो लार्ड के बेटे हैं या ड्यूक के या एक दर्ज़ी के. इस बात का तात्पर्य यह है कि हम पर एक तुच्छ व्यक्ति शासन करता है परन्तु वो हमारी दृष्टि से छुपा हुआ रहता है लेकिन भारतियों के बारे में ऐसा संभव नहीं. भारत की ‘शरीफ़ क़ौमें’ एक निचले वर्ग के भारतीय को जिस की नींव/जड़ से परिचित नहीं, उसे अपने ऊपर शासक होना पसंद नहीं करेंगे. ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज’ को स्थापित करने के पीछे सर सैयद साहब का क्या लक्ष्य था उसकी व्याख्या श्रीमान अबू खालिद बिन साअदी अनवर ने अपने एक लेख में की है. जाति व्यवस्था के ग़ैर-इस्लामी दृष्टिकोण की निंदा करते हुए लिखते हैं:

‘सर सैयद मरहूम (दिवंगत) के प्रायः लेखनों से पता चलता है कि उन्होंने मुसलमानों के सवर्ण वर्ग के विद्रोह के परिणामस्वरूप विनाश के बाद उनके पुनरुत्थान के लिए मदरसा-तुल-उलूम, अलीगढ़ स्थापित किया. अलीगढ़ से उत्तीर्ण होने के पश्चात् छात्रों के चरित्र प्रमाण पात्र में 1947 तक नियमतः ये लिखा जाता रहा कि ’प्रार्थी अपने जनपद के (शरीफ़) उच्च परिवार से सम्बन्ध रखता है.‘ ये अलग बात है कि परिस्थितियों ने शिक्षा के इस केंद्र को मुसलमानों के लिए उच्च शिक्षा का एकमात्र आश्रय स्थल बना दिया. श्री अब्दुर्रहमान आबिद ने अपने एक लेख में ज़ात-पात को पूर्णतः ग़ैरइस्लामी बताया है और ये कुरीति मुसलमानों में किस प्रकार आई, उस के दृष्टिकोण एवं परिस्थितियों पर चर्चा की है. इस से उलेमा जो प्रभावित हुए उन को वर्णित करते हुए लिखते हैं कि:

‘सर सैयद के अलीगढ़ आन्दोलन में भी उन का वास्तविक लक्ष्य अशराफ़ (सवर्ण मुसलामन) थे. अशराफ़ के लिए ही उन्होंने अलीगढ़ कॉलेज की नींव रखी.

श्री अशफ़ाक़ हुसैन अंसारी पूर्व सांसद (सातवीं), पूर्व सदस्य राजकीय पिछड़ा वर्ग आयोग (पहला) का दैनिक राष्ट्रिय सहारा उर्दू, नयी दिल्ली 19 दिसम्बर 2001 के अंक में एक लेख ’आंकल के मैदान में दोज़खी के खाने से’ प्रकाशित हुआ था. उस में उन्होंने कहा था कि कांग्रेस की लीडरशिप में किसी स्तर पर पसमांदा मुसलमान दिखाई नहीं देते. प्रत्येक स्थान पर सवर्ण मुसलमानों का प्रभुत्व है. उन के इस लेख पर प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, पूर्व सांसद, पूर्व प्रोफेसर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी श्री डॉ. सैयद मोहम्मद हाशिम किदवई ने एक आलोचनात्मक पत्र 30 दिसम्बर 2001 के अंक में लिखा. इस में उन्होंने मुसलमानों के अंतर्गत पायी जाने वाली ऊंच-नींच की अवधारणा को इस्लामी दृष्टिकोण से अनुचित बताया और इस को समाप्त करने पर जोर दिया. उन्होंने लिखा कि मुसलमानों को परस्पर एकता की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु ’दुर्भाग्य से इस लेख से मुसलमानों के आपसी मतभेद दूर नहीं हुए. वो अपने पत्र को समाप्त करते हुए लिखते हैं:

‘दुर्भाग्यवश, सवर्ण बनाम अवर्ण का फ़ितना गत शताब्दी से प्रारंभ हुआ और अफ़सोस कि सर सय्यद अहमद खां साहब ने भी इस को रोकने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि अपने मैदान में उन्होंने इस के विरुद्ध हथियार डाल दिया. उन्होंने अंग्रेज़ी और पश्चिमी शिक्षा को केवल सवर्ण मुसलमानों तक ही सीमित करने के लिए कहा. यह अन्यत्र है कि अब वह जाति पर आधारित पत्रों एवं लेखों की भरपूर प्रशंसा करने लगे हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (सर सैयद अहमद खान ने इस यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (सर सैयद अहमद खान ने इस यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी) उपर्युक्त लोगों के विचार वास्तविकता पर आधारित हैं, इस का प्रमाण सर सय्यद साहब के उस भाषण में मौजूद है जिस को उन्होंने 28 दिसम्बर, 1887 में मोहम्मडन एजुकेशनल कांग्रेस लखनऊ की दूसरी सभा में दिया था जिसका कुछ भाग ऊपर वर्णित किया जा चुका है. यहां तक कि उन्होंने अपने भाषण के आरम्भ में ही कह दिया था:

‘मेरा स्वाभाव कभी राजनितिक मुद्दों पर व्याख्यान देने का नहीं है और न ही मुझे याद है कि मैंने कभी ऐसा किया है. मेरा ध्यान सदैव अपने मुसलमान भाइयों कि शिक्षा की ओर रहा और इसी को ही मैं हिंदुस्तान एवं अपने समुदाय के लिए लाभदायक समझता हूं, इस समय कुछ परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न हुई हैं जिनके कारण आवश्यक है कि अपनी राय से अपने भाईयों को जिस को उनके लाभ के लिए उचित समझता हूं, अवगत करा दूं. उन्होंने इस भाषण में कहा कि मेरा ध्यान सदैव अपने मुसलमान भाईयों की शिक्षा की ओर रहा है, और उनके एक लेख से पता चलता है कि उनके निकट मुसलमान केवल अशराफ़ ही हैं. दूसरी बात ये है कि उन्होंने इस भाषण में ‘अपने मुसलमान भाईयों’, ‘अपने भाईयों’ आदि शब्दों का प्रयोग किया है. उनके निकट इन शब्दों (संबोधनों) से तात्पर्य किन लोगों से हैं इसकी व्याख्या भाषण के अगले भाग में हो जाती है. यह अंश ऊपर गुज़रा है, जिसमें था कि:

‘हमारे भाई पठान, सादात, हाशमी और कुरैशी जिन के खून में इब्राहीम के खून की गंध आती है. सर सैयद साहब ने पंजाब में महिलाओं की शिक्षा पर जो भाषण दिया था उसमें भी उन्होंने केवल सवर्ण मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा की बात कही थी. इससे उनके अलीगढ़ कॉलेज खोलने का उद्देश्य समझा जा सकता है कि उन्होंने इस कॉलेज को किस के लिए खोला था. 20 अप्रैल 1894, जालंधर (पंजाब) में महिलाओं की शिक्षा पर भाषण देते हुए कहा था कि –

सर सैयद अहमद खान लडकियों के शिक्षा के विरुद्ध थे तो फिर उन्हें आधुनिकरण का मसीहा कैसे माना जाय? संपादित करें

मैं लड़कियों को स्कूल भेजने के विरुद्ध हूं, पता नहीं किस प्रकार के लोगों से उन की संगत होगी! वह आगे कहते हैं:

‘परन्तु मैं बहुत ही बल के साथ कहता हूं कि सवर्ण (मुसलमान) एकत्र हो कर अपनी लड़कियों कि शिक्षा की ऐसी व्यवस्था करें जो उदहारण हो अतीत की शिक्षा का जो किसी काल में हुआ करती थी. कोई अच्छे परिवार का व्यक्ति यह कल्पना नहीं कर सकता कि वह अपनी पुत्री को ऐसी शिक्षा दे जो टेलीग्राफ़ ऑफिस में सिग्नल देने का काम करे या पोस्ट ऑफिस में पत्रों पर ठप्पा लगाया करे. बरेली के ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के भवन की नींव रखने के लिए सर सय्यद साहब को बुलाया गया था जहां मुसलामानों की नीच कही जाने वाली जाति के बच्चे पढ़ते थे. इस अवसर पर जो पता उन को दिया गया था उस पते पर उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि:

‘आप ने अपने एड्रेस में कहा है कि हम दूसरी कौमों (समुदाय) के ज्ञान एवं शिक्षा को पढ़ाने में कोई झिझक नहीं है. संभवतः इस वाक्य से अंग्रेज़ी पढ़ने की ओर संकेत अपेक्षित है. किन्तु मैं कहता हूं ऐसे मदरसे में जैसा कि आप का है, अंग्रेज़ी पढ़ाने का विचार एक बहुत बड़ी ग़लती है. इसमें कुछ संदेह नहीं कि हमारे समुदाय में अंग्रेज़ी भाषा एवं अंग्रेज़ी शिक्षा की नितांत आवश्यकता है. हमारे समुदाय के सरदारों एवं ‘शरीफों; का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी ज्ञान की ऊंची शिक्षा दिलवाएं. मुझ से अधिक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो मुसलमानों में अंग्रेज़ी शिक्षा तथा ज्ञान को बढ़ावा देने का इच्छुक एवं समर्थक हो. परन्तु प्रत्येक कार्य के लिए समय एवं परिस्थितियों को देखना भी आवश्यक है. उस समय मैंने देखा कि आपकी मस्जिद के प्रांगण में, जिसके निकट आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं. जिस वर्ग एवं जिस स्तर के यह बच्चे हैं उनको अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने वाला. उनको उसी प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही व्यस्त रखना उनके और देश के हित में अधिक लाभकारी है.’

उपयुक्त यह है कि आप ऐसा प्रयास करें कि उन लड़कों को कुछ पढ़ना-लिखना और आवश्यकता अनुसार गुणा-गणित आ जाये और ऐसी छोटी-छोटी पत्रिकाएं पढ़ा दी जाएं जिन से नमाज़ और रोज़े की आवश्यक/प्राथमिक समस्याएं जिनसे प्रतिदिन सामना होता है और इस्लाम धर्म से जुड़ी आस्था का पता चल जाये.

प्रोफेसर मसूद आलम फलाही (TheLallantop.com)के लेख से साभार 

Vivek Ranjan Rajput (वार्ता) 01:54, 20 अक्टूबर 2018 (UTC)Vivek Ranjan Rajputउत्तर दें